Monday, November 26, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 1



विमलेश त्रिपाठी अपनी बात कहने के लिए विधाओं के साथ आवाजाही करते हैं, उसे अपना बनाते हैं, उसके साथ होते हैं इसलिए उन्हें सिर्फ़ कवि, कथालेखक में हम नहीं समेट सकते. बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि विमलेश अंबरी नाम से गजल भी लिखते हैं और भोजपुरी में लोक गायन भी करते हैं. विमलेश के इतने सारे रूपों के आखिर उत्स क्या है ? कैसे वो संस्कृति के हर धरातल पर अपने पैर टिका देते है और वे धरातल उनके इतने हमनवां हो जाते हैं कि हमारी आँखे धोखा खाने लगती हैं कि हम विमलेश को कवि, कथाकर से पहचाने या उनके गायन और गजल से. लेकिन इन सब से जरूरी है विमलेश के रचना उत्स को देखने की. उनकी सृजनात्मकता की पड़तलाड़ उनकी रचनाएं तो कराती ही है लेकिन विमलेश बनने की बात उनके डायरी से ही शायद हो सकता है. इसलिए हम “जनराह” पर उनके डायरी के अंशों को प्रस्तुत करते हुए हर्षित है कि हम उनके पड़ताल के साझेदार हो रहे हैं. साथ ही विमलेश से हम आशा करते है कि डायरी के और आगे के अंश भी हमें मिलता रहे.



एक गुमनाम लेखक की डायरी-1

 20.08.2012, सोमवार, लिलुया
पंन्द्रह साल पहले की डायरी खो गई है। क्या होगा उसमें की जिज्ञासा लिए पूरे घर में चहलकदमी करता हूं। कोने-कतरे में ढूंढ़ता हूं अपने वे शब्द जो तब लिखे गए जब शब्दों की महिमा तक से मन अनजान था। कुछ भी नहीं मिलता। कागज के टुकड़ों पर लिखी कुछ कविताएं मिलती हैं, जिन्हें आज ठीक तरह कविता भी नहीं कह सकता। निराशा की एक झीनी चादर घर के फर्श पर ही बिछ जाती है। मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं ताकि नई ऊर्जा से अपने छूट गए शब्दों की तलाश कर सकूं।

वे ढेरों कविताएं याद आती हैं जिन्हें लिखते हुए ऐसा नहीं सोचा कि ये कविताएं हैं कि कभी लोग इन्हें पढ़ेंगे। घर की संवादहीनता। दोस्त-साथी के  न होने की सूरत में मैं अपनी बात वहीं कह सकता था। वहीं कहा मैंने। बिना यह सोचे कि कहने के बाद न सांस लेने वाले कागज कुछ नहीं बोलेंगे, सह लेंगे मेरा सबकुछ कहा। अच्छा- बूरा, हंसी-खुशी, उदासी-रूलाई सब सह लेंगे एकदम चुप।

वे कागज के टुकड़े जिन्होंने इतना साथ दिया, उन्हें भूलूं भी तो कैसे। वे छूट गए गांव की पगडंडियों की तरह याद आते हैं। उन रस्सियों के झूले की तरह याद आते हैं जो नीम के पेड़ पर लटका छोड़ आए थे हम यहां इतनी दूर। कोलकाता..। यहां आकर एक सरकारी क्वार्टर में बंद हो गई थीं हमारी सांसें। कहीं कुछ भी नहीं। अखबार नहीं। टी.वी. नहीं। सिर्फ हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें जो पढ़-पढ़कर ऊब गए थे।

याद आती है वह नदी जिसकी देह पर लिखते थे उस समय की सबसे खूबसूरत लड़की का नाम। उस पेड़ की याद आती है जिसमें खुदे थे ककहरा... और कई ऐसी रेखाएं खुदी थी जिनके अर्थ सिर्फ हम ही जानते थे।

ऐसी कविताएं जो हमारी आत्मा पर लिखे थे समय ने। हमारी देह पर स्कूल के मास्टरों ने। हमारे मन पर घर के बुजुर्गों ने। उन सबको लेकर आए थे यहां इस महानगर में शब्दों को खोजने। पिता की नजरों में उन शब्दों को खोजने जिनसे आदमी बनता है कोई एक। पर अपनी नजरों में हम उन शब्दों को खोज रहे थे जिनसे आदमी को सचमुच के आदमी की शक्ल में ढलने में मदद मिलती है।

हम कोई विशिष्ट नहीं थे। हमें भी रोना आता था। कभी-कभी हंसते थे हम भी जोर-जोर। कोई एक पुराना लोक गीत जोर-जोर से गाकर सोचते थे कि हमारे सामने हजारों लोग खड़े हैं और हमारे गाने पर हो रहे हैं मोहित।

आज पता नहीं क्यों वह छुटा हुआ समय याद आ रहा है।  आइए रहते हैं साथ कुछ दिन। देखते परखते हैं। अपने गुमनामी पर हंसते हैं कुछ लम्हा...। फिक्र को उड़ाते हैं गुब्बारे की तरह। आइए कि फिर से जिंदा होते हैं कुछ लम्हा अपने होने के साथ....
रात बहुत बूरे सपने आए। 
पहली बार तो नहीं ही आए। अक्सर आते रहते हैं। अब अच्छे सपने नहीं आते। बुरे ही आते हैं। 
 
दो
26 अगस्त, 2012
बहुत जमाने पहले के एक समय में सपने हमारे लिए सबसे अच्छे मनोरंजन के साधन थे। सुबह जब सब लोग द्वार पर इकट्ठे होते तो अपने-अपने सपने सुनाते। सबके सपने सबलोग मनोयोग से सुनते थे। कई लोग जिन्हें सपने नहीं आते थे उनका सपना सबसे अच्छा होता था। वे झूठ-मूठ सपने गढ़ लेते थे। सच्चे सपने झूठे सपने के आगे फीके पड़ जाते। हमारा बच्चा मन झूठे सपनों पर विश्वास कर लेता। सपने झूठे होते हैं, ये बाद में पता चला। रात में देखे गए और जागती ऑंखों से देखे गए सपने में तफात होता है यह हमने बाद में जाना। जानना भी कई तरह से खतरनाक होता है, इसे भी जाना जब एक लड़की ने समझाया उस कविता का अर्थ जिसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था - कुछ भी ठीक से जान लेना अपने आप से दुश्मनी ठान लेना है।

