यह बातचित "जनपथ" (मासिक पत्रिका) के नए अंक से लिया गया है. इसके लिए जनराह "जनपथ" और उसके संपादक अनंत कुमार सिंह के प्रति आभार व्यक्त करता है. (मॉडरेटर)
लोकप्रिय लेखन और गम्भीर
लेखन के बीच खड़ी मिथ्याभिजात्य की दीवार ढाहनी होगी : राकेश कुमार सिंह.
( राकेश कुमार सिंह के साथ रजनी गुप्त की बातचित )
आदिवासी जनजीवन पर लिखने वाले साहित्यकारों में एक नाम जो पिछले दिनों बहुत
तेजी से उभर कर आया है, वह हैं राकेश कुमार सिंह. राकेश पर लिखते हुए आलोचक रोहिणी
अग्रवाल की मान्यता है –
“ तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने भीतर के आशावाद और
संघर्षशीलता को बचाए रखना- यह एक ऐसा बिंदु है जो रेणु, संजीव और राकेश कुमार सिंग
को बहुत गहरे जोड़ता है.” आदिवासी जीवन के
जानकार डॉ. वीर भारत तलवार मानते हैं – “ इधर 1855-56 के ऐतिहासिक संताल विद्रोह हूल को आधार बनाकर जो उपन्यास लिखे गए उनमें से एक राकेश
कुमार सिंह का जो इतिहास में नहीं है
उल्लेखनीय है.”
युवा आलोचक राजीव रंजन गिरी की
मान्यता है – “ अपनी गहरी संवेदना और सूक्ष्म दृष्टि के कारण कोई लेखक प्रेमचंद के द्वारा
रचे विषय, पात्र या कथ्य को लेकर भी उनकी विरासत का हकदार हो सकता हैं जैसा राकेश
कुमार सिंह की कहानी में दिखता है.”
जनपथ के लिए युवा आलोचक – उपन्यासकार डॉक्टर रजनी गुप्त ने राकेश कुमार सिंह के साथ
लंबी बातचीत की है. प्रस्तुत है :
रजनी : शुरू से शुरू करते हैं. सबसे पहले तो
आप अपनी रचनात्मकता के उत्स के बारे में बताइए.
राकेश – मेरी रचनात्मकता का उत्स है पलामू का पठार... झारखंड का अरण्य प्रदेश.
मेरी रचनात्मकता की गर्भनाल वहाँ के वर्षा- वंचित पठारी प्रदेश के हलवाहों,
चरवाहों, गड़रियों, संपेरों, मदारियों, नटुओं, आदिवासियों आदि आदि से जुड़ी है. इनका
जीवन, दुख-दैन्य, संघर्ष और अमर्ष मेरी रचनाशीलता के स्रोत हैं.
रजनी : क्षमा करें, यह कुछ बाद की बात है.
राकेश – मतलब ?
रजनी – बात शुरू से शुरू नहीं हो सकी. मैं
आपकी एकदम शुरूआती कहानियों और आज की रचनाओं के फर्क को समझना चाहती हूँ. आपकी
ग्लेशियर, खत, घोड़ा, रहस्य की एक रात जैसी कहानियों का समय और आज...
राकेश – यानी पूरी तैयारी के साथ आई हैं आप... तो हाँ, आपने जो नाम लिए वे
मेरी शुरूआती कहानियाँ हैं पर याद रहे कि मेरी पहली कहानी गाँव से ही निकली थी.
नगरीय जीवन की कहानियाँ लिखते हुए लगा, मानो मैं इस ईलाके में सैलानी की भाँति आया
हूँ.
रजनी : जिसे बार-बार वापस लौटना है ?
राकेश – यही सच है. अनुभव रहा कि रचनाकार की कलम उसकी अपनी जमीन से ही
खाद-पानी ग्रहण करती है तभी उसकी रचनात्मकता को नित नई उड़ान की ऊर्जा मिलती है.
मैं बार-बार जहाज के पंछी की तरह गाँव के मस्तूल पर लौटता रहा हूँ. त्रिपुर सुंदरी हो, संभावमी युगे युगे या हाँका... मैंने अपनी ज़मीन पर लौट कर सहज अनुभव किया
है.
रजनी : और यह लौटना अब लगभग स्थायी हो गया ?
राकेश – तकरीबन !
रजनी : यह हुआ कैसे ? स्वत: स्फूर्त या सायास
?
