Sunday, October 20, 2019

हंसी के कारख़ाने में : विमल चन्द्र पाण्डेय.


विमल का आज जन्मदिन है और मैं उसकी इस कविता को पोस्ट करते हुए शुरू की उसकी कोई कहानी, किसी बात, किसी साथ के पल में ठहर जाना चाहता हूँ. लेकिन यह कविता मेरे पास है और मैं उसके रचनात्मक सफ़र में उसके साथ किसी अछोर को देख रहा हूँ, जहाँ वो अपने साथ एक हाहाकारी गति को अपने पीठ पर टाँगे, एक अनछुए सुकून को मुट्ठी में बंद किए कहानियां लिख रहा है, कविताएँ पूरी कर रहा है, स्क्रिप्ट रच रहा है और फ़िल्म बना रहा है. और फ़िल्म मेकिंग भी अपने अनूठे रचाव के साथ. हर जगह एक अलक्षित डिटेलिंग, एक बहती भाषा, एक नई सरंचना और यथार्थ का एक नया एंगल जो अपने समकाल के ऊब को कुरेदता है और उसकी एकरसता को तार-तार करते हुए एक लकीर खींच जाता है.  उसके साथ अछोर को देखते हुए, उसके सृजन की उच्छलती लहरों को कभी पकड़ने का मन करता है तो कभी उसमें डूब जाने का. लेकिन इस  “ हँसी के कारख़ाने में” मैं हँसी को देखूँ या इसकी विद्रूपता को ? हँसी का ऐसा पाठ जिसके स्वरूप में सहस्त्र सिर और कोटि हाथ हो, इसे हमने कब, कहाँ देखा है ? यह हँसी हमारे होने का, नष्ट होने का रेफरेंस खोज रही है. जहां एक शहर एक सभ्यता की तरह दीखता है और बिखरता हुआ किसी “मैं” की तरह टूटकर छलनी हो रहा है. जिसे हम आक्सीजन समझ कर ले रहे हैं , वो इस सभ्यता के रक्त से जलता धुआँ  है. जहाँ एक नायक की क्रूरता को वरदान की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है और उसे प्रसाद की तरह बाँटा जा रहा है. ऐसे में मैं यही कह सकता हूँ कि आप सब भी विमल के इस “ हँसी के कारख़ाने में” आए और अपनी हँसी देखे, अपनी राय दे. यह कविता “कथन” के “जनवरी-मार्च (2020 )” अंक में आ रही है. बाकी विमल तुम्हें यहाँ से भी जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं. तुम्हें सुदीर्घ-स्वस्थ और व्यस्त रचानात्मक जीवन मिले.



हँसी के कारख़ाने में. 



ढेर सारी कराहती आवाज़ों के बीच जब मैंने सुना इस हँसते हुए शहर के बारे में
हैरान हुआ
झूठी नींद से जागा और सिर पर पांव वाले मुहावरे में
उस दिशा की ओर भागा
हर जगह की तरह यहां भी थी आग, धुआँ धुआँ जलते लोग
कुछ बातें करते कुछ मनाते सोग
यहां हँसी का उत्पादन हो रहा था और जिनतक नहीं पहुंची थी लपटों की आंच
वे जैसे बग़ैर किसी जांच
खा रहे थे कोई भी चीज़
उगल रहे थे बदले में हंसी और अट्टाहासों के प्रकार
ढेर सारे हास्य कलाकार ढेर सारे लोगों के बीच खड़े उन्हें हँसाने की कोशिश कर रहे थे
मौतें इतनी आसान थीं कि कारतूसों से ज़्यादा लोग
हँसते हँसते मर रहे थे


