Tuesday, October 1, 2013

विमल चंद्र पाण्डेय की दो ताज़ी व्यंग्य कहानियाँ.

जनराह की आज पहली वर्षगांठ है. गत साल आज ही के दिन गांधी जयंती पर विमल चंद्र पाण्डेय के उपन्यास अंश "नादिर शाह के जूते" से इस ब्लाग की शुरूआत हुई थी. यह उपन्यास दस किश्तों तक यहां प्रकाशित हुआ.  हमें इस बात की खुशी है कि यह उपन्यास अब नए नाम "भले दिनों की बात थी" से आधार प्रकाशन से आ रहा है. विमल के लेखन की सबसे खास प्रवृत्ति उनकी विविधता है. यद्यपि विमल के यहां व्यंग्य बहुत सधा हुआ और सूक्ष्म तरीके से आता है लेकिन आज यहां दो ताज़ी कहानियां प्रस्तुत करते हुए लग रहा हैं कि विमल फ़ुल फ्लेज में पहली बार व्यंग्य को अपना रहे हैं. हमारे लिए यह दोहरी खुशी कि बात है कि जनराह की पहली वर्षगांठ पर हम विमल की दो व्यंग्य कहानियां प्रस्तुत कर रहे हैं. 


  
नन्हा सा सुख

युवा लेखक परेशान था। यह उसका अपना शहर था जहां पांच दिवसीय नाट्य समारोह में वह लगातार तीसरी शाम आया था। उसके साथ उसका वह बचपन का दोस्त था जो नाटकों से बहुत प्यार करता था और एक अध्यापक था। लेखक हिंदी में लिखता था इसलिये पेट पालने के लिये पास के ही शहर में मौसम विभाग में काम करता था। उस शहर का मौसम अक्सर नियमशुदा तरीके से बदला करता था इसलिये उसके और उसके विभाग के पास करने को कुछ खास काम नहीं हुआ करता था। उसका दोस्त एक इण्टर कॉलेज में हिंदी का अध्यापक था और हिंदी की किताबें सिर्फ उतनी देर ही हाथ में लेता था जितनी देर उसे कक्षा में लेना मजबूरी थी। लेखक हिंदी में लिखता था और उसका कहना था कि वह लेखन पैसे के लिये नहीं करता बल्कि इसे वह समाज की भलाई के लिये करता है। वह जिस गति से लिखता जा रहा था उससे कहीं अधिक गति से समाज की हालत बिगड़ती जा रही थी जिसे देखकर उसका दोस्त उसने लेखन को कुछ खास भाव नहीं देता था। लेखन के दस सालों में तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं और उसे दो-तीन पुरस्कार भी मिल चुके थे। पुरस्कारों को ग्रहण करने के बाद उसने कहा था कि पुरस्कारों की राजनीति में उसका कोई विश्वास नहीं है और वह सिर्फ अपने पाठकों की संतुष्टि के लिये लिखा करता है। पाठकों के नाम पर उसे अपनी किताबों के लोकार्पण में ज़रूर दस बीस ऐसे लोग मिल जाया करते थे जिनसे वह पहली बार मिला होता था और वे उसे शुरू से अंत तक पढ़ चुके होते थे। उन पाठकों की बदौलत वह खुद को सेलेब्रिटी मानने की गुस्ताखी अक्सर कर बैठता था। जिस शहर में वह नौकरी करता था वहां उसकी सरकारी नौकरी और उसका लेखक मिल कर उसकी एक मुकम्मल छवि बनाते थे और शहर के बुद्धिजीवियों में उसे खासी पहचान हासिल थी। अपने शहर वह सप्ताहांत में आया करता था और यहां के बुद्धिजीवियों से यह सोचकर नहीं मिलता था कि अब वह इतना बड़ा लेखक हो चुका है कि खुद जाकर किसी से मिलने की पहल करना उसके लिये ठीक काम नहीं है।
      युवा लेखक की परेशानी की वजह यह थी कि उसे लगातार तीन दिनों प्रेक्षागृह में आने के बावजूद किसी ने पहचाना नहीं था। पहले दिन तो वह सामान्य दर्शकों की तरह पीछे की तरफ वाले दरवाज़े से घुसा था और नाटक खत्म होने के काफी देर बाद तक बाहर टहलता दोस्त के साथ सिगरेट पीता रहा था। उसका सोचना था कि कोई व्यक्ति अचानक उसकी तरफ आयेगा और प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी ओर देखता हुआ पूछेगा, ‘‘आप चतुर्भुज शास्त्री हैं न ?’’