राकेश – ऐसा है रजनी, कि हर दौर में उस समय के आलोचक, संपादक या बड़ी पत्रिकाएँ
रचना के मोड-कोड तय करती हैं. कभी कामरेड का कोट चर्चित
होती है, कभी अपराध. कभी चक्रवात तो कभी साईकिल
चाची. ऐसी चर्चित रचनाओं को मानक समझने के भ्रम में नवलेखन वैसा ही लिखना
चाहता है. मेरे साथ भी शुरू में महाजनो येन गतअ स: पंथा वाला वाकया हुआ. मैं भी मर्सी किलिंग और ग्लेशियर
लिखने लगा. पर हांका की व्यापक स्वीकृति ने मानों मुझे अपनी जमीन का पता बता दिया.
मैंने अनुभव किया कि मैं दिल्ली-पटना-भोपाल द्वारा तय एजेंडे पर न भी लिखूँ तो कोई
हर्ज नहीं. क्या नहीं लिखना सूझते ही मुझे मेरी प्राथमिकताएँ समझ में आने लगीं.
अपने अपेक्षित गृह जिले और प्रदेश को साहित्य में अधिकाधिक उपस्थित करने की धुन
सवार हो गई. यदी इसे ही आप लौटना कहती हैं तो मैं मान लूँगा कि शायद हाँ.
रजनी : इसका घाटा हुआ कि हमें आपकी विज्ञान
कथाओं से वंचित होना पड़ा.
राकेश – हाँ शायद ! लेखन की शुरूआत में मैंने रक्तबीज या आपरेशन होली लिखी थी.
अब समय नहीं मिलता. झारखंड से निकल नहीं पा रहा, हालाँकि चाहता हूँ कि तरंगो के प्रेत जैसी और कहानियाँ उतार सकूँ. पर समय
की कमी और शायद हौसले की भी कमी !
रजनी : हौसले की क्या बात...? क्यों नहीं
करते हौसला ?
राकेश – क्योंकि राजेन्द्र यादव नहीं रहे जो ऐसी कहानियों के कद्रदान थे वर्ना
रक्तबीज को तो एक संपादक ने लौटाते हुए इसे विज्ञान प्रगति में भेजने का मशवरा
दिया था. राजेन्द्र जी तब क्लोन पर पढ़ चुके
थे. नई चीजों को वे बहुत प्रोत्साहित करते थे.
रजनी : संजीव जी का तो पूरा उपन्यास आया है
और आप हौसला खो रहे हैं ?
राकेश – संजीव जी के उपन्यास की भूमिका भी राजेन्द्र जी ने ही लिखी. कितने
लोगों ने समझा इस उपन्यास को ? कितनी समीक्षाएँ आई. इस किताब को उचित प्राप्य नहीं
मिला.
रजनी : शायद इस उपन्यास का वैज्ञानिक आधार
आलोचना को सुसंगत न लगा हो ?
राकेश – बेकार बात है. सच यह है रजनी, कि ऐसी रचना को खोलने के लिए हिंदी
आलोचना के पास औजार ही विकसित नहीं हुए. एक मैनेजर पाण्डेय जी ने कोशिश जरूर की.
पर, प्राध्यापकीय आलोचना ने विज्ञान-कथा की इतनी उपेक्षा की है कि इसे साहित्यिक
मान्यता ही देर से मिली. मैंने इस उपन्यास पर लिखा है जिसका शीर्षक भारतीय हिन्दी उपन्यास की सबसे बड़ी छलांग है. इस
रचना के प्रति मेरी धारणा को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए.
रजनी : वापस आपकी दुनिया में लौटें. बताइए आप
लिखते कैसे हैं ? लंबी लगातार बैठकें या ठहर-ठहर कर ?
राकेश – ज़मीन पर चटाई विछा कर, मुनीम जी वाली डेस्क पर हाथ से लिखता हूँ.
कंप्यूटर पर तेज नहीं लिख सकता. असहज लगता है.
रजनी : दिन में या रात में ? कोई खास मौसम
रास आता है जब लेखन पर केंद्रित होते हैं ?
राकेश – गर्मियों में लिखना नहीं हो पाता. ड्राफ़्ट, नोट्स, संशोधन यही कुछ.
अधिकांश लेखन जाड़े की रातों में किया है. रात नौ – दस बजे बैठा तो उबने या थकने तक
लिखता हूँ. कभी-कभार भोर तक. मेज से उठे और टहलने निकल पड़े.
रजनी : पूरी रात हाथ से लिखना ?