हमने पुराने जमाने के सपनों को एक-एक कर मिटते-ढहते देखा। हमारे सपने में परियां नहीं थी। महल नहीं थे। राजा-महाराजा के सपने नहीं थे। हमने ढेर सारी पसंद की मिठाइयां  खाने के सपने देखे। सिपाही की नौकरी और कुछ पैसे के बाद मां पिता को तीरथ-वरत कराने के सपने देखे। हमने यह भी सपने में देखा कि हमने जो आम का अमोला रोपा था, वह वृक्ष बन गया है, बड़ा सा और उसमें ढेर सारी मंजरियां उग आई हैं। अमरूद का वह पेड़ जो कभी बड़ा नहीं हो सका- वह बड़ा हो चुका है और ओझा बाबा के यहां नाली से निकालकर और धोकर अमरूद खाने से हम बच गए हैं।  कि हमारे गांव तक आने वाली सड़क जो बरसात के दिनों में कीचड़ की वजह से बंद हो जाती थी, वह अब पक्की की बन गई है और एक हरे रंग की सायकिल पिता ने खरीद कर दिया है और हम सब उस सायकिल को बारी-बारी चला रहे हैं। सबसे तेज मैं सायकिल चलाता हूं के सपने बार-बार रात में आते थे।

हमने कविताओं के सपने नहीं देखे। देवताओं के सपने नहीं देखे। पता नहीं और कितनी जरूरी चीजों के सपने नहीं देखे। उन्हीं सपनों के साथ एक दिन हमें कोलकाता लाया गया- यह तर्क देकर कि हम वहां गांव में नान्हों की संगत में बिगड़ रहे हैं। यहां आकर हम एक कमरे में बंद हो गए।

तब हमारे सपने में रेलगाड़ी आती थी जो हमारे गांव की ओर जाती थी। तब हमारे सपने में सपने सुनाने वाले गिरिजा, ददन, सुरेश, हीरालाल और सुरजा सब आते। तब हम सपने में अपने गांव में होते।

आज का सपना बहुत बुरा था।
लेकिन क्या यह अचरज है कि मैं सपने में अपने गांव में था। मेरे सपने में कुछ लोग थे जो शहरी लगते थे, उनके हाथों में अत्याधुनिक ढंग के हथियार थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता। वे मेर पीछे पड़े हैं। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मेरे पिता मुझे बचाने के लिए मुझे कोनसिया घर में बंद कर चुके हैं। मैं अपने पुराने घर के खपड़े से होते हुए गांव की गली में कहीं खो जाता हूं। गांव की सारी गलियों के बारे में मुझे पता है। मैं भिखारी हरिजन के घर में हूं। उनकी  अधेड़ पत्नी मुझे अपने हाथों से गुड़ की चाय पिला रही है।

भागते समय मैं कुछ भी लेकर नहीं भागता। मेरे हाथ में किताबें हैं। कुछ देर बाद देखता हूं कि मैं नदी के किनारे हूं और उस नदी का नाम हुगली नदी है। मुझे एक आदमी मिलता है जो बोट चला रहा है, मुझे उस पार जाना है, वहां उस पार मेरा एक घर है। मैं देखता हूं कि वह बोट खेने वाला आदमी अचनाक  पुलिस में बदल जाता है। वह मेरी किताबें छिनना चाहता है। मैंने जो कविताएं लिखी हैं उसे छिनकर गंगा में बहा देना चाहता है। 

मैं भागता हूं, बेतहासा और और नदी में उतर जाता हूं। नदी में डूब्बी मारता हूं। और देखता हूं कि अपने गांव के भागर में हूं। वहां मेरे बाबा खड़े हैं। ुनके हाथ में रामचरितमानस है। उनके वस्त्र साधुओं की तरह है। उन्हें देककर उनके जिंदा होने पर मुझे अचरज होता है। मैं देखता हूं कि मेरी किताबें भीग गई हैं। लिखे हुए अक्षर की सियाही पन्नों में फैल गई है...। मैं बाबा को प्रणाम भी नहीं करता और धूप-धूप चिल्लाते हुए आगे बढ़ जाता हूं...

सुबह से यह सपना मुझे परेशान किए हुए है। मां से कहा- मैंने बुरा सपना देखा आज। मुझे मत कह मझला, पानी में जाकर कह। बुरे सपने पानी में कहने से उनका दोष नष्ट हो जाता है। 

मैं ऑफिस के रास्ते हुगली नदी को देखता हुआ गुजर जाता हूं। हुगली नदी को प्रणाम करता हूं, अपना बुरा सपना नहीं कहता। सोचता रह जाता हूं और पहली-दूसरी गाडी छोड़कर तीसरी गाड़ी में सवार हूं..

घड़ी देखता हूं और सोचता हूं...- आज फिर ऑफिस देर से पहुचूंगा।

तीन
21.08.2012, मंगलवार


पहली कविता जो याद रह गई मन में उसे कैसे याद करूं - बहुत दूर समय की गहराइयों में जाकर एक बच्चे से पूछता हूं तो वह कहता है - घूघुआ मामा उपजे ले धान्हा। मैं उससे उसका अर्थ पूछता हूं तो वह लजाकर भाग जाता है। घर के कोने से मुझे देखता हुआ जोर-जोर से चिल्लाता हुआ गाता है - कितना पानी घोघो रानी। 

मैं उन गीतों की अर्थ गहराईयों में खो जाता हूं। मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे  आजी की आवाजें घेर लेती हैं। वह गा रही हैं मुझे अपने पैरों पर झूला झुलाते हुए - घुघुआ मामा उपजे ले धान्हा।

कविता से परिचय के पहले साधन ये ऐसे गीत बनते हैं जिनके अर्थ मुझे अब तक नहीं मालूम। जिन गीतों के अर्थ मालूम हैं वो अब समृतियों से गायब होते जा रहे हैं। वे तमाम गीत जो जांत चलाते हुए आजी और उनके साथ की औरते गातीं थीं। सोहनी करते हुए निठाली बहु और उनकी सहेलियां गाती थीं। नीम के झूले पर झूलती हुई गांव की लड़कियां गाती थीं। मचान पर जनेरा की बालियों की रखवाली करते हुए भरत भाई गाते थे। या बाबा को रात में जब नींद नहीं आती थी तो कभी कभी वे गुनगुनाते थे। मेरी नींद खुलती तो नींद में खलल डालती हुई अनेकों आवाजें मेरे कान में गूंजती थीं। उन तमाम गीतों को याद करते हुए मैं उनके ऋण को महसूस कर रहा हूं जो मेरी पीठ पर आज भी लदा है। 

कविता में पहली बार प्रवेश करता हूं तो मेरे सामने तितली-सूरज या  ईश्वर और देश से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कभी दूर देस से आती हुई कोई तितली अपने चंचल पंख हिलती है या स्कूल में होने वाली प्रर्थना अगम अखिलेश हे स्वामी  गूंजती-सरसराती निकल जाती है। 

मैं जब भी कोई कविता लिखने बैठता हूं मेरे सामने कोई शब्द नहीं होता। किसी वाक्य संरचना की कोई भूमिका नहीं होती। बहुत दूर समय के पार से आती हुई वे आवाजें होती हैं जो वर्तमान से टकरा कर एक नई धुन एक नई तरह की पीड़ा की रचना करती हैं।