वह गहरी नज़रों से उस आदमी की ओर देखेगा और स्वीकारोक्ति में सिर हिलायेगाबोलेगा नहीं। आदमी व्यग्र होकर पूछेगा गोया उसे विश्वास नहीं हो रहा हो। ‘‘लेखक चतुर्भुज शास्त्री ?’’ वह इस बार स्वीकारोक्ति में सिर नहीं हिलायेगाबल्कि सामने वाले को भर नज़र देखेगा और मुस्करा कर कहेगा, ‘‘जी हांमैं थोड़ा बहुत लिख लेता हूं।’’ उसके जवाब में शामिल होगा कि वैसे तो मेरा मुख्य काम मौसम की भविष्यवाणी करना है लेकिन मैं कभी कभी लिख भी लेता हूं और सबसे यह छिपा कर चलता हूं कि मैं एक लेखक हूं। ऐसा अनुभव उसे एकाध बार उन पुस्तक मेलों में हुआ था जिनमें उसकी किताबों का लोकार्पण हुआ था।
उसने गहरी नज़र से कुर्सियों पर बैठे दर्शकों की ओर देखा। आगे की पंक्ति में कुछ बुजुर्ग सज्जन बैठे थे जिन्हें देखकर उसने पहचाना कि वे वहां के हिंदी अख़बारों के संपादक हैं। वह थोड़ी देर कुर्सी पर बैठा रहा। उसका दोस्त आज होने वाले नाटक के बारे में पढ़ रहा था। उसने इस निर्देशक के बारे में कुछ अच्छी बातें बतायीं जिसे लेखक ने बेमन से सुना। वह अचानक उठा और अपनी जेब में रखे फोन को निकाल कर देखने लगा जैसे उस पर कोई फोन आया हो। फोन वाइब्रेशन में था। दोस्त ने एक नज़र देखा और पूछा, ‘‘किसका फोन है ?’’ लेखक ने जवाब नहीं दिया और चौथी पंक्ति में से निकल कर आगे की सभी पंक्तियों को पार करता मंच के सामने जाकर खड़ा हो गया और मोबाइल पर हूं हां कर धीमी आवाज़ में बातें करने लगा। वह इस कोण से खड़ा था कि आगे और पीछे सभी पंक्तियों में बैठे दर्शक उसे भलीभांति देख सकें और पहचान सकें कि यह वही लेखक है जिसे पिछले साल साहित्य रत्न सम्मान से पुरस्कृत किया गया है। उसने बात करते हुये ही सबके चेहरों की ओर देखा। किसी के चेहरे पर उसे देखकर परिचय का भाव नहीं आया था। ‘‘इसीलिये यह शहर इतना पिछड़ा हुआ हैजो शहर अपने बुद्धिजीवियों को पहचानता तक नहींवह पीछे ही तो जायेगा।’’ उसने मन में सोचा।
वह जब थकहार कर वापस दोस्त की बगल वाली कुर्सी पर लौटने वाला था कि उसने पीछे की किसी पंक्ति से एक युवा दर्शक को निकल कर तेजी से अपनी तरफ आता देखा। वह समझ गया कि ज़रूर वह युवा हिंदी का विद्यार्थी होगा और उसने उसकी कहानियां पढ़ रखी होंगीं। वह अचानक एक आम आदमी से सेलेब्रिटी सरीखा बन गया और युवक के पास आने से एक क्षण पहले उस काल्पनिक फोन को यह कह कर काटा कि उसके होते किसी को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है और यह भी कि उसका दूसरा उपन्यास दो महीने बाद छप कर आ जायेगा। उपन्यास वाली बात कहते हुये उसने अपनी आवाज़ थोड़ी ऊंची कर ली थी।