राकेश – हाँ जी ! मैं अपने प्रकाशकों का शुक्रगुजार हूँ कि मेरे हस्तलिखित
पाँच-छह सौ पृष्ठों के उपन्यासों की उन्होंने कद्र की. छापा.
रजनी : घर के अन्य सदस्यों से सहयोग नहीं
लेते. मतलब फाइनल कॉपी तैयार करने में ?
राकेश – नहीं. घर के सदस्य मेरी सहायता ज़रूर करते हैं लिखने की परिस्थितियाँ
जुटा कर. कहानी की पेंच-घुंडी सुलझाने में. रचना – प्रसंग पर पत्नी और बेटे से
चर्चा होती है. कभी-कभी उनके परामर्श बड़े काम के होते हैं.
रजनी : आप विज्ञान के आदमी हैं, पर आपकी भाषा
से गुजरते हुए अनुमान लगाना कठिन है कि इसे इतर अनुशासन से जुड़े व्यक्ति ने रचा
है. ऐसी भाषा अर्जित करने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता होगा न ?
राकेश – बिल्कुल नहीं. मेरे पात्र मेरे पास अपनी भाषा चाल ढाल, आदतें, स्वभाव
आदि की बारीकियों के साथ स्वयं आते रहे हैं. पता नहीं, कैसे पर सच, यह स्वत:
स्फूर्त हो जाता है.
रजनी : गोया आपकी रचनाओं में लोक ही भाषा को
रच लेता है, जबकि भाषा लोक को रचती है ? आप क्या सोचते है ?
राकेश – लोक और भाषा का रिश्ता मुझे बहुत उलझा लगता है. मुझे लगता दोनों एक
दूसरे के लिए रचनात्मक हैं. यदि लोक से भाषा को प्राण, रंग, रस और ताकत मिलती हैं
तो भाषा लोक को लोकोत्तर के वृहत्तर क्षेत्रों तक ले जाती हैं. मेरी समझ से रचना
के लिए जो संबंध कथ्य और शिल्प में होता है, यहाँ भी यही मामला है. एक के बिना
दूसरे की उपस्थिति संभव तो है पर प्रभान्विति मुझे असंभव लगती है.
रजनी : यह सिद्धांत आपकी रचनाशीलता पर कैसे
लागू होता है ?
राकेश – मैं तो अपने अंचल को लिखते हुए वहाँ की भाषा, राग या ध्वनियों की
उपेक्षा कर ही नहीं सकता. पाठकीय सुविधा के लिए मैं अपने पात्रों की बोली-बानी को
पालिश कर हाशिए के चरित्रों पर अभिजात्य की कलई नहीं कर सकता. हाँ यह कोशिश ज़रूर
करता हूँ कि मेरी भाषा अबूझ-अपठनीय न होने पाए. कभी-कभी मेरी कोशिश नाकामयाब भी हो
जाती है. पर क्या किया जाय यदि अलका सरावगी को मैला
आँचल ही अपठनीय लगता है. इसमें रेणु जी का क्या दोष ?
रजनी : अब अपनी रचनाओं पर आइए. पठार पर कोहरा, कुछ पाठकों को
इसका अंत नकारात्मक लगा. क्या संजीव सान्याल की मृत्यु टाली नहीं जा सकती थी ?
राकेश – कभी समय था रजनी जी ! जब बिना जान गवाएँ व्यवस्था में सुधार कल्पनीय
था. अब तो प्राणों की आहूति भी अपर्याप्त लगती है. अखबारी खबरों, सरकारी खैरात और
श्रंद्धांजलि के बाद अश्लील सन्नाटा छा जाता है. निर्लज्ज, संवेदनाहीन और भुलक्कड़
है हमारा समाज जिसमें मैं भी शामिल हूँ और आप भी. स्वर्णिम राजपथ रोजगार योजना में
भ्रष्टाचार के विरूद्ध अकेली लड़ाई लड़नेवाला अभियंता सत्येन्द्र दूबे, पेट्रोल
माफिया से जूझने वाला मंजूनाथ, बिल्डर माफिया से संघर्षरत सतीश शेट्टी या कैमूर
पर्वतमाला में आदिवासी अधिकारों हेतु लड़ा मरा मेरा भतीजा वनाधिकारी संजय सिंह...
सब शहीद हुए.
ऐसे में संजीव फिल्मों हिरों की
भाँति दुष्टों का संहार कर, नायिका से ब्याह रचा कर, ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा हाथ
हिलाता गजलीठोरी से विदा होता ? यह फिल्मी अंत कितना फूहड़ और नकली होता ? संजीव की
शहादत ही यर्थाथ है. संजीव की मात्र देह मरी, विचार नहीं. पूरा गाँव जाग उठा,
बच्चा सोनारा तक. तो इसे नकारात्मक अंत कहेंगे ? संजीव कई जीवित नायकों से बेहतर
है.
