Friday, November 23, 2012

विमल चंद्र पाण्डेय का उपन्यास : नवीं किश्त





(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है नवीं  किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)




16.

शुक्लाइन ने आजकल दर्शन करने जाने का समय बदल दिया था। अब वह सुबह प्राय: न जाकर शाम को तब जातीं जब शुक्ला जी कॉलेज से आ जाते थे। उनको लगने लगा था कि घर में कुछ गड़बड़ चल रही है और इस गड़बड़ी का वक़्त वही चुना जाता है जब वह लड़कियों को छोड़कर दर्शन करने जाती हैं। शाम को जैसे ही वह गंभीरी बीर से दर्शन करके घर में पहुंची तो उन्होंने पाया कि शुक्लाजी बिस्तर पर अधलेटे इंडिया टीवी पर पानी पर चलने वाले किसी बाबा के दर्शन कर रहे हैं और दोनों लड़कियां घर से ग़ायब हैं।
´´कहां गइली स  सवितवा आ अनुआ...।´´ उन्होनें शुक्लाजी से पूछा। शुक्लाजी ने एक नज़र उन पर डाली और एक नज़र उनके हाथ में पकड़े प्रसाद पर और पुन: बाबा दशZन में व्यस्त हो गये।
´´दोनों मोड़ वाले मंदिर में गयी हैं कीर्तन में....।´´
शुक्लाइन विचलित नज़र आने लगीं।
´´आपसे कहले बानीं कि ना निकले दिहल जाला उन्हनीं के हमरी बिना अइले...। काहें जाये दिहनीं ह ?´´
´´अरे हद करती हो। हमको क्या मूर्ख समझती हो ? श्रीवास्तव जी की पत्नी आयी थी उनको बुलाने तो उनके साथ जाने दिये हैं। हम क्या अकेले भेजे देंगे....?´´ शुक्लाजी थोड़े झुंझला गये।
´´अरे सिरीवास्तव के मेहररुआ त खुदे हरामी ह.....। ओकरी प हमरा कब्बो विस्वास ना होला। रूकीं हम जातानी ले के आवे उन्हनीं के....।´´
शुक्ला जी तो रुके ही थे। उन्होंने शुक्लाइन को जिस नज़र से देखा उसका अर्थ था कि अनपढ़ औरत से शादी करके उन्होंने अपने जीवन की शांति भंग कर ली है। शुक्लाइन जैसे ही घर से निकलीं, शेरसिंह पूंछ हिलाते हुये उनके पीछे हो लिये।
´´हटीं जायीं आप भीत्तर। जब ऊ दुन्नों गइली ह  स त  का करत रहनीं हां आप...?´´ शुक्लाइन ने उन्हें दुत्कारा तो उन्हें याद आया कि वे इस घर के लोकल गार्जियन हैं और उन्हें वाकई इस बात पर खुद पर ग़ुस्सा आया कि उनसे लापरवाही हो गयी है। उनकी पूंछ की गति धीमी हो गयी। फिर भी वे मालकिन के शुक्रगुज़ार हुये क्योंकि उन्होंने अपने साथ आने की अनुमति दे दी।
            शुक्लाइन जैसे ही मंदिर वाले मोड़ पर पहुंची, उन्होंने देखा कि मंदिर पर भक्तों की खूब भीड़ लगी है और दो बड़े-बड़े साउंड बॉक्स लगा कर ´बीड़ी जलाइले जिगर से पिया´ की तर्ज़ पर एक भजन ´मुण्डी झुकाइले देवी के यहां´ तेज़ आवाज़ में बज रहा था। शुक्लाइन को अपनी याद्दाश्त पर कोफ़्त हुयी क्योंकि उन्हें याद आ गया कि आज जागरण है और उन्हें भी बुलाया गया था क्योंकि उन्होंने भी चंदा दिया था। देवी का गीत सुनकर उनका सिर श्रद्धा से झुक गया और उनका ध्यान अपनी बेटियों से हट कर देवी की तरफ़ हो गया था। उन्होंने देखा की लड़कियां और महिलाओं का झुण्ड एक तरफ़ बैठा था और लड़कों और आदमियों की ग्रुपिंग दूसरी तरफ़ थी। वातावरण पूरी तरह भक्तिमय दिखायी दे रहा था। शुक्लाइन जैसे ही मंदिर के पास पहुंची, उनकी कई भक्तिमय सहेलियों ने उन्हें स्वागतभाव से ग्रहण किया और एक अच्छी जगह पर बिठाया। उनकी नज़र अपनी बेटियों पर पड़ी जो अपनी आंखें बंद किये ताली बजा रही थीं और उनके चेहरों पर अपूर्व शान्ति थी। शुक्लाइन को अपनी बेटियों पर गर्व महसूस हुआ और