ये शहर मेरा जाना पहचाना था
मेरा बचपन मेरी जवानी के यादगार किस्से यहीं बने थे
लेकिन मैं उन यारों को पहचान नहीं पा रहा था जिनकी थाली में हम दाल भात भुजिया खाया करते थे
और कभी न मिलने वाली प्रेमिकाओं पर आहें भर उन्हें सपनों में पाया करते थे
उनमें से कुछ मुस्करा रहे थे कुछ ऊंची आवाज़ में हंस रहे थे
कुछ ने अपनी तकलीफ़ों की बात कहने की कोशिश की
उन्हें धक्के मारकर पिछली पंक्ति में धकेल दिया गया
जो पहले से पिछली पंक्ति में थे वे इससे नाराज़ हुये
और अपने विरोधस्वरूप अपने नजदीक के लोगों के गले काटने लगे
हँसते हँसते मर जाना समय की सबसे नयी कला थी
सबसे बड़ी ज़रूरत एक अच्छी ज़िन्दगी की
कुछ इन्हें सीख रहे थे कुछ इनसे भाग रहे थे
कुछ सदियों से सोए थे कुछ करवटें बदलते अब जाग रहे थे


जब पानी सिर से ऊपर गुज़र जाए हँसना मुश्किल होता जाए
आजा प्यारे पास हमारे काहे घबराए काहे घबराए
लुभानी आवाज़ों में बुला रहे थे टीले पर बैठे कुछ लोग
उन्हें पानी मे तैरने के लिए शवों की ज़रूरत थी
जिस पर बैठ कर उन्हें अपने नामांकन को देना था अर्थ
जब सारी कवायदें हो गयीं व्यर्थ
एक उठा और जल में एक नये ईश्वर का अविष्कार किया
डूब कर मर रहे लोगों को अपनी मृत्यु में एक गहराई मिली
और मरना देशहित में होने का संतोष
देश और ईश्वर के जुड़ने का मूल कारण वे समझ पाते
उनके फेफड़ों में पानी भर चुका था और आंखों में जोंक
केकड़े उनकी टांगों को खा रहे थे
उनके मष्तिष्क के अवयव अनर्गल नारों के क्षार से गलते जा रहे थे
धक धवल वस्त्रों में पानी के नीचे भी
हंसने वाले हंस रहे थे
उनकी आवाज़ें सुनाई नहीं देती थीं लेकिन उनकी भंगिमाएं डराने के लिए पर्याप्त थीं
पाताल से आकाश तक उनकी वीभत्स हंसी व्याप्त थी
वे हंसते हुए खा रहे थे न हंस सकने वालों के अंग
सांस न ले पाने की व्यथा सुनकर अक्सर हुआ करता था उनका रसभंग


धरती और पाताल के साथ ज़रुरी है करनी आकाश की भी बात
जहां से प्रसारित होती थीं झूठी खबरें, अच्छे हालात
जहां आकाशवाणियों की जगह अट्टहास सुनाई देते थे
सब उन्माद में हंसते थे ख़ुशी से चिल्लाते थे
युद्ध में इंसानों के मरने की बात पर मिठाईयां खिलाते थे
ज़बानें सिर्फ़ खाने के स्वाद के लिए नहीं रह गयी थीं
उनका एक ज़रूरी फ़र्ज़ चाटना भी बनता जा रहा था
सबका एक अदृश्य आक़ा था
जो चाटने पर लिंग सदृश तनता जा रहा था
शब्दों की कंदराओं में छिपे कुछ योद्धा
अपने समय के अपराधी
उसके स्व-स्खलन के इंतज़ार में थे
क्रोध में नपुसंक होकर वे आपस में थूक रहे थे एक दूसरे के चेहरों पर
और चीख रहे थे तू मर जा, मर जा तू, जा तू मर


कारखाने में हंसी के तरह-तरह के पैकेट तैयार होते थे
कुछ क्रोध में विरोध कर रहे लोगों को हंसाने के काम आते थे
कुछ जनहितों पर सभा कर रहे जागरुकों की रात की डोज़ बनते थे
कुछ गम्भीर सड़क किनारे से खरीदते थे इसे छिपकर चरस की तरह
और एकांत में पूरी गंभीरता से ख़ुराक तैयार करते थे
वे हँसी की पुड़िया फूंक चीख-चीख हंसते थे
जिन पर उनके बाप दादा अपनी गर्दनें कटवा चुके थे
फिर-फिर उन्हीं चुटकुलों में फँसते थे