एक शब्द लिखने के पहले मुझे मेरे बाबा के पसीने से भीगे हुए मटमैले कपड़े याद आते हैं। पिता की  पसीने के दाग से धवल पड़ गई सिपाही की वर्दी याद आती है। मां के पेट का दर्द याद आता है, जो अब तक जारी है। मेरी वे बहनें याद आती हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं। मेरे बड़े भाई याद आते हैं जिनसे बेहद प्यार करते हुए भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। रामचरित मानस की वह फटी-पुरानी पोथी याद आती है जो बिना दरवाजे के आलमारी में रखी जाती थी और कभी-कभी गाय के गोबर के छींटे उसपर पड़ जाते थे।

मैंने उस पोथी से बहुत सारे शब्द सीखे। और कई-कई बार उसे टिकुराई से सीता रहा। उसे बचाता रहा। और अंत में वहीं उसी आलमारी में छोड़कर इस महानगर में चला आया। मुझे फिर कभी वह पोथी नहीं मिलनी थी। मुझे एक कमरे में बंद हो जाना था और रोना था जी भर-भर अपने गांव की पगडंडियों खेतों और बाग-बगीचों के लिए। मेरे पास दीवारें थीं जिनके चारों ओर अंधेरा था। और बीमारी से तड़पती हुई मां थी । एक पिता थे जिनके माथे पर चिंता की रेखाएं गहरी होती जाती थीं। मेरे भाई बहन थे जिनके लिए मुझे भात और रोटी बनाना सीखना था।

नादानियों का समय कहीं बहुत पीछे छूट गया था। जिसको पाने के लिए सालों साल हमने कैलेंडर के पन्ने रंगे थे। और  शब्दों  के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत हो रही थी। हलांकि शब्द कम थे और हमारी भूख उससे कहीं बहुत ज्यादा। शब्दों के बदले हमें रोटियां खानी पड़तीं। रोटियों के बदले हमें कुछ भी हासिल नहीं था।

हम बदल रहे थे। लेकिन हमें उस बदलाव की जानकारी नहीं थी। सचमुच हम उस समय अनपढ़ थे और गंवार। हमें अंग्रेजी की एबीसीडी नहीं आती थी। और उन साथियों से हम रश्क करते थे जो अंग्रजी में बिना रूके कविताएं पढ़ते जाते थे।

कुल मिलाकार हमारे पास वे गीत थे जो हम अपने गांव से लेकर आए थे। समृतियां थीं जिनके लिए हम रात-दिन तड़पते रहते थे।


चार
21 अगस्त, 2012
पहली-दूसरी -तीसरी कविताओं से होते हुए असंख्य कविताओं तक का सफर जारी हुआ। लेकिन यह बहुत बाद की बात है। इसके पेश्तर  रामनरेश त्रिपाठी की प्रार्थना, मैथेलीशऱण गुप्त की गौरव भरी कविताएं - इससे ज्यादा क्या था मेरे पास। एक सत्यनारायण लाल थे जिनका नाम बार-बार पढ़ने में आता था। 

हमने नहीं जाना कभी तब कि कार्टून की किताबें होती हैं। चंदा मामा जैसी किताबें होती हैं, जिन्हें बच्चे पढ़ते हैं। हमारे पास जो किताबें थीं वे कक्षा के लिए जरूरी थीं। आलावा इसके हनुमान चालिसा, सत्यनारायण व्रत कथा जैसी किताबें। एक किताब और थी जिसका जिक्र मैं बार-बार करता हूं - वह थी रामचरित मानस। 

समय-समय पर गीत गवनई और उसमें गाए जाने वाले रामायण और महाभारत के प्रसंग थे। विदेसिया नाच था और उसमें नाचने वाले लौंडों के द्वारा विरह के गाए हुए गीत थे, जोकर था जो अपनी अदाओं से हंसाता था। सत्ती ब्हुला का नाटक था, रानी सारंगा और सदावृक्ष जैसी किताबें थीं जिसे लय में हम बहनों के साथ गाया करते थे। गांव में हर समय गूंजने वाले मेहररूई गीत थे - गीत में पीड़ा थी, हंसी थी और वह सबकुछ था  और तब हमारा मन इन्हीं सबको जीवन समझता था।

कविता कहां थी।  हरिजन बस्तियों में गाये जाने वाली सिनरैनी थी जिसमें  रविदास के पद गाए जाते थे। तब रविदास का पता नहीं था कि कौन थे। कबीर की उक्तियां थीं जिन्हें हम साधु-संत समझते थे। गोरखपंथी साधुओं द्वारा सारंगी पर गाए हुए गीत थे जिन्हें सुनते हुए मैं पूरे दिन गांव-गांव भटकता रहता था।  

आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि इन्ही सब चीजों के बीच चुपके से कविता मेरे अंदर कहीं प्रवेश कर रही थी। और मैं उससे अनजान आपने में मगन एक ऐसी यात्रा कर रहा था जिसकी पगडंडियां यहां तक आती थीं जहां मैं खड़ा हूं। 

आज मन में यह प्रश्न लिए कि कहां खड़ा हूं मैं !!


Friday, November 23, 2012

विमल चंद्र पाण्डेय का उपन्यास : नवीं किश्त





(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है नवीं  किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)




16.

