विमलेश त्रिपाठी अपनी बात कहने के लिए विधाओं के साथ आवाजाही करते
हैं, उसे अपना बनाते हैं, उसके साथ होते हैं इसलिए उन्हें सिर्फ़ कवि, कथालेखक में
हम नहीं समेट सकते. बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि विमलेश अंबरी नाम से गजल भी
लिखते हैं और भोजपुरी में लोक गायन भी करते हैं. विमलेश के इतने सारे रूपों के आखिर
उत्स क्या है ? कैसे वो संस्कृति के हर धरातल पर अपने पैर टिका देते है और वे
धरातल उनके इतने हमनवां हो जाते हैं कि हमारी आँखे धोखा खाने लगती हैं कि हम
विमलेश को कवि, कथाकर से पहचाने या उनके गायन और गजल से. लेकिन इन सब से जरूरी है
विमलेश के रचना उत्स को देखने की. उनकी सृजनात्मकता की पड़तलाड़ उनकी रचनाएं तो
कराती ही है लेकिन विमलेश बनने की बात उनके डायरी से ही शायद हो सकता है. इसलिए हम
“जनराह” पर उनके डायरी के अंशों को प्रस्तुत करते हुए हर्षित है कि हम उनके पड़ताल
के साझेदार हो रहे हैं. साथ ही विमलेश से
हम आशा करते है कि डायरी के और आगे के अंश भी हमें मिलता रहे.
एक गुमनाम लेखक की डायरी-1
20.08.2012, सोमवार, लिलुया
पंन्द्रह साल पहले की डायरी खो गई है। क्या
होगा उसमें की जिज्ञासा लिए पूरे घर में चहलकदमी करता हूं। कोने-कतरे
में ढूंढ़ता हूं अपने वे शब्द जो तब लिखे गए जब शब्दों की महिमा तक से मन अनजान
था। कुछ भी नहीं मिलता। कागज के टुकड़ों पर लिखी कुछ कविताएं मिलती हैं, जिन्हें
आज ठीक तरह कविता भी नहीं कह सकता। निराशा की एक झीनी चादर घर के फर्श पर ही बिछ
जाती है। मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं ताकि नई ऊर्जा से अपने छूट गए शब्दों की
तलाश कर सकूं।
वे ढेरों कविताएं याद आती हैं जिन्हें लिखते
हुए ऐसा नहीं सोचा कि ये कविताएं हैं कि कभी लोग इन्हें पढ़ेंगे। घर की
संवादहीनता। दोस्त-साथी के न होने की सूरत
में मैं अपनी बात वहीं कह सकता था। वहीं कहा मैंने। बिना यह सोचे कि कहने के बाद न
सांस लेने वाले कागज कुछ नहीं बोलेंगे, सह लेंगे मेरा सबकुछ कहा। अच्छा- बूरा,
हंसी-खुशी,
उदासी-रूलाई
सब सह लेंगे एकदम चुप।
वे कागज के टुकड़े जिन्होंने इतना साथ दिया,
उन्हें
भूलूं भी तो कैसे। वे छूट गए गांव की पगडंडियों की तरह याद आते हैं। उन रस्सियों
के झूले की तरह याद आते हैं जो नीम के पेड़ पर लटका छोड़ आए थे हम यहां इतनी दूर।
कोलकाता..।
यहां आकर एक सरकारी क्वार्टर में बंद हो गई थीं हमारी सांसें। कहीं कुछ भी नहीं।
अखबार नहीं। टी.वी. नहीं। सिर्फ हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें जो पढ़-पढ़कर
ऊब गए थे।
याद आती है वह नदी जिसकी देह पर लिखते थे उस
समय की सबसे खूबसूरत लड़की का नाम। उस पेड़ की याद आती है जिसमें खुदे थे ककहरा... और
कई ऐसी रेखाएं खुदी थी जिनके अर्थ सिर्फ हम ही जानते थे।
ऐसी कविताएं जो हमारी आत्मा पर लिखे थे समय ने।
हमारी देह पर स्कूल के मास्टरों ने। हमारे मन पर घर के बुजुर्गों ने। उन सबको लेकर