आक्रोश के कारखानों पर ताले लग गए थे
सपनों की जगह हँसी की थैलियां बांटी जा रही थीं
हँसी का व्यवसाय सबसे अधिक फल फूल रहा था
जिन बातों पर पहले आक्रोश जन्मता था अब उनपर हँसी आ रही थी
एक इंसान को कुछ लोगों ने हंसते हंसते मार डाला
वह मरता हुआ भी हंस रहा था ऐसा अगले दिन उसकी तस्वीर लगा कर हंसते हुए लोगों ने कहा विरोध में हंस रहे लोगों से
हँसी की लहरियों से आसमान भरता जा रहा था
पेट मोटे हो रहे थे
गले की नसें फूलती जा रही थीं
दिमाग के तंतु छोटे हो रहे थे


शहर का स्थापत्य बदला जा रहा था
इस दुख में कई लोग हंसते हुए मलबे के नीचे दब गए
शोकाकुल बुजुर्ग नदी के इतने किनारे बैठे थे कि अब गए तब गये
ईश्वर को स्थानांतरित कर एक मानवीय अवतार बिठाया जा रहा था
ईश्वर चिलम के नशे में पेट पकड़े हंस रहा था
एक राजनीतिक दुःस्वप्न 
एक पुरातन शहर की आत्मा को डंस रहा था


मैं अपने होने का अर्थ खोजने के प्रयास में हर जगह असफल हो रहा था
मैं एक अनसुनी कराह
ग़लत चीज़ों के पीछे भागता समय के ख़त्म होने पर रो रहा था
मुझे जीना जब आना शुरू हुआ था मेरा वक़्त बीतने के कगार पर था
पूरे जीवन की उपलब्धियों का बलिदान दे जल से ऊपर आया मैं
अपने उपचार के लिए
"मैं हंस नहीं पा रहा था"
ये बात कोई भी समस्या की तरह सुनने को तैयार नहीं था
सबको कहीं से निकल कर कहीं पहुंचना था
कोई मेरी तरह बेकार नहीं था
अपनी बेकारी को अपनी समस्या समझ मैंने कोशिश की
हँसी की कुछ खुराकें लेने की
मेरे पास कोई पहचान पत्र नहीं था इसलिए मैंने हँसी ब्लैक में खरीदी और एक पुलिया के नीचे दम लगा कर सो गया
सुबह उठा तो आश्चर्य !
मैंने पाया
पूरा शहर मेरे आंसुओं में खो गया


अब मैं एक साथ हंस रहा था
और रो रहा था
चेहरे के स्नायुओं में विद्रोह की स्थिति थी
मन और मष्तिष्क खींच रहे थे मुझे बायीं ओर और दाईं ओर
मैं बीच में खड़ा चेहरे से हंस रहा था
आंखों से रो रहा था
मन से मैं जाग रहा था
मष्तिष्क से सो रहा था
मेरे पास जो सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी मेरी उंगली वो काटी जा चुकी थी
जल में फूल कर तैर रही थी
उसपे लगा नीला निशान बह कर भी बेशर्मी से मौजूद था
मैं दलदल को हेलता किनारे तक आया तो तट पर लाशों की एक और नदी थी
सबके चेहरों पर हंसी थी और हाथों में मोबाइल
तभी एक तरफ से भीड़ का समवेत स्वर गूंजा
"मारो मादरचोद को"
मैं फिर से भाग रहा था एक अंधेरी दिशा की ओर
पीछे से आवाज़ें आती रहीं
"बहनचोद मादरचोद"
अंधेरी सुरंग के एक छोर पर चमक कौंधी
मैं तेजी से उस ओर भागा
वातावरण में गूंज रहे श्लोक ने मेरे भीतर रोशनी भर दी