शुक्लाइन ने आजकल दर्शन करने जाने का समय बदल दिया था। अब वह सुबह प्राय: न जाकर शाम को तब जातीं जब शुक्ला जी कॉलेज से आ जाते थे। उनको लगने लगा था कि घर में कुछ गड़बड़ चल रही है और इस गड़बड़ी का वक़्त वही चुना जाता है जब वह लड़कियों को छोड़कर दर्शन करने जाती हैं। शाम को जैसे ही वह गंभीरी बीर से दर्शन करके घर में पहुंची तो उन्होंने पाया कि शुक्लाजी बिस्तर पर अधलेटे इंडिया टीवी पर पानी पर चलने वाले किसी बाबा के दर्शन कर रहे हैं और दोनों लड़कियां घर से ग़ायब हैं।
´´कहां गइली स  सवितवा आ अनुआ...।´´ उन्होनें शुक्लाजी से पूछा। शुक्लाजी ने एक नज़र उन पर डाली और एक नज़र उनके हाथ में पकड़े प्रसाद पर और पुन: बाबा दशZन में व्यस्त हो गये।
´´दोनों मोड़ वाले मंदिर में गयी हैं कीर्तन में....।´´
शुक्लाइन विचलित नज़र आने लगीं।
´´आपसे कहले बानीं कि ना निकले दिहल जाला उन्हनीं के हमरी बिना अइले...। काहें जाये दिहनीं ह ?´´
´´अरे हद करती हो। हमको क्या मूर्ख समझती हो ? श्रीवास्तव जी की पत्नी आयी थी उनको बुलाने तो उनके साथ जाने दिये हैं। हम क्या अकेले भेजे देंगे....?´´ शुक्लाजी थोड़े झुंझला गये।
´´अरे सिरीवास्तव के मेहररुआ त खुदे हरामी ह.....। ओकरी प हमरा कब्बो विस्वास ना होला। रूकीं हम जातानी ले के आवे उन्हनीं के....।´´
शुक्ला जी तो रुके ही थे। उन्होंने शुक्लाइन को जिस नज़र से देखा उसका अर्थ था कि अनपढ़ औरत से शादी करके उन्होंने अपने जीवन की शांति भंग कर ली है। शुक्लाइन जैसे ही घर से निकलीं, शेरसिंह पूंछ हिलाते हुये उनके पीछे हो लिये।
´´हटीं जायीं आप भीत्तर। जब ऊ दुन्नों गइली ह  स त  का करत रहनीं हां आप...?´´ शुक्लाइन ने उन्हें दुत्कारा तो उन्हें याद आया कि वे इस घर के लोकल गार्जियन हैं और उन्हें वाकई इस बात पर खुद पर ग़ुस्सा आया कि उनसे लापरवाही हो गयी है। उनकी पूंछ की गति धीमी हो गयी। फिर भी वे मालकिन के शुक्रगुज़ार हुये क्योंकि उन्होंने अपने साथ आने की अनुमति दे दी।
            शुक्लाइन जैसे ही मंदिर वाले मोड़ पर पहुंची, उन्होंने देखा कि मंदिर पर भक्तों की खूब भीड़ लगी है और दो बड़े-बड़े साउंड बॉक्स लगा कर ´बीड़ी जलाइले जिगर से पिया´ की तर्ज़ पर एक भजन ´मुण्डी झुकाइले देवी के यहां´ तेज़ आवाज़ में बज रहा था। शुक्लाइन को अपनी याद्दाश्त पर कोफ़्त हुयी क्योंकि उन्हें याद आ गया कि आज जागरण है और उन्हें भी बुलाया गया था क्योंकि उन्होंने भी चंदा दिया था। देवी का गीत सुनकर उनका सिर श्रद्धा से झुक गया और उनका ध्यान अपनी बेटियों से हट कर देवी की तरफ़ हो गया था। उन्होंने देखा की लड़कियां और महिलाओं का झुण्ड एक तरफ़ बैठा था और लड़कों और आदमियों की ग्रुपिंग दूसरी तरफ़ थी। वातावरण पूरी तरह भक्तिमय दिखायी दे रहा था। शुक्लाइन जैसे ही मंदिर के पास पहुंची, उनकी कई भक्तिमय सहेलियों ने उन्हें स्वागतभाव से ग्रहण किया और एक अच्छी जगह पर बिठाया। उनकी नज़र अपनी बेटियों पर पड़ी जो अपनी आंखें बंद किये ताली बजा रही थीं और उनके चेहरों पर अपूर्व शान्ति थी। शुक्लाइन को अपनी बेटियों पर गर्व महसूस हुआ और उन्हें इस बात पर खेद भी हुआ कि उन्होंने अपनी बेटियों पर बेकार में शक किया। श्रीवास्तव जी की पत्नी भी थोड़ी दूरी पर बैठी माता के भजन में पूरी तरह रमी थीं। इतनी कि उन्होंने शुक्लाइन को देखा तक नहीं। उनके चेहरे के भाव देख कर स्पश्ट था कि अब उनके और माता के बीच बहुत कम दूरी बची है और वे इसे जल्दी ही पार कर लेंगी। शुक्लाइन के मन में पूरी तरह से भक्ति भावनाओं ने क़ब्ज़ा कर लिया था और वे भी भजन की धुन पर आंखें बंद कर झूमने लगी थीं। भजन के बोल बदल गये थे और अब ´आशिक बनाया आपने´ की तर्ज़ पर ´भक्त है आया द्वार पे´ बज रहा था। वहां मौजूद लड़कों के दिमाग में असली गाने का वीडियो ताज़ा था और न चाहते हुये भी नाच जा रहा था।
            कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं। जागरण का सीधा और सहज अर्थ था कि घर की औरतें जल्दी खाना बनाकर अपने-अपने पतियों को खिला देंगी और सीधा जागरण में आ जाएंगी। पति का अगर भक्ति या दूसरों की पत्नियों को झांकने में झुकाव हुआ तो वह भी पत्नी के आने के बाद अपने नर पड़ोसियों के साथ पीछे से आयेगा और उपरोक्त दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त करेगा। महिलाएं चाहे जितनी भी उम्र की हों, मादा होने के रिश्ते से एक तरफ़ बैठेंगीं और नर एक तरफ़। जागरण के समय दीन दुनिया से मतलब न रखने वाले लड़के भी अचानक भक्त हो जाते और जल्दी खाना खाकर अपनी मांओं के साथ (ग़ौर करें पिताओं के साथ नहीं) जागरण स्थल पर पहुंच जाते। यह उनके लिये अपनी अधूरी कहानियों को पूरा करने का सबसे उपयुक्त समय होता था जिसमें मां की मर्ज़ी  भी मिली होती थी। लड़कियां और युवा (कुछ प्रौढ़ भी) महिलाएं इस तरह सज संवर कर जागरण में आतीं जैसे किसी क़रीबी की शादी हो। लड़कियां और लड़के (जिनका मामला सेट होता था) दोनों ही अपने-अपने प्रिय पर नज़र रखते और नये खिलाड़ी अपने लिये कोई शिकार फांसने की गरज़ से रात भर मुस्तैदी दिखाते रहते। अधेड़ वय कि महिलाओं को लाउडस्पीकर के शोर में भी अपनी बात कहने और दूसरों की बातें सुनने में महारत हासिल थी और जागरण के दिन पूरी कॉलोनी के लोगों का हिसाब-किताब किया जाता। औरतों के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि उन्हें इस रात पूरी कॉलोनी की ख़्ाबरों की जानकारी हो जाती थी और उनका सामान्य ज्ञान एक ही रात में अभूतपूर्व रूप से बढ़ जाता था। कुछ बूढ़े किशोर लड़कों और लड़कियों को अपने क़रीब ले आने की जुगत भिड़ाते तो कुछ बूढ़े झुण्ड बना कर अपने-अपने बेटे और बहुओं की तारीफ़ें और िशकायतें करते। कुछ जागरूक बूढ़े भी थे जो रात भर इस बात पर चर्चा करते कि इस बार भाजपा की सीट बढ़ेगी, वह उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी और सपा का पत्ता साफ़ हो जाएगा। लड़के और लड़कियों में इस जागरण को लेकर सबसे अधिक उत्साह रहता था। कई प्रेम कहानियां थीं जो देवी की कृपा से जागरण से ही शुरू हुयी थीं। बच्चों के लिये सिफ़Z यह ख़्ाुशी की बात होती थी कि वे अपने मनपसंद दोस्तों के साथ जब तक जी चाहे तब तक खेल सकते थे क्योंकि उन्हें रोकने वाले कीर्तन में व्यस्त हुआ करते थे और देर रात तक खेलने की कोई पाबंदी नहीं होती थी क्योंकि अगले दिन स्कूल की छुट्टी मारनी होती थी।