रजनी : आपका महाकाव्यात्मक उपन्यास है जो इतिहास में नहीं है. यह इतिहास का
पुनर्लेखन है ?
राकेश – नहीं. यह मात्र एक उपन्यास है.
रजनी : इतिहासकारों के लिए चुनौती नहीं ?
राकेश – क्या बात करती हैं आप ? मैं विज्ञान का आदमी हूँ भई, इतिहासकारों के
सामने खड़े होने की कूबत मुझमें कहाँ ? हाँ, मैंने आदिवासी समाज के पक्ष में खड़े हो
कर परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिश ज़रूर की है. यदि यह मेरी हिमाकत है या बेजा
कोशिश तो इतिहासविद् यह बताएँ कि आजादी की लड़ाई का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने
आदिवासियों के पलड़े में डंडी क्यों मारी ?
रजनी : इस सवाल को आपके ताजा उपन्यास हुल पहाड़िया तक ले चलें तो इस
उपन्यास के पीछे क्या प्रेरणा रही लिखने की ?
राकेश – यह भी तिलका मांझी से संबंधित नवीनतम शोध और साक्ष्यों की रोशनी में
परिप्रेक्ष्य को सही करने की कोशिश है.
रजनी : वह कैसे ?
राकेश – वह ऐसे कि इतिहासकारों ने तो तिलका मांझी को लगभग उपेक्षित ही रखा.
महाश्वेता देवी की दृष्टि इस महानायक पर अव्श्य पड़ी परन्तु जिस कलम ने बिरसा मुंडा
पर जंगल के दावेदार जैसा महत्वपूर्ण उपन्यास
दिया उसने शालगिरह की पुकार पर में तिलका
मांझी के साथ न्याय नहीं किया.
रजनी : वह कैसे ?
राकेश – पहले तो पहाड़िया जाति के तिलका को संताल बना डाला. पहाड़िया आंदोलन में
महेशपुर राजा की रानी सर्वेश्वरी का योगदान उपन्यास में उपेक्षित रह गया जबकि
तिलका की पक्षधरता के कारण अंग्रेजों ने महेशपुर राज को तबाह कर दिया. वारेन
हेस्टिंग्स और राजमहल के कलक्टर आगस्टस क्लीवलैंड के पत्राचार ने काफी धुंध साफ कर
दी. पर महाश्वेता देवी के उपन्यास में इसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया है.
रजनी : इस उपन्यास की वैचारिकी और भिन्न
ट्रीटमेंट के पीछे कोई खास वजह ?
राकेश – है न ! संताल क्रांति पर महाश्वेता देवी की कहानी देखिए... हुलमाहा की माँ. देशकाल, समाज या क्रांति के चरित्र
पर दृष्टि तक नहीं बन पाती. महाश्वेता देवी के लिए पूरे सम्मान के साथ मैं यह
आपत्ति दर्ज करना चाहता हूँ कि आदिवासी नायकों को उचित सम्मान तो मिलना ही चाहिए
पर ऐतिहासिकता की ओर से असावधानी भी उचित नहीं.
रजनी : यह तो वैचारिकी का मामला हुआ, ट्रीटमेंट... ?
राकेश – संताल आंदोलन पर भारतीय इतिहास में सामग्री मिल जाती है तो उसका शिल्प
अलग था. तिलका मांझी के बारे में नई नई चीजें आती जा रही हैं, राजेन्द्र प्रसाद
सिंह और अनूप कुमार वाजपेयी ने महत्वपूर्ण काम किया है. अभी भी कुछ कड़ियाँ जुड़नी
बाकी हैं तो कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया जा सकता, लिहाजा मैंने एक इतिहासकार, एक
पत्रकार और एक शोध छात्र के माध्यम से कुछ बहस उठाने की कोशिश की है. आपने यदि यह
उपन्यास पढ़ा है तो देखा होगा कि अंत तक आते आते कथ्य का घनत्व इतना अधिक हो गया कि
तमाम बहस एक ओर हो गई. इतिहासकार –पत्रकार-छात्रा कब पाठक और तिलका के बीच से हट
गए, पता ही नहीं चलता.
