Sunday, January 12, 2014

विमल चंद्र पाण्डेय की लंबी कविता : मुर्गी पंडित.


विमल ने अपनी कहानी "मन्नन राय गज़ब आदमी  हैं" में एक रियल किरदार मन्नन राय के जरिए मन्नन राय का नायकत्व गढ़ने के दौरान हमारे समय से छूट रहे गली मोहल्ले के नायक को याद किया था. कहानी बहुत चर्चित-प्रशंसित रही है. इस बार विमल अपनी कविता में उसी गली मुहल्ले के किरदार "मुर्गी पंडित" को लेकर हमारे ’दलदल समय’ को देखने की कोशिश कर रहे हैं. इस कविता पर ज़्यादा कहना पाठक से उसका अर्थ छीन लेने जैसा होगा. तो पेश है युवा कवि-कथाकार विमल की नयी कविता ’मुर्गी पंडित.’

     

मुर्गी पंडित


लहरतारा के छोटे से उस मोहल्ले में जितना विकराल मुर्गी पंडित के घर का गेट था
उतनी बड़ी थी हमारी सीमायें और हमारे लिए लगाये गए प्रतिबंधों का आकार भी
लगभग उतना ही बड़ा था
हमारी पतंगें कट कर जब मुर्गी पंडित के अहाते में चली जातीं
हम उस पतंग को रणभूमि के शहीदों में जोड़ गिनने लगते थे अपने चिल्लर

घर अपने स्थापत्य में अकेला था
अपनी उपस्थिति में डरावना और
अपने सन्नाटे में अक्सर चीखता रहता था हमारी पतंगों के अपने पिछवाड़े के बगीचे में समोए
मुर्गी पंडित इस बड़े घर में अकेले रहते थे यह नहीं कहा जा सकता
उनकी सैकड़ों मुर्गियों को हमें जोड़ना होगा घर के सदस्यों में
या फिर देखते-देखते जिंदा हो उठने वाली अफवाहों में

मुर्गी पंडित अकेले रहते हैं
या शायद कुछ मुर्गियों के साथ
यह सवाल हमारे लिए उत्तेजना की गली का सबसे दमघोंटू रास्ता था
हम जाना चाहते थे उस बड़े रहस्य घर के भीतर
वह घर हमारे सपनों में आता था जिस तरह मुर्गी पंडित आ जाते थे हमारी बातों के भीतर अचानक

चहल पहल वाली गलियों में कभी चहलकदमी नहीं की उन्होंने
सड़क पर कभी दिखे तो कुछ यूँ जैसे माँ की गोदी से छूटा कोई बच्चा भगा जा रहा हो माँ की तरफ
उस घर से रात बिरात आवाजें आती थीं उनके खांसने की
कभी कभी हनुमान चालीसा पढ़ने की
सिर्फ़ हम कुछ बच्चों से बातें करते वे उस गरम दोपहरी में
जब हमारे घरों में सोये होते थे सब और हम गलियों में खोजते थे कोई रोमांच
वे अक्सर हमसे लवण की परिभाषा पूछते फिर अम्ल और छार की भी
हमने नहीं समझा कि उनके जीवन में नहीं बचा था थोड़ा भी लवण
बेजान परिभाषाओं के दौर में अकेले रहने की मुर्गी पंडित की ज़िद नहीं समझ पाता था कोई
पुरे मोहल्ले में उन्हें पगलेट कहा जाता था जो बेटे बहुओं को भगा कर अकेले भोग रहा है पूरी संपत्ति

मुर्गी पंडित भूल चुके थे अपना नाम
जितनी मुर्गियां उनके घर में कुड़ कुड़ करती थीं
उससे अधिक थीं उनके मन में
उनके सीने से कुड़कुड़ाने की आवाज़ आती थी
उनका घर मुर्गियों की बीट सा महकता था

कब कोई मुर्गियों से इतना प्यार करने लगता है
कि भगा दे अपने बहू-बेटों को अपने घर से
सिर्फ इसलिए कि वे घर को मुर्गियों से खाली करवाने की बातें करें
इस दलदल समय में क्यों छूट जाता है कोई इतना पीछे
कि मुर्गियों और उसमें कोई फ़र्क बाकी नहीं रहता

कुछ लोग कहते थे कि मुर्गी पंडित तंत्र साधना करते हैं
तो कुछ जानकारों का यह दावा था कि वह किसी आपराधिक कृत्य में लिप्त हैं
पगलेट होने की आड़ लिए
कुछ बच्चे तो उन्हें ही चलता फिरता भूत समझते थे
और पी जाते थे हॉर्लिक्स मिला दूध एक बार में
मुर्गी पंडित भूत तो नहीं थे लेकिन वह भूत में रहते थे
भूत में रहना भविष्य में रहने से अधिक खतरनाक होता है

वैसे तो वर्तमान में रहना सबसे खतरनाक है आजकल
हम सब भूत या भविष्य के बंकरों में छिपे जा रहे हैं लगातार
मुर्गी पंडित ने इक्कीसवीं सदी को शायद भांप लिया था पहले ही
भूमंडलीकरण की उदार सहम उनके चेहरे पर कौंधती रहती थी