            शुक्लाइन ने चारों तरफ़ देख लिया था। उन्हें यह देख कर ख़्ाुशी हुयी कि उनकी बालकंनी के सामने वाले कमरे में रहने वाला वह आवारा लड़का कहीं दिखायी नहीं दिया था। उन्होंने मां को धन्यवाद दिया और ज़ोर-ज़ोर से भजन की धुन पर झूमने लगीं जो अब बदल कर ´कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना´ की तर्ज पर ´मेरी मइया मेरी मइया, तेरे चरणों में मुझको रहना´ हो गया था।
´´चतुर्वेदी के घर में कल क्या हुआ था \´´ उनके बगल में बैठी ठकुराइन ने भले ही धीमी आवाज़ में पूछा हो, शुक्लाइन ने सुन लिया था। उनको कुछ उड़ती-उड़ती ख़्ाबर तो मिली थी लेकिन कुछ विस्तार में पता नहीं चल पाया था। उन्होंने तुक्का मार दिया।
´´पता नहीं ठीक से तो नहीं मालूम लेकिन किसी लड़की को छेड़ रहा था चतुर्वेदी।´´
उनकी दूसरी तरफ़ बैठी दरोगाइन ने धीरे से बात में संशोधन किया।
´´अरे ऊ नहीं छेड़ रहा था। श्रीवस्तउआ की लड़किया खुदे गई थी। उसकी जवानी में आग लगी थी। ऊ सोची कि किसी लौंडे लपाड़े के चक्कर में पड़ेंगे तो फंस न जायं इसलिये बुढ़वे से रगड़वाने गई थी।´´
´´अच्छा...\´´ शुकलाइन के साथ-साथ ठकुराइन भी आश्चर्य में थीं।
´´अउर का...उसका चाल-ढाल सुरुए से अच्छा नहीं है।´´ दरोगाइन ने कह तो दिया लेकिन उस लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालने में उन्हें पूरी तरह से मज़ा नहीं आया, उन्हें लगा मामला बराबरी का होना चाहिये तो वह धीरे से लड़की की मां पर िशफ्ट हो गयीं। ``अउर तो अउर उसकी माई ये मिलने आता है एक ठो आदमी जेको ऊ कहती है कि ऊ बीमा करने आता है लेकिन हम जानते हैं कि कउन-कउन चीज का बीमा ऊ करता है आ कब-कब...\´´ दरोगाइन ने आत्मविश्वास भरे शब्द में कहा तो शुक्लाइन और ठकुराइन के साथ आसपास की कुछ और महिलाएं भी चौकन्नी हो गयी थीं। जनरल नॉलेज बढ़ाने की कक्षा शुरू हो चुकी थी और सभी महिलाएं इसमें अपनी भागीदारी को लेकर चौकस थीं और किसी भी क़ीमत पर इसे बढ़ाना चाहती थीं।
शेरसिंह को वहां कई कुत्तों का साथ मिल गया था और कॉलोनी के आवारा कुत्ते उन्हें समझा रहे थे कि वे जिस चीज़ के गुमान में रहते हैं और कॉलोनी के कुत्तों को आवारा समझ कर भाव नहीं देते वह दरअसल धोखा है। उन्हें शुक्लाजी के घर में एक साज़िश के तहत आदमी बना कर रखा गया है जो दरअसल देखने में छोटी बात लगती है लेकिन पूरी कुत्ता बिरादरी का अपमान और मुंह पर तमाचा है। शेरसिंह कॉलोनी के खुले वातावरण में कुलांचे भर रहे थे और यह उन्हें यह सोचकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था कि इस तरह आज़ाद रह सकते हैं। कुछ कुत्तों ने जो दरअसल ´कॉलोनी कुत्ता संघ´ से ताल्लुक रखते थे, उन्हें भड़काया कि वे जल्द से जल्द शुक्ला जी का घर छोड़ें और आज़ाद हो जाएं। ये कुत्ते पूरी कॉलोनी में दिन रात छुट्टा घूमते रहते थे और यहां जब तब चोरियां हो जाया करती थीं। कुत्ते संगीत प्रेमी थे और इनका पूरा ध्यान अपनी संख्या बढ़ाने में रहता था। ये रात को दो या तीन समूहों में बंटकर कॉलोनी के चारों तरफ़ फैल जाते थे और संगीत का दंगल खेलते। एक समूह कॉलोनी के एक कोने से एक शेर में सवाल पूछता जिसका जवाब दूसरा समूह संगीतमय प्रस्तुति के साथ देता। कॉलोनी के निवासी इस बात पर आश्चर्य करते कि इतने कुत्तों के होने के बावजूद यहां चोरियां कैसे हो जाती हैं और कुत्ते इतने ख़्ाामोश रहते हैं। कुत्ते दरअसल इसलिये चुप रहते थे कि घर भी कॉलोनी का और चोर भी कॉलोनी का तो वे अंदरूनी मामलों में टांग कैसे अड़ाएं। एकाध बार चिल्लाने का उनका अनुभव बेहद ख़्ाराब रहा था और अब वे अपने काम से काम रखते थे। एकाध कुत्ते जो किसी सामान्य इंसान के घर के पालतू थे (ब्राह्मण के घर नहीं) उन्हें खाने में अक्सर मांस के टुकड़े भी मिल जाया करते थे जिसके बारे में शेरसिंह ने सिफ़Z सुना ही था। कुत्तों ने समझ लिया था कि शेरसिंह को इसी बात पर तोड़ा जा सकता है कि मांस नाम की एक चीज़ होती है जिसे अगर किसी कुत्ते ने यह नहीं चखा तो उसके कुत्ते होने और ब्राह्मण होने में कोई ख़्ाास फ़र्क़ नहीं है। शेरसिंह सभी कुत्तों की बातें सुनकर किन्वंस हो रहे थे कि शुक्लाइन ने उन्हें हाथ हिलाकर घर जाने का इशारा किया।
´´देखा नौकरों से बुरा बर्ताव होता है तुम्हारे साथ.....\´´ संघ के महामंत्री ने उन्हें भड़काने की कोिशश की।
´´लेकिन यहां तुम लोग मुझे तुम-तुम कह रहे हो जबकि वहां मुझसे मालिक भी आप कह कर बात करते हैं।
´´यही तो साज़िश है कुत्तों को बस में करने की। मालिक लोग समझते हैं कि हमें प्यार पाने की आदत तो है नहीं। जिसे देखो कुत्ता कह कर दुरदुराता रहता है तो हम थोड़ा सा प्यार पाकर बेवकूफ़ बन जाएंगे। लेकिन हम कुत्ते ज़रूर हैं मूर्ख नहीं....।´´
´कॉलोनी कुत्ता संघ´ के निर्विरोध निर्वाचित अध्यक्ष सबसे ख़्ातरनाक और कटहे कुत्ते ने शेरसिंह को तोड़ने का मौका लपक लिया।
´´देखो बेटा, आज़ादी से बड़ी चीज़ कोई नहीं है। आज़ाद रहोगे तो यहीं फाटक पर चिकन मटन की दुकान है, हफ़्ते में दो दिन तुम्हारी ड्यूटी वहां लगा देंगे, जम के चिकन मटन खाना और मस्त रहना। आज़ाद रहो। आज़ादी ज़िंदाबाद।´´
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ सभी कुत्तो ने नारा लगाया।
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ शेरसिंह ने भी नारा लगाया। सबकी बातों ने उन पर गहरा असर किया था। अचानक कीर्तन कर रहे दो तीन लड़के उठे और ज़मीन से कोई अदृश्य पत्थर उठाने का अभिनय करते हुये कुत्तों को भगाना चाहा।
´´भाग साले तेरी मां की.....दुर दुर।´´
´´ई कुत्तवन काहे चिल्ला रहे हैं....दुर दुर दुर....।´´
शुक्लाइन ने भी पलट कर देखा और शेरसिंह को अब तक वहां मौजूद पाकर गुस्से में उन्हें घर जाने का इशारा किया।
कुत्ते भाग कर थोड़ी दूर आ गये और वहां से भौंकने लगे। थोड़ी देर भौंकने की औपचारिकता के बाद सब शेरसिंह की तरफ़ पलटे।
´´देखा हमारी इज़्ज़त....\ कोई भी कभी भी कैसी भी गाली दे देता है। हम कुत्ते हैं सरकार थोड़े ही हैं। इस प्रवृत्ति को समाज से दूर करने के लिये सभी कुत्तों को एकजुट होना होगा। कोई कुत्ता आदमियों के बनाये जाल और दूध रोटी में न फंसे। कुत्ता एकता ज़िंदाबाद....।´´ अध्यक्ष ने कुत्तों में एक अजीब से जोश भर दिया था।
´´ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद...।´´ सबने समवेत स्वर में कहा।
´´ज़िंदाबाद...।´´ शेरसिंह भी चिल्लाये और वहां से घर की ओर चल पड़े।
´´जल्द से जल्द ठोस फ़ैसला करो दोस्त अपने बारे में....।´´ महामंत्री ने सलाह दी। शेरसिंह ने सहमति में सिर हिला दिया। जाते वक़्त एक बार उन्होंने सविता की ओर देखा। उसका चेहरा निश्छल नज़र आ रहा था और वह कीर्तन करने में व्यस्त थी। उन्होंने मन मे ंसोचा कि कोई कुछ छोड़ना भी चाहे तो छोड़ना आसान थोड़े ही होता है।