युवक मुस्कराता हुआ उसके पास आया और शालीनता से उसे कहा, ‘‘सरयू शुड स्विच ऑफ़ युअर फोन। अनाउंसमेण्ट के बाद भी आपने नहीं किया तो नाटक शुरू हो जाये तो आप ज़रूर इसे स्विच ऑफ़ कर लें।’’
वह भन्नाया हुआ सा अपनी सीट पर वापस आ गया। दोस्त ने फिर से पूछा कि किसका फोन था और लेखक ने जवाब देने की बजाय उससे यह कहा कि हिंदी रंगकर्म की बदहाली के लिये रंगकर्म से जुड़े लोग ही जि़म्मेदार हैं।
‘‘सात बजे कह कर आप दर्शकों को कितनी देर बिठाएंगे ?’’ उसने घड़ी दोस्त को दिखाते हुये कहा, ‘‘पहले ही सवा सात बज चुके हैं।’’ दोस्त ने उसकी समस्या को समझने की कोशिश की लेकिन ठीक से समझ नहीं पाया। वह सरकारी अध्यापक था और उसके पास समय की कोई कमी नहीं होती थी जिससे समय से जुड़ी अवधारणाओं को वह उस तरह से नहीं समझ पाता था जिस तरह से वे कही जाती थीं।
नाटक अच्छा था लेकिन लेखक का मन देखने में नहीं लग रहा था। आज उसको लिखते हुये पूरे दस साल हो गये हैं लेकिन आखि़र कितने लोग उसे पहचानते हैं। उसे लेखकों के अस्तित्व पर होने वाली बहसें याद आने लगीं जिनमें कहा जाता था कि लेखन एक गंभीर कर्म है और समाज में उसकी पहचान नचनियों गवनियों और राजनेताओं या क्रिकेट खिलाडि़यों जितनी नहीं हो सकती। ये लोग भले अपनी शक्ल से पहचाने जाते होंलेखक अपनी लेखनी से पहचाना जाता है। उसने हल्की रोशनी में एक बार पीछे की ओर सिर घुमा कर देखा। आधे से ज़्यादा हॉल खाली था और रंगमंच के लिये एक ज़माने में समृद्ध रहा यह शहर अपने हॉल में एक चौथाई दर्शकों के साथ शर्मिंदा सा सहमा था। उसे लगा पीछे के एकाध दर्शकों ने आंखों में पहचान का भाव चेहरे पर लिये उसे पहचानने की कोशिश की है।
‘‘यह बहुत संभव है कि सड़क पर चलता हुआ वह आदमी जो आपकी लेखनी का फैन हैआपको पहचाने भी नहीं। उससे क्या फर्क पड़ता है लेखक की पहचान शक्ल से नहीं उसकी भाषा और शैली से होती है।’’ उसने एक बहस में एक दोस्त द्वारा दिये गये जुमले से खुद को बहलाया और नाटक में खुद को व्यस्त करने की कोशिश करने लगा। उसने दोस्त से कुछ कहने की कोशिश की लेकिन दोस्त ने इशारे से उसे चुप करा दिया। उसने दोस्त को मन में जाहिल कहा और चुपचाप नाटक देखने लगा।