अंतत: तिलका का संघर्ष और शहादत
ही याद रह जाते हैं. मुझे संतुष्टि है कि मेरे पाठकों ने इतिहास की क्षीण उपलब्धता
और मेरी विवशता को स्वीकार कर मेरे प्रयोग को पसंद किया. स्वयं प्रकाश जी ने भी
अपनी समीक्षा में मेरी सीमाओं को समझते हुए इस उपन्यास को तारीफी नजरों का हकदार
माना. बस मेरा श्रम सार्थक हो गया... और क्या ?
रजनी : मैंने वह समीक्षा पढ़ी है. वाकई आप खुश
हो सकते हैं कि स्वयं प्रकाश जी ने इसे युद्ध पर लिखा महत्वपूर्ण उपन्यास माना है
पर आपके उपन्यासों में हिंसा और युद्ध के दिल दहलाने वाले प्रसंग इतने मुखर हैं कि
मन विचलित हो उठता है.
राकेश – आदिवासी समाज के संघर्ष और आदिवासियों का दमन करने वालों के प्रति
मेरे मन में बहुत आक्रोश है. आदिवासियों का संघर्ष, जांबाजी, जूझने का जज्बा और
शहादत को मैं अत्यंत आवेश, आवेग और पीड़ा के साथ लिखता हूँ... शायद ! यदि पाठक
इन्हें पढ़ते हुए विचलित होता है, यदि मैं दिखा पाता हूँ कि सभ्य दुनिया ने
आदिवासियों के साथ कितना बर्बर और क्रूर व्यवहार किया है तो मुझे संतुष्टि है कि
मैंने कागज-रौशनाई जाया नहीं किया. आपको विचलित किया. मैंने अपना काम किया.
रजनी : अपने अन्य विधाओं में भी काम किया है
कथा-उपन्यास के अलावा... ?
राकेश – बहुत कम. छिटपुट. संकलित करने भर नहीं. कुछ संस्मरण, दो एक रिपोर्ताज,
चंदेक कविताएँ...
रजनी – और किशोर उपन्यास ?
राकेश – वो तो बेटे ने लिखवा दिया. जब स्कूल में था तो एक दफा शिकायत की कि
मैं सिर्फ़ बड़ों के लिए लिखता हूँ, बच्चों के लिए क्यों नहीं लिखता तो मैंने दो
किशोर उपन्यास लिखे थे जो दिल्ली प्रेस की पत्रिका सुमन सौरभ में धारावाहिक छपे
थे. पाँच-छह बाल साहित्य की पुस्तकें... और पता है रजनी, कुशीनगर के संगमन में
विमलचंद्र पाण्डेय ने बता कर मुझे दंग कर दिया कि वे मेरे धारावाहिक उपन्यासों के
पाठक रहे थे.
रजनी : यानी यह घरेलू दबाव था जिसने बच्चों
के लिए लिखवा लिया, संपादक या प्रकाशक का आग्रह या मांग नहीं...?
राकेश – मैं कोई दर्जी नहीं कि मांग के मुताबिक कुर्ते-पाजामें सिलने लगूँ.
आंतरिक दबाव से स्वैच्छिक लिखता हूँ. अब यदि मेरी फाइल की कोई रचना किसी विशेषांक
के अनुरूप निकल आती है तो महज संयोग है वर्ना तात्कालिक लेखन की उस्तादी मुझसे
नहीं होती.
रजनी : चलिए, आपके रचना-संसार से निकल कर
आपके समय में आते हैं. आपके बाद की पीढ़ी का लेखन वैचारिक या रचनात्मक स्तर पर जैसा
छिछला या सूखा नजर आता है और नई पीढ़ी अपनी स्थापनाओं को लेकर जिस तरह के मुगालते
में है तो इस पीढ़ी को आप किस रूप में रेखांकित करेंगे ?
राकेश – काफी लंबा प्रश्न है और उलझा हुआ भी, खैर! “ आज का लेखन छिछला या सूखा नजर आता है” या “ नई पीढ़ी किसी
मुगालते में है” मैं इतने सरलीकृत
नतीजे से निकाल सकता... मैं आलोचक नहीं हूँ. एक पाठक के रूप में मैं डूब, पानी, डायनमारी या लुगड़ी का सपना जैसी
कहानियाँ भी पढ़ रहा हूँ. कैलाश बनवासी, सत्यनारायण पटेल, शेखर मल्लिक आदि अच्छा
लिख रहे हैं.
आपके सवाल बेबुनियाद भी नहीं हैं.