विमल चंद्र पाण्डेय का उपन्यास : नवीं किश्त





(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है नवीं  किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)




16.

शुक्लाइन ने आजकल दर्शन करने जाने का समय बदल दिया था। अब वह सुबह प्राय: न जाकर शाम को तब जातीं जब शुक्ला जी कॉलेज से आ जाते थे। उनको लगने लगा था कि घर में कुछ गड़बड़ चल रही है और इस गड़बड़ी का वक़्त वही चुना जाता है जब वह लड़कियों को छोड़कर दर्शन करने जाती हैं। शाम को जैसे ही वह गंभीरी बीर से दर्शन करके घर में पहुंची तो उन्होंने पाया कि शुक्लाजी बिस्तर पर अधलेटे इंडिया टीवी पर पानी पर चलने वाले किसी बाबा के दर्शन कर रहे हैं और दोनों लड़कियां घर से ग़ायब हैं।
´´कहां गइली स  सवितवा आ अनुआ...।´´ उन्होनें शुक्लाजी से पूछा। शुक्लाजी ने एक नज़र उन पर डाली और एक नज़र उनके हाथ में पकड़े प्रसाद पर और पुन: बाबा दशZन में व्यस्त हो गये।
´´दोनों मोड़ वाले मंदिर में गयी हैं कीर्तन में....।´´
शुक्लाइन विचलित नज़र आने लगीं।
´´आपसे कहले बानीं कि ना निकले दिहल जाला उन्हनीं के हमरी बिना अइले...। काहें जाये दिहनीं ह ?´´
´´अरे हद करती हो। हमको क्या मूर्ख समझती हो ? श्रीवास्तव जी की पत्नी आयी थी उनको बुलाने तो उनके साथ जाने दिये हैं। हम क्या अकेले भेजे देंगे....?´´ शुक्लाजी थोड़े झुंझला गये।
´´अरे सिरीवास्तव के मेहररुआ त खुदे हरामी ह.....। ओकरी प हमरा कब्बो विस्वास ना होला। रूकीं हम जातानी ले के आवे उन्हनीं के....।´´
शुक्ला जी तो रुके ही थे। उन्होंने शुक्लाइन को जिस नज़र से देखा उसका अर्थ था कि अनपढ़ औरत से शादी करके उन्होंने अपने जीवन की शांति भंग कर ली है। शुक्लाइन जैसे ही घर से निकलीं, शेरसिंह पूंछ हिलाते हुये उनके पीछे हो लिये।
´´हटीं जायीं आप भीत्तर। जब ऊ दुन्नों गइली ह  स त  का करत रहनीं हां आप...?´´ शुक्लाइन ने उन्हें दुत्कारा तो उन्हें याद आया कि वे इस घर के लोकल गार्जियन हैं और उन्हें वाकई इस बात पर खुद पर ग़ुस्सा आया कि उनसे लापरवाही हो गयी है। उनकी पूंछ की गति धीमी हो गयी। फिर भी वे मालकिन के शुक्रगुज़ार हुये क्योंकि उन्होंने अपने साथ आने की अनुमति दे दी।
            शुक्लाइन जैसे ही मंदिर वाले मोड़ पर पहुंची, उन्होंने देखा कि मंदिर पर भक्तों की खूब भीड़ लगी है और दो बड़े-बड़े साउंड बॉक्स लगा कर ´बीड़ी जलाइले जिगर से पिया´ की तर्ज़ पर एक भजन ´मुण्डी झुकाइले देवी के यहां´ तेज़ आवाज़ में बज रहा था। शुक्लाइन को अपनी याद्दाश्त पर कोफ़्त हुयी क्योंकि उन्हें याद आ गया कि आज जागरण है और उन्हें भी बुलाया गया था क्योंकि उन्होंने भी चंदा दिया था। देवी का गीत सुनकर उनका सिर श्रद्धा से झुक गया और उनका ध्यान अपनी बेटियों से हट कर देवी की तरफ़ हो गया था। उन्होंने देखा की लड़कियां और महिलाओं का झुण्ड एक तरफ़ बैठा था और लड़कों और आदमियों की ग्रुपिंग दूसरी तरफ़ थी। वातावरण पूरी तरह भक्तिमय दिखायी दे रहा था। शुक्लाइन जैसे ही मंदिर के पास पहुंची, उनकी कई भक्तिमय सहेलियों ने उन्हें स्वागतभाव से ग्रहण किया और एक अच्छी जगह पर बिठाया। उनकी नज़र अपनी बेटियों पर पड़ी जो अपनी आंखें बंद किये ताली बजा रही थीं और उनके चेहरों पर अपूर्व शान्ति थी। शुक्लाइन को अपनी बेटियों पर गर्व महसूस हुआ और उन्हें इस बात पर खेद भी हुआ कि उन्होंने अपनी बेटियों पर बेकार में शक किया। श्रीवास्तव जी की पत्नी भी थोड़ी दूरी पर बैठी माता के भजन में पूरी तरह रमी थीं। इतनी कि उन्होंने शुक्लाइन को देखा तक नहीं। उनके चेहरे के भाव देख कर स्पश्ट था कि अब उनके और माता के बीच बहुत कम दूरी बची है और वे इसे जल्दी ही पार कर लेंगी। शुक्लाइन के मन में पूरी तरह से भक्ति भावनाओं ने क़ब्ज़ा कर लिया था और वे भी भजन की धुन पर आंखें बंद कर झूमने लगी थीं। भजन के बोल बदल गये थे और अब ´आशिक बनाया आपने´ की तर्ज़ पर ´भक्त है आया द्वार पे´ बज रहा था। वहां मौजूद लड़कों के दिमाग में असली गाने का वीडियो ताज़ा था और न चाहते हुये भी नाच जा रहा था।
            कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं। जागरण का सीधा और सहज अर्थ था कि घर की औरतें जल्दी खाना बनाकर अपने-अपने पतियों को खिला देंगी और सीधा जागरण में आ जाएंगी। पति का अगर भक्ति या दूसरों की पत्नियों को झांकने में झुकाव हुआ तो वह भी पत्नी के आने के बाद अपने नर पड़ोसियों के साथ पीछे से आयेगा और उपरोक्त दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त करेगा। महिलाएं चाहे जितनी भी उम्र की हों, मादा होने के रिश्ते से एक तरफ़ बैठेंगीं और नर एक तरफ़। जागरण के समय दीन दुनिया से मतलब न रखने वाले लड़के भी अचानक भक्त हो जाते और जल्दी खाना खाकर अपनी मांओं के साथ (ग़ौर करें पिताओं के साथ नहीं) जागरण स्थल पर पहुंच जाते। यह उनके लिये अपनी अधूरी कहानियों को पूरा करने का सबसे उपयुक्त समय होता था जिसमें मां की मर्ज़ी  भी मिली होती थी। लड़कियां और युवा (कुछ प्रौढ़ भी) महिलाएं इस तरह सज संवर कर जागरण में आतीं जैसे किसी क़रीबी की शादी हो। लड़कियां और लड़के (जिनका मामला सेट होता था) दोनों ही अपने-अपने प्रिय पर नज़र रखते और नये खिलाड़ी अपने लिये कोई शिकार फांसने की गरज़ से रात भर मुस्तैदी दिखाते रहते। अधेड़ वय कि महिलाओं को लाउडस्पीकर के शोर में भी अपनी बात कहने और दूसरों की बातें सुनने में महारत हासिल थी और जागरण के दिन पूरी कॉलोनी के लोगों का हिसाब-किताब किया जाता। औरतों के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि उन्हें इस रात पूरी कॉलोनी की ख़्ाबरों की जानकारी हो जाती थी और उनका सामान्य ज्ञान एक ही रात में अभूतपूर्व रूप से बढ़ जाता था। कुछ बूढ़े किशोर लड़कों और लड़कियों को अपने क़रीब ले आने की जुगत भिड़ाते तो कुछ बूढ़े झुण्ड बना कर अपने-अपने बेटे और बहुओं की तारीफ़ें और िशकायतें करते। कुछ जागरूक बूढ़े भी थे जो रात भर इस बात पर चर्चा करते कि इस बार भाजपा की सीट बढ़ेगी, वह उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी और सपा का पत्ता साफ़ हो जाएगा। लड़के और लड़कियों में इस जागरण को लेकर सबसे अधिक उत्साह रहता था। कई प्रेम कहानियां थीं जो देवी की कृपा से जागरण से ही शुरू हुयी थीं। बच्चों के लिये सिफ़Z यह ख़्ाुशी की बात होती थी कि वे अपने मनपसंद दोस्तों के साथ जब तक जी चाहे तब तक खेल सकते थे क्योंकि उन्हें रोकने वाले कीर्तन में व्यस्त हुआ करते थे और देर रात तक खेलने की कोई पाबंदी नहीं होती थी क्योंकि अगले दिन स्कूल की छुट्टी मारनी होती थी।
            शुक्लाइन ने चारों तरफ़ देख लिया था। उन्हें यह देख कर ख़्ाुशी हुयी कि उनकी बालकंनी के सामने वाले कमरे में रहने वाला वह आवारा लड़का कहीं दिखायी नहीं दिया था। उन्होंने मां को धन्यवाद दिया और ज़ोर-ज़ोर से भजन की धुन पर झूमने लगीं जो अब बदल कर ´कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना´ की तर्ज पर ´मेरी मइया मेरी मइया, तेरे चरणों में मुझको रहना´ हो गया था।
´´चतुर्वेदी के घर में कल क्या हुआ था \´´ उनके बगल में बैठी ठकुराइन ने भले ही धीमी आवाज़ में पूछा हो, शुक्लाइन ने सुन लिया था। उनको कुछ उड़ती-उड़ती ख़्ाबर तो मिली थी लेकिन कुछ विस्तार में पता नहीं चल पाया था। उन्होंने तुक्का मार दिया।
´´पता नहीं ठीक से तो नहीं मालूम लेकिन किसी लड़की को छेड़ रहा था चतुर्वेदी।´´
उनकी दूसरी तरफ़ बैठी दरोगाइन ने धीरे से बात में संशोधन किया।
´´अरे ऊ नहीं छेड़ रहा था। श्रीवस्तउआ की लड़किया खुदे गई थी। उसकी जवानी में आग लगी थी। ऊ सोची कि किसी लौंडे लपाड़े के चक्कर में पड़ेंगे तो फंस न जायं इसलिये बुढ़वे से रगड़वाने गई थी।´´
´´अच्छा...\´´ शुकलाइन के साथ-साथ ठकुराइन भी आश्चर्य में थीं।
´´अउर का...उसका चाल-ढाल सुरुए से अच्छा नहीं है।´´ दरोगाइन ने कह तो दिया लेकिन उस लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालने में उन्हें पूरी तरह से मज़ा नहीं आया, उन्हें लगा मामला बराबरी का होना चाहिये तो वह धीरे से लड़की की मां पर िशफ्ट हो गयीं। ``अउर तो अउर उसकी माई ये मिलने आता है एक ठो आदमी जेको ऊ कहती है कि ऊ बीमा करने आता है लेकिन हम जानते हैं कि कउन-कउन चीज का बीमा ऊ करता है आ कब-कब...\´´ दरोगाइन ने आत्मविश्वास भरे शब्द में कहा तो शुक्लाइन और ठकुराइन के साथ आसपास की कुछ और महिलाएं भी चौकन्नी हो गयी थीं। जनरल नॉलेज बढ़ाने की कक्षा शुरू हो चुकी थी और सभी महिलाएं इसमें अपनी भागीदारी को लेकर चौकस थीं और किसी भी क़ीमत पर इसे बढ़ाना चाहती थीं।
