शुक्रवार के दिन मुंबई में फिल्म रिलीज को लेकर ही हलचल
होती है. लेकिन पिछले दिनों की शुक्रवार की हलचल नाटक से जुड़ी थी. साठे कॉलेज के
प्रेक्षागृह में नाटक के दो शो हुए और दोनो शो इतने हाउसफूल रहे कि लोगों को खड़े
होकर देखना पड़ा. मुंबई में हिंदी नाटक के लिये, वो भी टिकट लेकर, इतने लोगों का देखने आना, यह देखना भी विलक्षण अनुभव जैसा
था.
नाटक था “इन्हें देखा है
कहीं”. फिल्म और रंग अभिनेता इश्तियाक आरिफ़ खान ने इसे निर्देशित किया था.
इश्तियाक एनएसडी से स्नातक हैं इसलिये उनके पास नाटकों का गहरा अनुभव तो है ही वो
बेचैनी भी है जिसके जरिये नाटक करने की लालसा उनमें धड़कती रहती है. इन्हीं
बेचैनियों और लालसाओं ने इश्तियाक को अपना थियेटर ग्रुप “मुखातिब” खड़ा करने पर
विवश किया. अब मुख़ातिब जवान हो चुका है और इसके कई शो मसलन “ शैडो ऑफ ओथेलो”,
“खूबसूरत बहू”, “रामलीला”, “भय प्रकट कृपाला”, “सार्थक बहस” हिट हो चुके हैं.
इश्तियाक के
नाटकों का आधार व्यंग्य होता है. अगर वे ओथेलो जैसी त्रासद कथा चुनते हैं तो भी
उसे मारक व्यंग्य से भर देते हैं. और ऐसा भी नहीं होता कि व्यंग्य की भरपाई मूल
कथा को खिसका देती है. मूल कथा अपने उसी रूप और अंतर्वस्तु के साथ मौजूद रहती है.
लेकिन इश्तियाक उस कथा को समकाल से जोड़ने का प्रयोग करते हैं और यहीं से नाटक
व्यंग्य के कंधो पर सवार होकर धीरे धीरे यथार्थ की संवेदनाओं को छूते हुए त्रासद
व्यंग्य में परिणित होता है.
“इन्हें देखा
है कहीं” की संरचना भी कुछ ऐसी ही है. इस बार इश्तियाक ने चेखव और हरिशंकर परसाई
की कहानियों को शामिल किया हैं. चेखव की कहानी को एडॉप्ट किया है प्रसिद्ध रंग
निर्देशक रंजीत कपूर ने और हरिशंकर परसाई की दो कहानियों “अश्लील किताब” और “क्रांतिकारी”
को खुद इश्तियाक ने किया हैं. तीन अलग अलग कहानियों को एक कथा में पिरोना जितना
दिलचस्प हो सकता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा उनके बिखरने की है. लेकिन नाटक कहीं
बिखरता नहीं.
नाटक की शुरूआत
गाँव में आई एक नौटंकी से होती है. जहाँ गाँव के सज्जन और संस्कारी लोग उसका विरोध
करते हैं और विरोध का उनका तरीका और तेवर उन्हें “तथाकथित संस्कारी” भीड़ में बदल
देता हैं. यहीं से नाटक उस बहस की ओर ले जाता है कि जो समाज इतना संस्कारी और
संवेदनशील हैं वो कैसे किसी को इस तरह से अपमानित कर सकता हैं जबकि उसे देखने वाला
एक बड़ा वर्ग हैं. नाटक इसी नुक़्ते के ज़रिये खुलता है और अपने आखिर में एक हैरानी
छोड़ जाता है जब पता चलता है कि नौटंकी का मैनेजर कभी गंभीर नाटक किया करता था और
उसका लौंडा भी कथक में प्रभाकर हैं. और हैरानी तब और बढ़ती है जब उस बहस में मैनेजर
चेखव की कहानी को नाटक के लिये चुनता है और उसे सफल तरीके से प्रस्तुत करता है.
यह नाटक न
सिर्फ़ गंभीरता और अश्लीलता के एक छद्म आवरण में लिपटे हमारे समाज को रेखांकित करता
है बल्कि समाज के उस दर्शक वर्ग को प्रश्नांकित करता है कि ऐसी क्या वजह रही कि एक
गंभीर रंग निर्देशक को नौटंकी करनी पड़ती है. नौटंकी का मैनेजर कहता है कि मैंने तो
अपने से जितना हो सकता था उस फूल भरी डाली को छूने की कोशिश की लेकिन नहीं छू पाया
तो क्या उस फूल भरी डाली को नहीं चाहिये कि मेरे लिये थोड़ी झुक जाय ? दर्शक से इस
विनम्रता की चाह करना जितना हास्यास्पद हो सकता है लेकिन इस नाटक ने इस संवाद के
जरिये रंगमंच की वर्तमान स्थिति की त्रासद अभिव्यंजना की है. और इस समय में एक
सशक्त सांस्कृतिक माध्यम में रंगमंच की उपस्थिति
को लेकर जिस तरह की भाव शून्य उदासीनता दिखाई पड़ रही है उसके बरक्स यह
विनम्र चाह बहुत ही ज़रूरी कदम की तरह है.
जैसा कि कहा
जाता है कि रंगमंच अभिनेता का माध्यम है. इस सूक्ति के जरिये देखा जाय तो “इन्हें
देखा है कहीं” में अभिनेताओ ने अपनी अभिनय दक्षता का परिचय दिया हैं. विश्वनाथ चटर्जी, धीरेन्द्र, आलोक, फैज मुहम्मद
खान, आशीष शुक्ला, साहिबा, लक्ष्मी, नरेश मल्लिक, तौक़ीर खान, नेहा, रिया ने एक से अधिक
किरदारों में आकर भी अपने अभिनय कौशल और मंचीय ऊर्जा से मंत्रमुग्ध करने जैसा काम
किया हैं.
नाटक में
नौटंकी शैली के साथ प्रयोग किया गया है इसके लिये ज़रूरी था कि स्टेज को इस रूप में
रचा जाय कि इस प्रयोग को प्रस्तुत कर सके. इस लिहाज से धीरेन्द्र का मंच सज्जा और रोहित का प्रकाश भी महत्वपूर्ण
हैं. मंच और सभागार को कागज और बिजली के झालरो से सजाना और लाउड स्पीकर को बाँधने
से नाटक के कथानक के लिये बहुत ही वास्तविक वातावरण सृजित होता है. इससे लगता है
कि लोग दर्शक की तरह नहीं एक भीड़ की तरह अपने सामने हो रही इस घटना को देख रहे
हैं, और नाटक इस बिंदु पर आकर एक और ऊँचाई को पाता है.
आखिर में मैं कह सकता हूँ कि शुक्रवार की जो हलचल थी उसे एक किनारा मिला. हम कुछ देखने जैसा देखकर एक भरे हुए अहसास के साथ लौटे और मन ही मन कहते रहे हम इन्हें बार बार देखना चाहेंगे.
शेषनाथ पाण्डेय.
sheshmumbai@gmail.com