नाटक के बीच-बीच में कभी किसी का मोबाइल बजने लगता तो किसी का बच्चा रोने लगता। उसे खीज हो रही थी। अचानक उसने देखा उससे पांच सात कुर्सियों आगे बैठा एक उसकी ही उम्र का गोरा चिट्टा आदमी उसे गौर से देख रहा है। उसने उस आदमी की ओर देखा तो आदमी नाटक देखने लगा। उसने नाटक देखते हुये आदमी को पहचानने की कोशिश की लेकिन उसने उस आदमी को पहले कहीं देखा नहीं था। उसके चेहरे से मिलते जुलते आदमी से भी वह कभी नहीं मिलाइसका मतलब यही हो सकता है कि वह वह न तो कोई पुराना परिचित या दोस्त है न ही कोई दूर का रिश्तेदार। उस गोरे आदमी ने कनखियों से कई बार लेखक की ओर देखा और लेखक ने समझ लिया कि वह ज़रूर उसे पहचान रहा है। वह उसका कोई प्रशंसक ही हो सकता है जो उसे पहचानने की कोशिश तो कर रहा है लेकिन ठीक से पहचान नहीं पा रहा। वह नाटक देखने लगा और बीच में उसने पाया कि जब भी उसने उस आदमी की ओर देखा हैउस आदमी ने भी उसकी ओर देखा है। आखिरकार नाटक खत्म होने के थोड़ी देर पहले उन दोनों की आंखें मिलीं तो लेखक जबरन मुस्करा उठा। उसने सोचा कि नाटक खत्म होने पर वह अपने उस प्रशंसक के पास जायेगा और उसका संकोच दूर करते हुये उससे मैत्रीभाव से बातें भी करेगा और उसे अपने अगले उपन्यास के बारे में भी बताएगा।
नाटक खत्म होने के बाद सबने तालियां बजायीं और पात्र परिचय तथा निर्देशक का उद्बोधन सुनने लगे। लेखक ने फिर से एक बार उस आदमी की ओर देखा जो मंच की ओर देख कर मुस्करा रहा था। उसके दोस्त ने भी लेखक की नज़रों का अनुसरण किया और उस गोरे आदमी को ध्यान से देखा।
‘‘जानते हो वह कौन है ?’’ दोस्त ने लेखक से पूछा।
‘‘कौन ?’’ उसे आश्चर्य हुआ। दोस्त को कैसे पता ?
‘‘अरे पहचाने नहीं गुरू वही है जो परसों वाले नाटक में फकीर का रोल किया था।’’
उसे झटके से याद आ गया। उसका क्लीन शेव्ड चेहरा उस दिन दाढ़ी मूंछों में छिपा हुआ था और एक सनकी फकीर के रूप में उसने सशक्त अभिनय किया था। लेखक को उस दिन उसे बधाई देने का मन था लेकिन देर होने की वजह से वह जल्दी निकल गया था।
‘‘याद आया ?’’ दोस्त ने फिर पूछा।
‘‘हां हां याद आ गया।’’ लेखक ने मुस्कराते हुये कहा। उसने एक लंबी सांस ली। उसके चेहरे पर खुद-ब-खुद एक मुस्कराहट आ गयी थी और वह देखने में अचानक बड़ा खुशमिजाज़ सा दिखने लगा.
‘‘क्या हुआ अचानक लग रहा है कुछ मिल गया।’’ दोस्त ने कहा। उसने दोस्त की और देखा और फिर से एक बार मुस्कराया.