सर्वेषां यः सुहृनित्यं सर्वेषां च हिते रताः ।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥
- महाभारत

(हे जाजले ! उसी ने धर्म को जाना कि जो कर्म से , मन से और वाणी से सबका हित करने में लगा हुआ है और सभी का नित्य स्नेही है ।)

लम्बे समय से अंधेरे का आदी मैं बेहोश रहा घण्टों
आंखें खुलने पर मेरे सामने एक दिव्य पुरुष था  
पीछे हज़ारों वर्ष पुरानी कहानियां
उसके माथे पर तेज़ रोशनी थी और हाथों में शस्त्र
मैं नतमस्तक होकर उसके चरणों में गिर गया
दिव्य पुरुष ने मेरी गर्दन उतारी
अपनी गर्दन में जोड़ ली 
एक क्षण के लिए
मुझे अपने अलौकिक रूप का दर्शन कराया
उसके सहस्त्र सिर थे कोटि हाथ
पूरा देश खड़ा था उसके साथ
मैंने पलट कर पीछे देखा तो दूर तक अंधकार था
मैं इधर उधर ढूंढ रहा था कोई सम्बल
कोई मेरी तरह अपने इस समय से निराश नहीं था
इसलिए इस सफ़र में कोई मेरे पास नहीं था
मैंने इसका अर्थ यही समझा
अभी और अत्याचार होने थे
बहुत आइनों फूटना बाकी था
अभी बहुत खून बहना शेष था
बहुत इमारतों का टूटना बाकी था


मैं जो देख पा रहा था वो अदेख्य था
जो खा रहा था वो अखाद्य था
मैं जो जी रहा था वो जीवन नहीं
किसी शूकर की मल के दलदल में फंसी दिनचर्या थी
मैंने मौके की नजाकत समझी और अपना सिर अपने धड़ के सामने लाकर अपनी बची उंगलियां अपनी आंखों में डाल लीं
मेरी आँखें फूटता देख दिव्य पुरूष दुखी हुए
शायद वो स्वयं अपनी उंगलियों से फोड़ना चाहते रहे हों


अब मैं जी रहा हूँ एक शांत और संतुष्ट जीवन
मेरे कर्णपल्लव की पेशियां पहले ही ख़राब हो चुकी थीं
अनवरत चलने वाले शोर से
जो अचानक उठता था हर ओर से
और शहर के आसमान पर छा जाता था
हर विरोध की आवाज़ को जो निर्विरोध खा जाता था
अपनी आँखों के बलिदान से मैं सुखी जीवन जीने की दूसरी
आवश्यक शर्त भी पूरी कर रहा था
बस एक मुँह बचा था जिससे मैं लगातार हंसी की खुराकें ले रहा था
मुंह और गांड़ के आदिम सम्बन्ध को जीवित रखने की एकमात्र शर्त पर 
मुझे जीवन जीने का वरदान मिला था
जहां मैंने मल त्यागा था कल 
वहां पर आज एक केसरिया फूल खिला था
इस तरह मेरा जीवन कितना भी अभावग्रस्त था
मुझे इसमें आराम था मैं अच्छा खासा मस्त था
किसी की मुझे पुकारती आवाज़ ख़राब लगती थी
हर वक़्त एक नशा तारी था
होश में आने का स्वप्न मेरे जीवन पर भारी था