उन्हें इस बात पर खेद भी हुआ कि उन्होंने अपनी बेटियों पर बेकार में शक किया। श्रीवास्तव जी की पत्नी भी थोड़ी दूरी पर बैठी माता के भजन में पूरी तरह रमी थीं। इतनी कि उन्होंने शुक्लाइन को देखा तक नहीं। उनके चेहरे के भाव देख कर स्पश्ट था कि अब उनके और माता के बीच बहुत कम दूरी बची है और वे इसे जल्दी ही पार कर लेंगी। शुक्लाइन के मन में पूरी तरह से भक्ति भावनाओं ने क़ब्ज़ा कर लिया था और वे भी भजन की धुन पर आंखें बंद कर झूमने लगी थीं। भजन के बोल बदल गये थे और अब ´आशिक बनाया आपने´ की तर्ज़ पर ´भक्त है आया द्वार पे´ बज रहा था। वहां मौजूद लड़कों के दिमाग में असली गाने का वीडियो ताज़ा था और न चाहते हुये भी नाच जा रहा था।
            कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं। जागरण का सीधा और सहज अर्थ था कि घर की औरतें जल्दी खाना बनाकर अपने-अपने पतियों को खिला देंगी और सीधा जागरण में आ जाएंगी। पति का अगर भक्ति या दूसरों की पत्नियों को झांकने में झुकाव हुआ तो वह भी पत्नी के आने के बाद अपने नर पड़ोसियों के साथ पीछे से आयेगा और उपरोक्त दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त करेगा। महिलाएं चाहे जितनी भी उम्र की हों, मादा होने के रिश्ते से एक तरफ़ बैठेंगीं और नर एक तरफ़। जागरण के समय दीन दुनिया से मतलब न रखने वाले लड़के भी अचानक भक्त हो जाते और जल्दी खाना खाकर अपनी मांओं के साथ (ग़ौर करें पिताओं के साथ नहीं) जागरण स्थल पर पहुंच जाते। यह उनके लिये अपनी अधूरी कहानियों को पूरा करने का सबसे उपयुक्त समय होता था जिसमें मां की मर्ज़ी  भी मिली होती थी। लड़कियां और युवा (कुछ प्रौढ़ भी) महिलाएं इस तरह सज संवर कर जागरण में आतीं जैसे किसी क़रीबी की शादी हो। लड़कियां और लड़के (जिनका मामला सेट होता था) दोनों ही अपने-अपने प्रिय पर नज़र रखते और नये खिलाड़ी अपने लिये कोई शिकार फांसने की गरज़ से रात भर मुस्तैदी दिखाते रहते। अधेड़ वय कि महिलाओं को लाउडस्पीकर के शोर में भी अपनी बात कहने और दूसरों की बातें सुनने में महारत हासिल थी और जागरण के दिन पूरी कॉलोनी के लोगों का हिसाब-किताब किया जाता। औरतों के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात यही थी कि उन्हें इस रात पूरी कॉलोनी की ख़्ाबरों की जानकारी हो जाती थी और उनका सामान्य ज्ञान एक ही रात में अभूतपूर्व रूप से बढ़ जाता था। कुछ बूढ़े किशोर लड़कों और लड़कियों को अपने क़रीब ले आने की जुगत भिड़ाते तो कुछ बूढ़े झुण्ड बना कर अपने-अपने बेटे और बहुओं की तारीफ़ें और िशकायतें करते। कुछ जागरूक बूढ़े भी थे जो रात भर इस बात पर चर्चा करते कि इस बार भाजपा की सीट बढ़ेगी, वह उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी और सपा का पत्ता साफ़ हो जाएगा। लड़के और लड़कियों में इस जागरण को लेकर सबसे अधिक उत्साह रहता था। कई प्रेम कहानियां थीं जो देवी की कृपा से जागरण से ही शुरू हुयी थीं। बच्चों के लिये सिफ़Z यह ख़्ाुशी की बात होती थी कि वे अपने मनपसंद दोस्तों के साथ जब तक जी चाहे तब तक खेल सकते थे क्योंकि उन्हें रोकने वाले कीर्तन में व्यस्त हुआ करते थे और देर रात तक खेलने की कोई पाबंदी नहीं होती थी क्योंकि अगले दिन स्कूल की छुट्टी मारनी होती थी।