नब्बे के दशक की आहट सुन कर मुर्गी पंडित दूरदर्शन की शरण में चले गए थे
उनके बेटे और बहू तारा और कमांडर देखने की उम्मीद में जब घर छोड़ कर दिल्ली गए
उस वक़्त मुर्गी पंडित कृषि दर्शन देख रहे थे
जिसमें बताया जा रहा था कुक्कुट पालन की बारीकियों के बारे में
भावनाओं के पालन पर कोई कार्यकम न दूरदर्शन ने बनाया था
और न ही नए-नवेले निजी चैनलों ने

इतने भावुक हो गए थे वह अपने अंतिम दिनों में
कि किसी पड़ोसी से हो सकने वाली औचक बातों में उन्होंने व्यक्त की थी अपनी इच्छा
कि उनकी मृत्यु के बाद उनका शरीर उनकी मुर्गियों को खिला दिया जाए
वह भूल गए थे शायद मुर्गियों और गिद्धों के बीच का फ़र्क
किसके बीच रहते हुए कोई क्या भूल जाए
कहना मुश्किल है
तब और मुश्किल था जब उदारीकरण सबसे पहले मुर्गी पंडित के रहस्यमयी घर में ही उतरना चाहता था

उन्होंने अपने विशालकाय हवेलीनुमा घर को
किसी भी सरकारी ईमारत के तौर पर प्रयोग होने को मना किया
इस तरह एक पुरानी पीढ़ी ने नयी पीढ़ी को पहला उल्लेखनीय और ऐतिहासिक इनकार सौंपा था
और सीधा मना कर दिया था विकास के उस भीमकाय घोड़े को अपने आंगन में उतरने से
वह समय महत्त्वपूर्ण था ऐतिहासिक और कई अन्य दृष्टियों से
ऐसी बातों को मना करने वालों को विक्षिप्त कहने का चलन उसी समय के आसपास शुरू हुआ था

अस्सी की पैदाइश हम दौड़ते थे गलियों में नेकरें पहने
और हमसे भी तेज़ कोई चीज़ दौड़ रही थी
जिसे जल्दी ही हमारे घरों में और मन में जगह बना लेनी थी

हम दौड़ते हुए मुर्गी पंडित को अकेला और कमज़ोर होता देखते रहे
यह समझ पाने की हमारी उम्र नहीं थी कि उस शारीरिक कमज़ोरी में
उनके इरादों का फौलाद होते जाना शामिल था हर क्षण
अपने घर को उन्हें नहीं देना था किसी को चाहे सरकार हो या कोई निजी कम्पनी
और उनका मानना था कि देश को भी नहीं दिया जाना चाहिए किसी और को

उनकी बातों को न देश सुनता था न सरकार सुनती थी
उनके बेटे सुन तो लेते थे पर मानने को तैयार नहीं थे
एक अनवरत संघर्ष चलता रहा उनका उनके बेटों से
जैसे नयी और पुरानी पीढियां सही गलत की खाई से दूर लड़ रही हों
निस्तब्ध अँधेरे में सिर्फ़ आवाज़ की बिनाह पर

जिस पहचान को बचाने की लड़ाई मुर्गी पंडित लड़ रहे थे
वह मुर्गियों के साथ कुछ इस तरह गड्डमगड्ड हुआ था
कि लोग उनका पता बताते हुए सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य का घर नहीं कहते थे 
बताया जाता था कि काला सा बड़ा गेट है जिसमें से मुर्गियों की आवाज़ और गंध आती है

मुर्गी पंडित की लाश कई दिनों तक उस घर में पड़ी सड़ रही होती
उनके पड़ोसियों ने उनका हालचाल न लेने के अपने तर्क विकसित कर लिए थे
लेकिन मुर्गियों और चूजों ने अपने इंसान न होने का फ़र्ज़ निभाया
और निकल आईं सैकड़ों की संख्या में अपनी आवाज़ में मर्सिया पढ़ती हुई
लहरतारा का वह मोहल्ला एक ऐतिहासिक दिन का गवाह बना
जब गलियों में आदमियों और कुत्तों से अधिक दिखी थीं मुर्गियां
जो चली जा रही थीं एक तरफ सर झुकाए
कतारबद्ध

मुर्गी पंडित का जाना प्रतिरोध की उस आखिरी कड़ी का टूटना था
जिससे बची थी उम्मीद
जहाँ से फूट सकती थी ज़िद की कोई अमरबेल
जो सही या गलत
अपनी पहचान से इतनी कस कर लिपट जाती
कि उसे बदलना किसी आंधी के बस के बाहर की बात होती

मुर्गी पंडित शुद्ध शाकाहारी थे
फूटे अण्डों से भरा उनका बरामदा जब साफ़ करवाया गया
तो उसी कीचड़ में उनकी भी परछाईं फूटी हुई मिली
जिसमें नमक का कुछ स्वाद था
मरने से पहले उन्होंने एक कड़ाही में अण्डों से कुछ बनाने की कोशिश की थी

पता नहीं खाने के लिए या मरने के लिए.  

विमल चंद्र पाण्डेय. 9820813904.