मैं अब खाते पीते आते जाते बस में ट्रेन में
ऑफिस में दुकान में हर जगह समभाव से उपस्थित हूँ
एक जैसी संतुलित प्रतिक्रिया के साथ
एक जैसा क्षणिक गुस्सा और एक जैसे बंधे हाथ
एक जैसे चुटकुलों पर ठठा कर हँसता हुआ
फिर अचानक गम्भीरता से चुप होता हुआ
मेरा भूत शर्मनाक है और भविष्य अंधकार में घुप होता हुआ
मेरे चेहरे पर हँसी के निशान नहीं मिलते
मैं हाथ धोने की तरह नहीं थूकने की तरह हंसता हूँ
फिर ज़हरखुरानी की तरह रोता हूँ
मैं सुबह उठता हूँ कोई और बन के
रात को कोई और होकर सोता हूँ

विमल चन्द्र पाण्डेय. 8850023980 . vimalpandey1981@gmail.com  

Saturday, October 19, 2019

Friday, October 18, 2019

Sunday, June 12, 2016

हम इन्हें बार बार देखना चाहेंगे.




शुक्रवार के दिन मुंबई में फिल्म रिलीज को लेकर ही हलचल होती है. लेकिन पिछले दिनों की शुक्रवार की हलचल नाटक से जुड़ी थी. साठे कॉलेज के प्रेक्षागृह में नाटक के दो शो हुए और दोनो शो इतने हाउसफूल रहे कि लोगों को खड़े होकर देखना पड़ा. मुंबई में हिंदी नाटक के लिये, वो भी टिकट लेकर, इतने लोगों का देखने आना, यह देखना भी विलक्षण अनुभव जैसा था.
नाटक था “इन्हें देखा है कहीं”. फिल्म और रंग अभिनेता इश्तियाक आरिफ़ खान ने इसे निर्देशित किया था. इश्तियाक एनएसडी से स्नातक हैं इसलिये उनके पास नाटकों का गहरा अनुभव तो है ही वो बेचैनी भी है जिसके जरिये नाटक करने की लालसा उनमें धड़कती रहती है. इन्हीं बेचैनियों और लालसाओं ने इश्तियाक को अपना थियेटर ग्रुप “मुखातिब” खड़ा करने पर विवश किया. अब मुख़ातिब जवान हो चुका है और इसके कई शो मसलन “ शैडो ऑफ ओथेलो”, “खूबसूरत बहू”, “रामलीला”, “भय प्रकट कृपाला”, “सार्थक बहस” हिट हो चुके हैं.