आए थे यहां इस महानगर में शब्दों को खोजने। पिता की नजरों में उन शब्दों को खोजने
जिनसे आदमी बनता है कोई एक। पर अपनी नजरों में हम उन शब्दों को खोज रहे थे जिनसे
आदमी को सचमुच के आदमी की शक्ल में ढलने में मदद मिलती है।
हम कोई विशिष्ट नहीं थे। हमें भी रोना आता था। कभी-कभी हंसते थे हम भी जोर-जोर। कोई एक पुराना लोक गीत जोर-जोर से गाकर सोचते थे कि हमारे सामने हजारों लोग खड़े हैं और हमारे गाने पर हो रहे हैं मोहित।
हम कोई विशिष्ट नहीं थे। हमें भी रोना आता था। कभी-कभी हंसते थे हम भी जोर-जोर। कोई एक पुराना लोक गीत जोर-जोर से गाकर सोचते थे कि हमारे सामने हजारों लोग खड़े हैं और हमारे गाने पर हो रहे हैं मोहित।
आज पता नहीं क्यों वह छुटा हुआ समय याद आ रहा
है। आइए रहते हैं साथ कुछ दिन। देखते परखते हैं। अपने गुमनामी पर हंसते
हैं कुछ लम्हा...। फिक्र को उड़ाते हैं गुब्बारे की तरह। आइए कि
फिर से जिंदा होते हैं कुछ लम्हा अपने होने के साथ....।
रात बहुत बूरे सपने आए।
पहली बार तो नहीं ही आए। अक्सर आते रहते हैं।
अब अच्छे सपने नहीं आते। बुरे ही आते हैं।
दो
26 अगस्त, 2012
बहुत जमाने पहले के एक समय में सपने हमारे लिए
सबसे अच्छे मनोरंजन के साधन थे। सुबह जब सब लोग द्वार पर इकट्ठे होते तो अपने-अपने
सपने सुनाते। सबके सपने सबलोग मनोयोग से सुनते थे। कई लोग जिन्हें सपने नहीं आते
थे उनका सपना सबसे अच्छा होता था। वे झूठ-मूठ सपने गढ़ लेते थे। सच्चे सपने झूठे सपने के
आगे फीके पड़ जाते। हमारा बच्चा मन झूठे सपनों पर विश्वास कर लेता। सपने झूठे होते
हैं, ये बाद में पता चला। रात में देखे गए और जागती ऑंखों से देखे गए सपने
में तफात होता है यह हमने बाद में जाना। जानना भी कई तरह से खतरनाक होता है,
इसे
भी जाना जब एक लड़की ने समझाया उस कविता का अर्थ जिसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने
लिखा था - कुछ
भी ठीक से जान लेना अपने आप से दुश्मनी ठान लेना है।
हमने पुराने जमाने के सपनों को एक-एक
कर मिटते-ढहते
देखा। हमारे सपने में परियां नहीं थी। महल नहीं थे। राजा-महाराजा के सपने नहीं थे। हमने ढेर
सारी पसंद की मिठाइयां खाने के सपने देखे। सिपाही की नौकरी और कुछ पैसे के
बाद मां पिता को तीरथ-वरत कराने के सपने देखे। हमने यह भी सपने में
देखा कि हमने जो आम का अमोला रोपा था, वह वृक्ष बन गया है, बड़ा
सा और उसमें ढेर सारी मंजरियां उग आई हैं। अमरूद का वह पेड़ जो कभी बड़ा नहीं हो
सका- वह
बड़ा हो चुका है और ओझा बाबा के यहां नाली से निकालकर और धोकर अमरूद खाने से हम बच
गए हैं। कि हमारे गांव तक आने वाली सड़क जो बरसात के दिनों में कीचड़ की वजह
से बंद हो जाती थी, वह अब पक्की की बन गई है और एक हरे रंग की
सायकिल पिता ने खरीद कर दिया है और हम सब उस सायकिल को बारी-बारी चला रहे हैं। सबसे तेज मैं सायकिल
चलाता हूं के सपने बार-बार रात में आते थे।
हमने कविताओं के सपने नहीं देखे। देवताओं के
सपने नहीं देखे। पता नहीं और कितनी जरूरी चीजों के सपने नहीं देखे। उन्हीं सपनों