शेरसिंह को वहां कई कुत्तों का साथ मिल गया था और कॉलोनी के आवारा कुत्ते उन्हें समझा रहे थे कि वे जिस चीज़ के गुमान में रहते हैं और कॉलोनी के कुत्तों को आवारा समझ कर भाव नहीं देते वह दरअसल धोखा है। उन्हें शुक्लाजी के घर में एक साज़िश के तहत आदमी बना कर रखा गया है जो दरअसल देखने में छोटी बात लगती है लेकिन पूरी कुत्ता बिरादरी का अपमान और मुंह पर तमाचा है। शेरसिंह कॉलोनी के खुले वातावरण में कुलांचे भर रहे थे और यह उन्हें यह सोचकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था कि इस तरह आज़ाद रह सकते हैं। कुछ कुत्तों ने जो दरअसल ´कॉलोनी कुत्ता संघ´ से ताल्लुक रखते थे, उन्हें भड़काया कि वे जल्द से जल्द शुक्ला जी का घर छोड़ें और आज़ाद हो जाएं। ये कुत्ते पूरी कॉलोनी में दिन रात छुट्टा घूमते रहते थे और यहां जब तब चोरियां हो जाया करती थीं। कुत्ते संगीत प्रेमी थे और इनका पूरा ध्यान अपनी संख्या बढ़ाने में रहता था। ये रात को दो या तीन समूहों में बंटकर कॉलोनी के चारों तरफ़ फैल जाते थे और संगीत का दंगल खेलते। एक समूह कॉलोनी के एक कोने से एक शेर में सवाल पूछता जिसका जवाब दूसरा समूह संगीतमय प्रस्तुति के साथ देता। कॉलोनी के निवासी इस बात पर आश्चर्य करते कि इतने कुत्तों के होने के बावजूद यहां चोरियां कैसे हो जाती हैं और कुत्ते इतने ख़्ाामोश रहते हैं। कुत्ते दरअसल इसलिये चुप रहते थे कि घर भी कॉलोनी का और चोर भी कॉलोनी का तो वे अंदरूनी मामलों में टांग कैसे अड़ाएं। एकाध बार चिल्लाने का उनका अनुभव बेहद ख़्ाराब रहा था और अब वे अपने काम से काम रखते थे। एकाध कुत्ते जो किसी सामान्य इंसान के घर के पालतू थे (ब्राह्मण के घर नहीं) उन्हें खाने में अक्सर मांस के टुकड़े भी मिल जाया करते थे जिसके बारे में शेरसिंह ने सिफ़Z सुना ही था। कुत्तों ने समझ लिया था कि शेरसिंह को इसी बात पर तोड़ा जा सकता है कि मांस नाम की एक चीज़ होती है जिसे अगर किसी कुत्ते ने यह नहीं चखा तो उसके कुत्ते होने और ब्राह्मण होने में कोई ख़्ाास फ़र्क़ नहीं है। शेरसिंह सभी कुत्तों की बातें सुनकर किन्वंस हो रहे थे कि शुक्लाइन ने उन्हें हाथ हिलाकर घर जाने का इशारा किया।
´´देखा नौकरों से बुरा बर्ताव होता है तुम्हारे साथ.....\´´ संघ के महामंत्री ने उन्हें भड़काने की कोिशश की।
´´लेकिन यहां तुम लोग मुझे तुम-तुम कह रहे हो जबकि वहां मुझसे मालिक भी आप कह कर बात करते हैं।
´´यही तो साज़िश है कुत्तों को बस में करने की। मालिक लोग समझते हैं कि हमें प्यार पाने की आदत तो है नहीं। जिसे देखो कुत्ता कह कर दुरदुराता रहता है तो हम थोड़ा सा प्यार पाकर बेवकूफ़ बन जाएंगे। लेकिन हम कुत्ते ज़रूर हैं मूर्ख नहीं....।´´
´कॉलोनी कुत्ता संघ´ के निर्विरोध निर्वाचित अध्यक्ष सबसे ख़्ातरनाक और कटहे कुत्ते ने शेरसिंह को तोड़ने का मौका लपक लिया।
´´देखो बेटा, आज़ादी से बड़ी चीज़ कोई नहीं है। आज़ाद रहोगे तो यहीं फाटक पर चिकन मटन की दुकान है, हफ़्ते में दो दिन तुम्हारी ड्यूटी वहां लगा देंगे, जम के चिकन मटन खाना और मस्त रहना। आज़ाद रहो। आज़ादी ज़िंदाबाद।´´
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ सभी कुत्तो ने नारा लगाया।
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ शेरसिंह ने भी नारा लगाया। सबकी बातों ने उन पर गहरा असर किया था। अचानक कीर्तन कर रहे दो तीन लड़के उठे और ज़मीन से कोई अदृश्य पत्थर उठाने का अभिनय करते हुये कुत्तों को भगाना चाहा।
´´भाग साले तेरी मां की.....दुर दुर।´´
´´ई कुत्तवन काहे चिल्ला रहे हैं....दुर दुर दुर....।´´
शुक्लाइन ने भी पलट कर देखा और शेरसिंह को अब तक वहां मौजूद पाकर गुस्से में उन्हें घर जाने का इशारा किया।
कुत्ते भाग कर थोड़ी दूर आ गये और वहां से भौंकने लगे। थोड़ी देर भौंकने की औपचारिकता के बाद सब शेरसिंह की तरफ़ पलटे।
´´देखा हमारी इज़्ज़त....\ कोई भी कभी भी कैसी भी गाली दे देता है। हम कुत्ते हैं सरकार थोड़े ही हैं। इस प्रवृत्ति को समाज से दूर करने के लिये सभी कुत्तों को एकजुट होना होगा। कोई कुत्ता आदमियों के बनाये जाल और दूध रोटी में न फंसे। कुत्ता एकता ज़िंदाबाद....।´´ अध्यक्ष ने कुत्तों में एक अजीब से जोश भर दिया था।
´´ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद...।´´ सबने समवेत स्वर में कहा।
´´ज़िंदाबाद...।´´ शेरसिंह भी चिल्लाये और वहां से घर की ओर चल पड़े।
´´जल्द से जल्द ठोस फ़ैसला करो दोस्त अपने बारे में....।´´ महामंत्री ने सलाह दी। शेरसिंह ने सहमति में सिर हिला दिया। जाते वक़्त एक बार उन्होंने सविता की ओर देखा। उसका चेहरा निश्छल नज़र आ रहा था और वह कीर्तन करने में व्यस्त थी। उन्होंने मन मे ंसोचा कि कोई कुछ छोड़ना भी चाहे तो छोड़ना आसान थोड़े ही होता है।