       इश्तियाक के नाटकों का आधार व्यंग्य होता है. अगर वे ओथेलो जैसी त्रासद कथा चुनते हैं तो भी उसे मारक व्यंग्य से भर देते हैं. और ऐसा भी नहीं होता कि व्यंग्य की भरपाई मूल कथा को खिसका देती है. मूल कथा अपने उसी रूप और अंतर्वस्तु के साथ मौजूद रहती है. लेकिन इश्तियाक उस कथा को समकाल से जोड़ने का प्रयोग करते हैं और यहीं से नाटक व्यंग्य के कंधो पर सवार होकर धीरे धीरे यथार्थ की संवेदनाओं को छूते हुए त्रासद व्यंग्य में परिणित होता है.
       “इन्हें देखा है कहीं” की संरचना भी कुछ ऐसी ही है. इस बार इश्तियाक ने चेखव और हरिशंकर परसाई की कहानियों को शामिल किया हैं. चेखव की कहानी को एडॉप्ट किया है प्रसिद्ध रंग निर्देशक रंजीत कपूर ने और हरिशंकर परसाई की दो कहानियों “अश्लील किताब” और “क्रांतिकारी” को खुद इश्तियाक ने किया हैं. तीन अलग अलग कहानियों को एक कथा में पिरोना जितना दिलचस्प हो सकता है, उससे कहीं ज्यादा खतरा उनके बिखरने की है. लेकिन नाटक कहीं बिखरता नहीं.
     नाटक की शुरूआत गाँव में आई एक नौटंकी से होती है. जहाँ गाँव के सज्जन और संस्कारी लोग उसका विरोध करते हैं और विरोध का उनका तरीका और तेवर उन्हें “तथाकथित संस्कारी” भीड़ में बदल देता हैं. यहीं से नाटक उस बहस की ओर ले जाता है कि जो समाज इतना संस्कारी और संवेदनशील हैं वो कैसे किसी को इस तरह से अपमानित कर सकता हैं जबकि उसे देखने वाला एक बड़ा वर्ग हैं. नाटक इसी नुक़्ते के ज़रिये खुलता है और अपने आखिर में एक हैरानी छोड़ जाता है जब पता चलता है कि नौटंकी का मैनेजर कभी गंभीर नाटक किया करता था और उसका लौंडा भी कथक में प्रभाकर हैं. और हैरानी तब और बढ़ती है जब उस बहस में मैनेजर चेखव की कहानी को नाटक के लिये चुनता है और उसे सफल तरीके से प्रस्तुत करता है.
       यह नाटक न सिर्फ़ गंभीरता और अश्लीलता के एक छद्म आवरण में लिपटे हमारे समाज को रेखांकित करता है बल्कि समाज के उस दर्शक वर्ग को प्रश्नांकित करता है कि ऐसी क्या वजह रही कि एक गंभीर रंग निर्देशक को नौटंकी करनी पड़ती है. नौटंकी का मैनेजर कहता है कि मैंने तो अपने से जितना हो सकता था उस फूल भरी डाली को छूने की कोशिश की लेकिन नहीं छू पाया तो क्या उस फूल भरी डाली को नहीं चाहिये कि मेरे लिये थोड़ी झुक जाय ? दर्शक से इस विनम्रता की चाह करना जितना हास्यास्पद हो सकता है लेकिन इस नाटक ने इस संवाद के जरिये रंगमंच की वर्तमान स्थिति की त्रासद अभिव्यंजना की है. और इस समय में एक सशक्त सांस्कृतिक माध्यम में रंगमंच की उपस्थिति  को लेकर जिस तरह की भाव शून्य उदासीनता दिखाई पड़ रही है उसके बरक्स यह विनम्र चाह बहुत ही ज़रूरी कदम की तरह है.
       जैसा कि कहा जाता है कि रंगमंच अभिनेता का माध्यम है. इस सूक्ति के जरिये देखा जाय तो “इन्हें देखा है कहीं” में अभिनेताओ ने अपनी अभिनय दक्षता का परिचय दिया हैं.  विश्वनाथ चटर्जी, धीरेन्द्र, आलोक, फैज मुहम्मद खान, आशीष शुक्ला, साहिबा, लक्ष्मी, नरेश मल्लिक, तौक़ीर खान, नेहा, रिया ने एक से अधिक किरदारों में आकर भी अपने अभिनय कौशल और मंचीय ऊर्जा से मंत्रमुग्ध करने जैसा काम किया हैं.
       नाटक में नौटंकी शैली के साथ प्रयोग किया गया है इसके लिये ज़रूरी था कि स्टेज को इस रूप में रचा जाय कि इस प्रयोग को प्रस्तुत कर सके. इस लिहाज से धीरेन्द्र  का मंच सज्जा और रोहित का प्रकाश भी महत्वपूर्ण हैं. मंच और सभागार को कागज और बिजली के झालरो से सजाना और लाउड स्पीकर को बाँधने से नाटक के कथानक के लिये बहुत ही वास्तविक वातावरण सृजित होता है. इससे लगता है कि लोग दर्शक की तरह नहीं एक भीड़ की तरह अपने सामने हो रही इस घटना को देख रहे हैं, और नाटक इस बिंदु पर आकर एक और ऊँचाई को पाता है. 

       आखिर में मैं कह सकता हूँ कि शुक्रवार की जो हलचल थी उसे एक किनारा मिला. हम कुछ देखने जैसा देखकर एक भरे हुए अहसास के साथ लौटे और मन ही मन कहते रहे हम इन्हें बार बार देखना चाहेंगे. 


शेषनाथ पाण्डेय. 

sheshmumbai@gmail.com