            शुक्लाइन ने चारों तरफ़ देख लिया था। उन्हें यह देख कर ख़्ाुशी हुयी कि उनकी बालकंनी के सामने वाले कमरे में रहने वाला वह आवारा लड़का कहीं दिखायी नहीं दिया था। उन्होंने मां को धन्यवाद दिया और ज़ोर-ज़ोर से भजन की धुन पर झूमने लगीं जो अब बदल कर ´कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना´ की तर्ज पर ´मेरी मइया मेरी मइया, तेरे चरणों में मुझको रहना´ हो गया था।
´´चतुर्वेदी के घर में कल क्या हुआ था \´´ उनके बगल में बैठी ठकुराइन ने भले ही धीमी आवाज़ में पूछा हो, शुक्लाइन ने सुन लिया था। उनको कुछ उड़ती-उड़ती ख़्ाबर तो मिली थी लेकिन कुछ विस्तार में पता नहीं चल पाया था। उन्होंने तुक्का मार दिया।
´´पता नहीं ठीक से तो नहीं मालूम लेकिन किसी लड़की को छेड़ रहा था चतुर्वेदी।´´
उनकी दूसरी तरफ़ बैठी दरोगाइन ने धीरे से बात में संशोधन किया।
´´अरे ऊ नहीं छेड़ रहा था। श्रीवस्तउआ की लड़किया खुदे गई थी। उसकी जवानी में आग लगी थी। ऊ सोची कि किसी लौंडे लपाड़े के चक्कर में पड़ेंगे तो फंस न जायं इसलिये बुढ़वे से रगड़वाने गई थी।´´
´´अच्छा...\´´ शुकलाइन के साथ-साथ ठकुराइन भी आश्चर्य में थीं।
´´अउर का...उसका चाल-ढाल सुरुए से अच्छा नहीं है।´´ दरोगाइन ने कह तो दिया लेकिन उस लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालने में उन्हें पूरी तरह से मज़ा नहीं आया, उन्हें लगा मामला बराबरी का होना चाहिये तो वह धीरे से लड़की की मां पर िशफ्ट हो गयीं। ``अउर तो अउर उसकी माई ये मिलने आता है एक ठो आदमी जेको ऊ कहती है कि ऊ बीमा करने आता है लेकिन हम जानते हैं कि कउन-कउन चीज का बीमा ऊ करता है आ कब-कब...\´´ दरोगाइन ने आत्मविश्वास भरे शब्द में कहा तो शुक्लाइन और ठकुराइन के साथ आसपास की कुछ और महिलाएं भी चौकन्नी हो गयी थीं। जनरल नॉलेज बढ़ाने की कक्षा शुरू हो चुकी थी और सभी महिलाएं इसमें अपनी भागीदारी को लेकर चौकस थीं और किसी भी क़ीमत पर इसे बढ़ाना चाहती थीं।
शेरसिंह को वहां कई कुत्तों का साथ मिल गया था और कॉलोनी के आवारा कुत्ते उन्हें समझा रहे थे कि वे जिस चीज़ के गुमान में रहते हैं और कॉलोनी के कुत्तों को आवारा समझ कर भाव नहीं देते वह दरअसल धोखा है। उन्हें शुक्लाजी के घर में एक साज़िश के तहत आदमी बना कर रखा गया है जो दरअसल देखने में छोटी बात लगती है लेकिन पूरी कुत्ता बिरादरी का अपमान और मुंह पर तमाचा है। शेरसिंह कॉलोनी के खुले वातावरण में कुलांचे भर रहे थे और यह उन्हें यह सोचकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था कि इस तरह आज़ाद रह सकते हैं। कुछ कुत्तों ने जो दरअसल ´कॉलोनी कुत्ता संघ´ से ताल्लुक रखते थे, उन्हें भड़काया कि वे जल्द से जल्द शुक्ला जी का घर छोड़ें और आज़ाद हो जाएं। ये कुत्ते पूरी कॉलोनी में दिन रात छुट्टा घूमते रहते थे और यहां जब तब चोरियां हो जाया करती थीं। कुत्ते संगीत प्रेमी थे और इनका पूरा ध्यान अपनी संख्या बढ़ाने में रहता था। ये रात को दो या तीन समूहों में बंटकर कॉलोनी के चारों तरफ़ फैल जाते थे और संगीत का दंगल खेलते। एक समूह कॉलोनी के एक कोने से एक शेर में सवाल पूछता जिसका जवाब दूसरा समूह संगीतमय प्रस्तुति के साथ देता। कॉलोनी के निवासी इस बात पर आश्चर्य करते कि इतने कुत्तों के होने के बावजूद यहां चोरियां कैसे हो जाती हैं और कुत्ते इतने ख़्ाामोश रहते हैं। कुत्ते दरअसल इसलिये चुप रहते थे कि घर भी कॉलोनी का और