नई पीढ़ी के कुछ नाम अपनी महानता के मुगालते में हैं तो ज़रूर पर ये भारतीय लेखक कम
हैं “ इंडियन राइटर ” ज़्यादा. चमकदार भाषा, चौंकाने वाला शिल्प, सायास ओढ़ी
हिंग्रेजी, अध्ययन का आतंक खूब है. हाशिए की आवाजें क्षीण हैं परन्तु नतीजे आने
लगे हैं, धैर्य रखिए. कुछ मदारी मजमा समेट चुके हैं. धूल गर्द बैठने लगी है.
तात्कालिक लोकप्रियता पानेवाले कुछ फूँके कारतूस साहित्य की ज़मीन पर लुढ़के पड़े
दिखने लगे हैं.
रजनी : आपने हाशिए की
आवाजों के क्षीण होने की बात की. साहित्य में “ दलित विमर्श और अब “ आदिवासी विमर्श ” तो
विमर्श केन्द्रित लेखन के फायदे-नुकशान भी तो होंगे ?
राकेश – होंगे. मुझे इसका अनुभव नहीं है. विमर्श केन्द्रित लेखन मुझसे नहीं हो
पाता.
रजनी : जबकि आपकी पहचान ही आदिवासी साहित्य
मतलब विमर्श केन्द्रित लेखन से है. फायदा तो हुआ ही है आपको.
राकेश – जब मैंने लेखन की प्राथमिकता तय की थी तब “ आदिवासी विमर्श ” जैसी कोई चीज नहीं थी. मैंने यह ज़मीन चुनी नहीं
बल्कि यह मेरे पड़ोस की ज़मीन है जिसने मुझे चुन लिया. अब यदि यह साहित्य की पृथक
धारा या “विमर्श” घोषित किया जा रहा है तो मैं इस खेमेबंदी में शामिल होने का तमन्नाई नहीं
हूँ. जिन्हें इस विमर्श का ब्रांड एम्बेसडर बनना है, उन्हें मुबारक !
रजनी : चलिए माना कि आपको
कोई लाभ नहीं चाहिए पर आपको अपनी प्राथमिकता के चुनाव पर संतुष्टि तो होती होगी ?
राकेश – हार्दिक ! दिल से ! जिस आदिवासी इतिहास संस्कृति और
समस्याओं को हिन्दी साहित्य में कायदे से उठाया ही नहीं गया, अब इसे गंभीरता से
लिया जाने लगा है तो संतुष्टि तो होती है कि हम सही थे. पत्रिकाएँ आदिवासी
विशेषांक निकाल रही हैं अब, पर इसके नुकसान भी दिखने लगे हैं.
रजनी : नुकसान कैसा ?
राकेश – आदिवासी साहित्य को व्यापक मान्यता मिलती देख इस
क्षेत्र में फँसी और नकली लेखन भी खूब होने लगा है. प्रचार की बैसाखियों पर खड़ा
किया जा रहा है. खतरा यह कि कहीं नकली सिक्के खरे सिक्कों को बाजार से बाहर न कर
दें.
रजनी – गोया साहित्य
लेखक-प्रकाशक द्वारा उत्पादित माल हो गया ?
राकेश – नतीजा भी सामने है. लेखक और पाठक के बीच संवादहीनता
बढ़ती जा रही है. प्रकाशक माल बेच कर मालामाल हो रहे हैं.
रजनी : इस समस्या का हल
क्या है ? हल किसके पास है ?
राकेश – पहल तो लेखक को ही करनी होगी. आप दस बड़े
साहित्यकारों की सूची बनाइए और देखिए क्या वे आम पाठक के लिए लिख रहे हैं ? आज का
आम पाठक पाँच साहित्यिक पत्रिकाओं के नाम जानता भी है ? उत्तर निराश करने वाले
होंगे. ऐसे में सबसे पहले ज़रूरी है साहित्यिक मिथ्याभिजात्य से मुक्ति.
रजनी : साहित्यिक
मिथ्याभिजात्य से आपका तात्पर्य क्या है ?
राकेश – तात्पर्य यह कि आज जो लेखक आम आदमी की समझ में आने
लायक लिख रहा है, वह कूड़ा लिख रहा है. जो कुछ कुछ समझ में आने योग्य लिख रहा है,
वह औसत दर्जे का लेखक है और जो अपना लिखा स्वयं समझने योग्य रच रहा है वही दरअसल
महान साहित्य लिख रहा है. पाठक गया चूल्हे में. ऐसे कई महान श्मशान साधक अपने
सिंहासनों पर बैठे “ जटिल जटिल” का जाप करते पाठक के मरने का स्यापा कर रहे हैं. यही है साहित्यिक
मिथ्याभिजात्य.