के साथ एक दिन हमें कोलकाता लाया गया- यह तर्क देकर कि हम वहां गांव में नान्हों की
संगत में बिगड़ रहे हैं। यहां आकर हम एक कमरे में बंद हो गए।
तब हमारे सपने में रेलगाड़ी आती थी जो हमारे
गांव की ओर जाती थी। तब हमारे सपने में सपने सुनाने वाले गिरिजा, ददन,
सुरेश,
हीरालाल
और सुरजा सब आते। तब हम सपने में अपने गांव में होते।
आज का सपना बहुत बुरा था।
लेकिन क्या यह अचरज है कि मैं सपने में अपने गांव में था। मेरे सपने में कुछ लोग थे जो शहरी लगते थे, उनके हाथों में अत्याधुनिक ढंग के हथियार थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता। वे मेर पीछे पड़े हैं। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मेरे पिता मुझे बचाने के लिए मुझे कोनसिया घर में बंद कर चुके हैं। मैं अपने पुराने घर के खपड़े से होते हुए गांव की गली में कहीं खो जाता हूं। गांव की सारी गलियों के बारे में मुझे पता है। मैं भिखारी हरिजन के घर में हूं। उनकी अधेड़ पत्नी मुझे अपने हाथों से गुड़ की चाय पिला रही है।
लेकिन क्या यह अचरज है कि मैं सपने में अपने गांव में था। मेरे सपने में कुछ लोग थे जो शहरी लगते थे, उनके हाथों में अत्याधुनिक ढंग के हथियार थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता। वे मेर पीछे पड़े हैं। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मेरे पिता मुझे बचाने के लिए मुझे कोनसिया घर में बंद कर चुके हैं। मैं अपने पुराने घर के खपड़े से होते हुए गांव की गली में कहीं खो जाता हूं। गांव की सारी गलियों के बारे में मुझे पता है। मैं भिखारी हरिजन के घर में हूं। उनकी अधेड़ पत्नी मुझे अपने हाथों से गुड़ की चाय पिला रही है।
भागते समय मैं कुछ भी लेकर नहीं भागता। मेरे
हाथ में किताबें हैं। कुछ देर बाद देखता हूं कि मैं नदी के किनारे हूं और उस नदी
का नाम हुगली नदी है। मुझे एक आदमी मिलता है जो बोट चला रहा है, मुझे
उस पार जाना है, वहां उस पार मेरा एक घर है। मैं देखता हूं कि
वह बोट खेने वाला आदमी अचनाक पुलिस में बदल जाता है। वह मेरी किताबें छिनना
चाहता है। मैंने जो कविताएं लिखी हैं उसे छिनकर गंगा में बहा देना चाहता है।
मैं भागता हूं, बेतहासा और और
नदी में उतर जाता हूं। नदी में डूब्बी मारता हूं। और देखता हूं कि अपने गांव के
भागर में हूं। वहां मेरे बाबा खड़े हैं। ुनके हाथ में रामचरितमानस है। उनके
वस्त्र साधुओं की तरह है। उन्हें देककर उनके जिंदा होने पर मुझे अचरज होता है। मैं
देखता हूं कि मेरी किताबें भीग गई हैं। लिखे हुए अक्षर की सियाही पन्नों में फैल
गई है...।
मैं बाबा को प्रणाम भी नहीं करता और धूप-धूप चिल्लाते हुए आगे बढ़ जाता हूं...।
सुबह से यह सपना मुझे परेशान किए हुए है। मां
से कहा- मैंने
बुरा सपना देखा आज। मुझे मत कह मझला, पानी में जाकर कह। बुरे सपने पानी में
कहने से उनका दोष नष्ट हो जाता है।
मैं ऑफिस के रास्ते हुगली नदी को देखता हुआ
गुजर जाता हूं। हुगली नदी को प्रणाम करता हूं, अपना बुरा सपना