‘‘आओ उसको उसके अच्छे अभिनय के लिये बधाई दे दें।’’ लेखक ने कहा और कुर्सियों की कतार से बाहर निकलने लगा। दोस्त ने उसका अनुसरण किया। वह उस आदमी के पास पहुंचा और हाथ बढ़ाता हुआ बोला।
‘‘परसों जब से आपका शानदार अभिनय देखा हैआपको बधाई देने के लिये ढूंढ़ रहा हूं। कमाल का अभिनय किया आपने।’’
‘‘शुक्रियाशुक्रियाबहुत बहुत शुक्रिया।’’ अभिनेता ने उसकी हथेली अपनी हथेलियों में थामते हुये कहा।
अभिनेता के चेहरे पर इतने राहत के भाव थे जैसे किसी डूबते हुये को तिनके का सहारा मिल गया हो।



बीच का रास्ता

युवा लेखक जब प्रकाशक के यहां पहुंचा तो प्रकाशक दो-तीन बड़े सरकारी अधिकारियों से घिरा हुआ था जो अपनी किताबें छपवाने के लिये उसके पास आये थे। लेखक को आधे घण्टे इंतज़ार करना पड़ा। इस प्रकाशक से उसे उसके एक मित्र और वरिष्ठ लेखक ने मिलवाया था जो उसे किसी गैर-साहित्यिक कारण से पसंद करते थे। लेखक की कहानियां देश की कई ऐसी पत्रिकाओं में छप चुकी थीं जो खुद को प्रतिष्ठित बताती थीं। आधे घण्टे के इंतज़ार के बाद लेखक को भीतर बुलाया गया।
कैसे हैं सुदर्शन शास्त्री जी ? प्रकाशक ने वरिष्ठ लेखक के प्रति आदरभाव से पूछा। उसने सम्मानभाव से उनका हाल सुनाया और उनका भेजा हुआ अभिवादन, जो एक बोतल में बंद था, प्रकाशक को पेश किया।
क्या नाम रखा है आपने अपने कहानी संग्रह का ? प्रकाशक ने पूछा। उसने विनम्रता से कहानी संग्रह का नाम बताया। प्रकाशक खुश हुआ।
मेरी नींद में काले कौवे, लेखक चतुर्भुज शास्त्री अच्छा लग रहा है न सुनने में ? प्रकाशक के मुंह से यह सुनकर लेखक को अपने पहले कहानी संग्रह का कवर पृष्ठ दिखायी देने लगा। उसने अपनी किताब की पाण्डुलिपि झोले से निकाल कर प्रकाशक के हाथों में सौंप दी. मेरी किताब नहीं मेरा सपना है यह। उसने कहा पर प्रकाशक ने अधिक ध्यान नहीं दिया। इससे बड़े-बड़े कई सपने वह दबा कर बैठा था।
मैंने आपकी कहानियां पढ़ी हैं, आप अच्छा लिखते हैं। मैं इसे छाप सकता हूं लेकिन सिर्फ़ अच्छा लिखना तो काफी नहीं है. यह आप समझते ही होंगे. लेखक ने प्रकाशक की बात समझने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर की।
अभी-अभी जो साहब उठ कर गये, मैं उनका कविता संग्रह छाप रहा हूं वह आयकर विभाग में कमिश्नर हैं. तुम समझ गये होगे कि मैं उनसे किस तरह लाभान्वित हो सकता हूं ? प्रकाशक ने सीधे-सीधे हिसाब किताब वाली भाषा अपना ली। युवा लेखक थोड़ी देर चुप रहा फिर उसने कहा कि उसके पास कोई स्थायी नौकरी नहीं है इसलिये वह इतना ही कर सकता है कि प्रकाशक का इंटरव्यू लेकर किसी अख़बार में छपवा दे। प्रकाशक ने यह कहते हुये मना कर दिया कि इस तुच्छ काम के लिये उसके पास कई अख़बारों के संपादक हैं जिनके यात्रावृत्त और कहानी संग्रह वह छापता रहा है। लेखक उदास हो गया। आखिरकार प्रकाशक ने सकुचाते हुये लेखक को एक प्रस्ताव रखा जिससे लेखक के भीतर का लेखक जाग गया और लेखक क्रोधित होकर चुपचाप वापस चला आया।