रजनी : और इससे मुक्ति कैसे हो ?
राकेश – हमें लोकप्रिय लेखन और गंभीर लेखन के बीच खड़ी मिथ्याभिजात्य की दीवार
ढहानी होगी. समाचार पत्रिकाओं और अखबारों के माध्यम से आम पाठक तक पहुँचना होगा.
हमने गुनाहों का देवता लिखने की कला का तिरस्कार किया तो यह ज़मीन चेतन भगत और अमीष
जैसे लेखकों ने कब्जा ली. हल बिल्कुल लेखक के पास है... पर लेखक आलोचक के लिए लिख
रहे हैं या पुरस्कार के लिए. पाठक के लिए कोई कोई ही लिख रहा है.
रजनी : और अब तो प्रकाशक भी पुरस्कारों के
निर्णायक बनने लगे हैं.
राकेश – अब क्यों ? तमाम बड़े पुरस्कार शुरू से या तो सरकारी हैं या बड़े
प्रकाशकों द्वारा स्थापित संपोषित हैं.
रजनी : नहीं... मेरा मतलब है इतर
वजहों से पुरस्कार दिलवाने से... मतलब...
राकेश – मैं आपका मतलब समझ गया, पर सोचिए, जब प्रकाशक
पुरस्कार स्थापित कर सकते हैं तो इस बाजारू समय में अपने अधिकार का इस्तेमाल क्यों
नहीं करेंगे ?
अब तो पुरस्कार सुबह घोषित होते हैं, बधाइयाँ रात से ही
मिलने लगती हैं. पुस्तक अब एक उत्पाद है और समय मार्केटिंग का है तो प्रकाशक
पुरस्कार को पुस्तक की श्रेष्ठता की सनद के तौर पर हासिल कर रहे हैं.
रजनी : ऐसे पुरस्कारों के दम पर
कोई रचना अपनी मुकम्मल पहचान कायम कर सकती है ?
राकेश – न सही. ऐसे पुरस्कारों से तात्कालिक चर्चा तो मिल
ही जातीए है न ? इतने में प्रकाशक अपना उत्पाद बेच लेता है. थोड़े दिन लेखक भी अपनी
पुस्तक की सफलता को लेकर मुगालते में जी लेता है, जबकि उसकी किताबें सरकारी
गोदामों या पुस्तकालयों में धकेल दी जाती हैं. रजनी, मुकम्मल पहचान के लिए रचना
किसी पुरस्कार की मुँहताज नहीं होती. साहित्य सृजन है पर पुरस्काराकांक्षी लेखकों
और प्रकाशकों ने इसे पेशा बना दिया है.
रजनी : साहित्य को स्वस्थ पेशे
के रूप में अपनाए जाने की वकालत तो अब कोई जेनुईन साहित्यकार नहीं कर पा रहा, पर
लेखक को समुचित पारिश्रमिक या उचित रायल्टी तो चाहिए न ?
राकेश – यह भी प्रकाशक की नीयत पर निर्भर है. आपको दे तो
लें, न देना चाहे तो नहीं ले सकते.
रजनी : वजह... ? क्या कोई अनुभव
हुआ आपको ?
राकेश – भयंकर.
रजनी : बताएंगे ?
राकेश – ज़रूर ! मई 2003 में मैंने एक प्रकाशक को अपने उपन्यास साधो यह मुर्दों का गाँव की पाण्डुलिपी
विचारार्थ भेजी थी. दो वर्ष के बाद प्रकाशक ने इसे छापने में असमर्थता जताई. मैंने
पाण्डुलिपी वापस माँगी तो प्रकाशक के बेटे ने पिता की बीमारी का हवाला देते हुए
बताया कि पाण्डुलिपी मिल नहीं रही, संभवत: गुम हो गई. खैर, मैंने यह उपन्यास
भारतीय ज्ञानपीठ को दे दिया. दिसंबर 2007 में ज्ञानपीठ ने इस उपन्यास के प्रकाशन को विज्ञापित किया और गजब हो गया. खोई पाण्डुलिपी मिल ही नहीं गई, बिना
किसी पूर्व सूचना के प्रकाशक ने किताब महीने के भीतर छाप कर छ: प्रतियाँ मेरे पते
पर भेज दी. चित्र परिचय मेरे पुराने उपन्यास पठार पर
कोहरा से उड़ा लिया.