नहीं कहता। सोचता रह जाता हूं और पहली-दूसरी गाडी छोड़कर तीसरी गाड़ी में सवार हूं..।
घड़ी देखता हूं और सोचता हूं...- आज
फिर ऑफिस देर से पहुचूंगा।
तीन
21.08.2012, मंगलवार
पहली कविता जो याद रह गई मन में उसे कैसे याद
करूं - बहुत
दूर समय की गहराइयों में जाकर एक बच्चे से पूछता हूं तो वह कहता है - घूघुआ
मामा उपजे ले धान्हा। मैं उससे उसका अर्थ पूछता हूं तो वह लजाकर भाग जाता है। घर
के कोने से मुझे देखता हुआ जोर-जोर से चिल्लाता हुआ गाता है - कितना
पानी घोघो रानी।
मैं उन गीतों की अर्थ गहराईयों में खो जाता
हूं। मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे आजी की आवाजें घेर लेती हैं। वह गा
रही हैं मुझे अपने पैरों पर झूला झुलाते हुए - घुघुआ मामा उपजे ले धान्हा।
कविता से परिचय के पहले साधन ये ऐसे गीत बनते
हैं जिनके अर्थ मुझे अब तक नहीं मालूम। जिन गीतों के अर्थ मालूम हैं वो अब
समृतियों से गायब होते जा रहे हैं। वे तमाम गीत जो जांत चलाते हुए आजी और उनके साथ
की औरते गातीं थीं। सोहनी करते हुए निठाली बहु और उनकी सहेलियां गाती थीं। नीम के
झूले पर झूलती हुई गांव की लड़कियां गाती थीं। मचान पर जनेरा की बालियों की रखवाली
करते हुए भरत भाई गाते थे। या बाबा को रात में जब नींद नहीं आती थी तो कभी कभी वे
गुनगुनाते थे। मेरी नींद खुलती तो नींद में खलल डालती हुई अनेकों आवाजें मेरे कान
में गूंजती थीं। उन तमाम गीतों को याद करते हुए मैं उनके ऋण को महसूस कर रहा हूं
जो मेरी पीठ पर आज भी लदा है।
कविता में पहली बार प्रवेश करता हूं तो मेरे
सामने तितली-सूरज या ईश्वर और देश से ज्यादा कुछ
दिखाई नहीं पड़ता। कभी दूर देस से आती हुई कोई तितली अपने चंचल पंख हिलती है या
स्कूल में होने वाली प्रर्थना अगम अखिलेश हे स्वामी गूंजती-सरसराती
निकल जाती है।
मैं जब भी कोई कविता लिखने बैठता हूं मेरे
सामने कोई शब्द नहीं होता। किसी वाक्य संरचना की कोई भूमिका नहीं होती। बहुत दूर
समय के पार से आती हुई वे आवाजें होती हैं जो वर्तमान से टकरा कर एक नई धुन एक नई
तरह की पीड़ा की रचना करती हैं।
एक शब्द लिखने के पहले मुझे मेरे बाबा के पसीने
से भीगे हुए मटमैले कपड़े याद आते हैं। पिता की पसीने के दाग से धवल पड़ गई
सिपाही की वर्दी याद आती है। मां के पेट का दर्द याद आता है, जो
अब तक जारी है। मेरी वे बहनें याद आती हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं। मेरे बड़े भाई
याद आते हैं जिनसे बेहद प्यार करते हुए भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। रामचरित मानस
की वह फटी-पुरानी
पोथी याद आती है जो बिना दरवाजे के आलमारी में रखी जाती थी और कभी-कभी
गाय के गोबर के छींटे उसपर पड़ जाते थे।
मैंने उस पोथी से बहुत सारे शब्द सीखे। और कई-कई
बार उसे टिकुराई से सीता रहा। उसे बचाता रहा। और अंत में वहीं उसी आलमारी में
छोड़कर इस महानगर में चला आया। मुझे फिर कभी वह पोथी नहीं मिलनी थी। मुझे एक कमरे