चोर भी कॉलोनी का तो वे अंदरूनी मामलों में टांग कैसे अड़ाएं। एकाध बार चिल्लाने का उनका अनुभव बेहद ख़्ाराब रहा था और अब वे अपने काम से काम रखते थे। एकाध कुत्ते जो किसी सामान्य इंसान के घर के पालतू थे (ब्राह्मण के घर नहीं) उन्हें खाने में अक्सर मांस के टुकड़े भी मिल जाया करते थे जिसके बारे में शेरसिंह ने सिफ़Z सुना ही था। कुत्तों ने समझ लिया था कि शेरसिंह को इसी बात पर तोड़ा जा सकता है कि मांस नाम की एक चीज़ होती है जिसे अगर किसी कुत्ते ने यह नहीं चखा तो उसके कुत्ते होने और ब्राह्मण होने में कोई ख़्ाास फ़र्क़ नहीं है। शेरसिंह सभी कुत्तों की बातें सुनकर किन्वंस हो रहे थे कि शुक्लाइन ने उन्हें हाथ हिलाकर घर जाने का इशारा किया।
´´देखा नौकरों से बुरा बर्ताव होता है तुम्हारे साथ.....\´´ संघ के महामंत्री ने उन्हें भड़काने की कोिशश की।
´´लेकिन यहां तुम लोग मुझे तुम-तुम कह रहे हो जबकि वहां मुझसे मालिक भी आप कह कर बात करते हैं।
´´यही तो साज़िश है कुत्तों को बस में करने की। मालिक लोग समझते हैं कि हमें प्यार पाने की आदत तो है नहीं। जिसे देखो कुत्ता कह कर दुरदुराता रहता है तो हम थोड़ा सा प्यार पाकर बेवकूफ़ बन जाएंगे। लेकिन हम कुत्ते ज़रूर हैं मूर्ख नहीं....।´´
´कॉलोनी कुत्ता संघ´ के निर्विरोध निर्वाचित अध्यक्ष सबसे ख़्ातरनाक और कटहे कुत्ते ने शेरसिंह को तोड़ने का मौका लपक लिया।
´´देखो बेटा, आज़ादी से बड़ी चीज़ कोई नहीं है। आज़ाद रहोगे तो यहीं फाटक पर चिकन मटन की दुकान है, हफ़्ते में दो दिन तुम्हारी ड्यूटी वहां लगा देंगे, जम के चिकन मटन खाना और मस्त रहना। आज़ाद रहो। आज़ादी ज़िंदाबाद।´´
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ सभी कुत्तो ने नारा लगाया।
´´आज़ादी जिंदाबाद।´´ शेरसिंह ने भी नारा लगाया। सबकी बातों ने उन पर गहरा असर किया था। अचानक कीर्तन कर रहे दो तीन लड़के उठे और ज़मीन से कोई अदृश्य पत्थर उठाने का अभिनय करते हुये कुत्तों को भगाना चाहा।
´´भाग साले तेरी मां की.....दुर दुर।´´
´´ई कुत्तवन काहे चिल्ला रहे हैं....दुर दुर दुर....।´´
शुक्लाइन ने भी पलट कर देखा और शेरसिंह को अब तक वहां मौजूद पाकर गुस्से में उन्हें घर जाने का इशारा किया।
कुत्ते भाग कर थोड़ी दूर आ गये और वहां से भौंकने लगे। थोड़ी देर भौंकने की औपचारिकता के बाद सब शेरसिंह की तरफ़ पलटे।
´´देखा हमारी इज़्ज़त....\ कोई भी कभी भी कैसी भी गाली दे देता है। हम कुत्ते हैं सरकार थोड़े ही हैं। इस प्रवृत्ति को समाज से दूर करने के लिये सभी कुत्तों को एकजुट होना होगा। कोई कुत्ता आदमियों के बनाये जाल और दूध रोटी में न फंसे। कुत्ता एकता ज़िंदाबाद....।´´ अध्यक्ष ने कुत्तों में एक अजीब से जोश भर दिया था।
´´ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद...।´´ सबने समवेत स्वर में कहा।
´´ज़िंदाबाद...।´´ शेरसिंह भी चिल्लाये और वहां से घर की ओर चल पड़े।
´´जल्द से जल्द ठोस फ़ैसला करो दोस्त अपने बारे में....।´´ महामंत्री ने सलाह दी। शेरसिंह ने सहमति में सिर हिला दिया। जाते वक़्त एक बार उन्होंने सविता की ओर देखा। उसका चेहरा निश्छल नज़र आ रहा था और वह कीर्तन करने में व्यस्त थी। उन्होंने मन मे ंसोचा कि कोई कुछ छोड़ना भी चाहे तो छोड़ना आसान थोड़े ही होता है।

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