रजनी : प्रकाशक कौन ?
राकेश – नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
रजनी : बड़े प्रकाशक हैं पर यह
तो...
राकेश – यही नहीं, मैंने फोन पर बात की. इस धोखे पर आपत्ति
दर्ज की तो नए उपन्यास का अनुबंध करना तो दूर मेरे पूर्व प्रकाशित उपन्यास जहाँ खिले हैं रक्तपलाश की
रायल्टी भेजना भी बंद. अब लेखक क्या करे ? प्रकाशक की दीदादिलेरी या दादागिरी से
निपटने हेतु दिल्ली जा कर तू-तू मैं मैं करे या पढ़ना-लिखना छोड़ कर कोर्ट कचहरी
दौड़ता फिरे ?
रजनी : आप दोनों किताबें वापस ले
सकते हैं.
राकेश – पता नहीं क्या तरीका है वापस लेने का. फिलहाल तो
नेशनल से मेरी दोनों किताबें बिक रही हैं. मैंने खुद खरीदी हैं... रसीद है मेरे
पास. छोड़िए इस अप्रिय प्रसंग को..
रजनी : छोड़ दिया. आप यह बताइए कि
वर्तमान में आपको किसका लेखन पसंद आता है ?
राकेश – रजनी जी, मैं रचना का सौदाई हूँ किसी रचनाकार विशेष
का नहीं. अलग कारण से आपकी ही कोई रचना मुझे पसंद आ सकती है तो जुदा कारण से आपकी
ही कोई रचना नापसंद भी हो सकती है.
रजनी : याने रचना या रचनाकार का
नाम नहीं लेना चाहते ?
राकेश – यदि मेरी हाँ से आपका प्रश्नकर्ता प्रस्न्न होता है
तो हाँ.
रजनी : डरते है विवाद से ?
राकेश – नहीं, सावधानी बरतने लगा हूँ. आजकल संपादक लोग
लेखकों के प्रोमोटर होने लगे हैं. लेखक की रचना पर टिप्पड़ी करो तो संपादक के
दरवाजे आपके लिए बंद. प्रकाशक भी लेखकों के शुभचिंतक होने लगे हैं. किसी किताब की
आलोचना करो तो उस प्रकाशन गृह में आप अवांछित. आपकी स्वीकृत पाण्डुलिपी भी वर्षो
सड़ा दी जाती है. विचित्र गिरोहबंदी है साहित्य में.
रजनी : चलिए, नाम मत लीजिए, पर
पसंद की चीजें तो बताइए. इधर दर्जनों उपन्यास आए हैं... कहानियाँ आई हैं...
राकेश – आरा में साहित्यिक किताबों की कोई दुकान नहीं है.
नई किताबें समीक्षार्थ आ जाय या लेखक स्वयं उपलब्ध करा दे तभी पढ़ना होता है वर्ना
पटना पुस्तक मेले की प्रतीक्षा रहती है. अभी अभी मनोज की कहानी पानी बढ़िया लगी. संजीव का उपन्यास रह गई दिशाएं इसी पार. फिलहाल गोविंद जी की जीवनी पढ़
रहा हूँ. उर्मिला शिरीष ने लिखी है.
रजनी : आप ने काफी समय दिया...
अब धन्यवाद दूँ... ?
राकेश – फौरन से पेश्तर ताकि मेरी भी सांसत से जान छूटे और
मैं भी आपको धन्यवाद कह सकूँ.
रजनी : फिर तो धन्यवाद लें पर
आखिरी सवाल, इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
राकेश - अगला उपन्यास आपरेशन
महिषासुर चल रहा है.
रजनी : पृष्ठभूमि ? वही, झारखंड
?
राकेश – बिहार विभाजन के बाद का झारखंड ! भूमंडलीकरण,
उदारीकरण और निजीकरण से झारखंड ने क्या पाया... क्या खोया ? मनमोहन सिंह जी कि
ट्रिकल डाउन थ्योरी से आम आदिवासी के आंगन में क्या टपका... अमृत या तेजाब ! और
कुछ ?
रजनी : फिलहाल नहीं ! शेष अगली
बार, फिर कभी.
राकेश – आमीन !
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रजनी गुप्त
सी. – 5 / 259
विपुल खंड, गोमती नगर
लखनऊ , उत्तर प्रदेश – 226010.
राकेश कुमार सिंह
कंचनप्रभा, जयप्रकाश नगर,
कतिरा, आरा, बिहार – 802301
मो o – 0
94 31 85 28 44.