में बंद हो जाना था और रोना था जी भर-भर अपने गांव की पगडंडियों खेतों और बाग-बगीचों
के लिए। मेरे पास दीवारें थीं जिनके चारों ओर अंधेरा था। और बीमारी से तड़पती हुई
मां थी । एक पिता थे जिनके माथे पर चिंता की रेखाएं गहरी होती जाती थीं। मेरे भाई
बहन थे जिनके लिए मुझे भात और रोटी बनाना सीखना था।
नादानियों का समय कहीं बहुत पीछे छूट गया था।
जिसको पाने के लिए सालों साल हमने कैलेंडर के पन्ने रंगे थे। और शब्दों
के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत हो रही थी। हलांकि शब्द कम थे और हमारी भूख
उससे कहीं बहुत ज्यादा। शब्दों के बदले हमें रोटियां खानी पड़तीं। रोटियों के बदले
हमें कुछ भी हासिल नहीं था।
हम बदल रहे थे। लेकिन हमें उस बदलाव की जानकारी
नहीं थी। सचमुच हम उस समय अनपढ़ थे और गंवार। हमें अंग्रेजी की एबीसीडी नहीं आती
थी। और उन साथियों से हम रश्क करते थे जो अंग्रजी में बिना रूके कविताएं पढ़ते
जाते थे।
कुल मिलाकार हमारे पास वे गीत थे जो हम अपने
गांव से लेकर आए थे। समृतियां थीं जिनके लिए हम रात-दिन तड़पते रहते थे।
चार
21 अगस्त, 2012
पहली-दूसरी -तीसरी कविताओं से होते हुए असंख्य कविताओं तक का
सफर जारी हुआ। लेकिन यह बहुत बाद की बात है। इसके पेश्तर रामनरेश त्रिपाठी
की प्रार्थना, मैथेलीशऱण गुप्त की गौरव भरी कविताएं - इससे
ज्यादा क्या था मेरे पास। एक सत्यनारायण लाल थे जिनका नाम बार-बार
पढ़ने में आता था।
हमने नहीं जाना कभी तब कि कार्टून की किताबें
होती हैं। चंदा मामा जैसी किताबें होती हैं, जिन्हें बच्चे
पढ़ते हैं। हमारे पास जो किताबें थीं वे कक्षा के लिए जरूरी थीं। आलावा इसके
हनुमान चालिसा, सत्यनारायण व्रत कथा जैसी किताबें। एक किताब और
थी जिसका जिक्र मैं बार-बार करता हूं - वह थी रामचरित मानस।
समय-समय पर गीत गवनई और उसमें गाए जाने वाले रामायण और महाभारत के प्रसंग थे। विदेसिया नाच था और उसमें नाचने वाले लौंडों के द्वारा विरह के गाए हुए गीत थे, जोकर था जो अपनी अदाओं से हंसाता था। सत्ती ब्हुला का नाटक था, रानी सारंगा और सदावृक्ष जैसी किताबें थीं जिसे लय में हम बहनों के साथ गाया करते थे। गांव में हर समय गूंजने वाले मेहररूई गीत थे - गीत में पीड़ा थी, हंसी थी और वह सबकुछ था और तब हमारा मन इन्हीं सबको जीवन समझता था।
कविता कहां थी। हरिजन बस्तियों में गाये
जाने वाली सिनरैनी थी जिसमें रविदास के पद गाए जाते थे। तब रविदास का पता
नहीं था कि कौन थे। कबीर की उक्तियां थीं जिन्हें हम साधु-संत समझते थे। गोरखपंथी साधुओं द्वारा
सारंगी पर गाए हुए गीत थे जिन्हें सुनते हुए मैं पूरे दिन गांव-गांव
भटकता रहता था।
आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि इन्ही सब चीजों
के बीच चुपके से कविता मेरे अंदर कहीं प्रवेश कर रही थी। और मैं उससे अनजान आपने
में मगन एक ऐसी यात्रा कर रहा था जिसकी पगडंडियां यहां तक आती थीं जहां मैं खड़ा
हूं।
आज मन में यह प्रश्न लिए कि कहां खड़ा हूं मैं !!