बिहार के बक्सर जिले में जनमें ब्रजेश की पढ़ाई लिखाई वीर कुँवर
सिंह विश्वविद्यालय और बी.एच.यू से हुई हैं. साहित्य के बहुत अच्छे पाठक है और
मेरे शुरूआती साथियों में सबसे पहले इन्होंने ही छपना शुरू किया, लेकिन लिखने की
प्रवृति रहने के बाद भी लिखते कम हैं. हलाँकि इधर बीच इसमें तेजी आई है. हम आशा
करते है कि यह तेजी अटूट हो. इनकी कविताएँ कथादेश, परिकथा, देशज, जनपथ सहित कई
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. कविताएँ लीलाधर मंडलोई द्वारा संपादित
किताब “कविता का समय” में भी शामिल. अचला शर्मा और सुधीश पचौरी की किताब "नए
जनसंचार माध्यम और हिंदी" में बी.बी.सी के कार्यक्रमों पर समीक्षा प्रकाशित.
प्रस्तुत है इनकी चार ग़ज़लें-
-एक-
अब
तलक हमने किया क्या कुछ नहीं.
फिर
भी पत्थर बोलते क्यों कुछ नहीं.
हादसे
दर हादसे होते रहे
आपने
कह दी अभी ये कुछ नहीं.
भूख
भर रोटी नहीं दी आपने
और
बोला बोलना है कुछ नहीं.
इस
कदर नाराजगी न थी कभी
बोलते
हर बात पे है कुछ नहीं.
आज तक
है याद वो मंजर मुझे
सुबह
थी पर दिख रहा था कुछ नहीं.
बिक
रहा बाजार में सबकुछ यहाँ
और
क्या मैंने खरीदा कुछ नहीं.
शाम
होने तक चला रास्ता मगर
खोलकर
मुट्ठी जो देखा कुछ नहीं.
-दो-
तुम
चलो साथ तो कुछ बात बने.
कहने
सुनने के कुछ हालात बने.
वो तो
आते हैं चले जाते हैं,
कभी
रुक जाएँ ऐसी रात बने.
मैं
तो पीछे न मुड़ के देख सका,
जिंदगी
के यही हालात बने.
मेरे
हिस्से की साँस लेने दे,
कुछ
तो ऐसी ये कायनात बने.
हम तो
तैयार थे मरने के लिए,
बेरहम
क्यों तेरे जज्बात बने.
-तीन-
वो
चला जाये तो कैसा लगे.
फिर
नहीं आए तो कैसा लगे.
आपनी
ज़िद पर अड़े रहे हम भी,
दिन
ये ढल जाये तो कैसा लगे.
नाम न
आए तो कैसा लगे.
जिंदगी
मेरी तू दौड़ा मुझको,
और
मिल जाये तो कैसा लगे.
बन
चुकी उँगलियाँ अब हैं मुट्ठी,
कोई
टकराए तो कैसा लगे.
-चार-
तेरे
लिए ही हार गया मैं.
तुमने
कहा बेकार गया मैं.
पाया
खुद को बहुत अकेला,
जब–जब
भी बाजार गया मैं.
पगडण्डी
पर चला बहुत कम,
सड़कों
पर सौ बार गया मैं.
कांटे
चुभे पांव में हरदम,
अक्सर
इस रफ़्तार गया मैं.
माँ
ने जब भी मुझे बुलाया,
बेटा
हूँ ना यार ,गया मैं.
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