उन्होंने मेरे सामने ऐसा गंदा प्रस्ताव रखा कैसे ? मेरी कहानियां पढ़ने के बावजूद मैं उनमें हमेशा इसके खिलाफ बातें करता हूं। उसने उस वरिष्ठ लेखक के सामने बैठ उसी शाम शराब पीते हुये कहा। वरिष्ठ लेखक ने उसकी पीठ सहलायी।
वह किताब छपवाने के एवज में जवान लड़कियों को ऐसा प्रस्ताव हमेशा देता था, जानकर दुख हुआ कि अब वह लड़कों को भी ऐसे गंदे प्रस्ताव देने लगा है। इसीलिये कई खुद्दार लेखक अपनी पाण्डुलिपि वहां से वापस ले लेते हैं। तुम चिंता मत करो, मैं बात करता हूं। वरिष्ठ लेखक ने कहा।
मैं बहुत तगड़े उसूलों वाला लेखक हूं, छपने के लिये कभी कोई समझौता नहीं करुंगा, यह बता दीजियेगा उन्हें। भले मेरी किताब जि़ंदगी भर न छपे, मैं कोई अनैतिक काम नहीं करुंगा, छीः मुझे शर्म आ रही है...ओह। लेखक ने अपना छठवां पेग खत्म करते हुये कहा। उसकी आवाज़ भर्रा गयी थी।
वरिष्ठ लेखक प्रकाशक से मिला जिसकी पिछली चार किताबें इसी प्रकाशक से आयी थीं। प्रकाशक और वरिष्ठ लेखक की मुलाकात के बाद वरिष्ठ लेखक ने युवा लेखक को अपने घर बुलाया।
दोनों लेखक तीन दिनों के भीतर फिर से आमने सामने बैठे थे और बीच में एक बोतल मुंह खोले उन दोनों के मुंह देख रही थी।
वरिष्ठ लेखक ने बताया कि प्रकाशक एक यौन रोग से पीडि़त है।
पहले वह सामान्य था। लड़कियों को ऐसे प्रस्ताव देना निश्चित रूप से उसके सामान्य होने का लक्षण था लेकिन यह बीमारी उसे हाल के दिनों में ही हुयी है। वरिष्ठ लेखक ने उसे दुखी स्वर में बताया कि प्रकाशक किसी युवा लेखक को देखते ही उसके साथ गुदामैथुन करने के लिये व्यग्र हो उठता है। साथ ही उसने यह भी जोड़ा कि प्रकाशक इस समस्या की गंभीरता को समझता है और इसे काबू करने के लिये वह चिकित्सक से परामर्श भी ले रहा है। वरिष्ठ लेखक ने युवा लेखक को समझाया कि ऐसी स्थिति में प्रकाशक की मदद करना इंसानियत की मांग है। उसने युवा लेखक को समझाया कि एक बीच का रास्ता है जिससे उसका ईमान भी बचा रह सकता है और उसकी किताब भी छप सकती है। लेखक ने देखा कि इसमें उसके उसूलों की हानि नहीं हो रही है तो उसने हां कर दी।
उसी शाम वरिष्ठ लेखक युवा लेखक को लेकर प्रकाशक के घर गया। वहां कोई चैथा जानबूझ कर आमंत्रित नहीं किया गया था। तीनों ने थोड़ी शराब पी और प्रकाशक एक मेज़ के पास जाकर खड़ा हो गया। युवा लेखक भी उठा और मेज़ के दूसरी तरफ जाकर थोड़ा सा झुक गया। मेज़ के दूसरी तरफ खड़े प्रकाशक ने अपनी पैण्ट उपर से थोड़ी सरका दी और अपनी कमर आगे पीछे करने लगा।
वरिष्ठ लेखक थोड़ी दूरी पर बैठा अपना पेग खत्म कर रहा था। उसे खुशी थी कि उसने एक युवा लेखक को उसका ईमान बचाने में मदद की। वह उठ कर युवा लेखक के पास गया।
देखा चतुर्भुज, यह सिर्फ़ इसकी बीमारी है। यह सच में ऐसा नहीं चाहता। देखो तुमने अपनी पैण्ट भी नहीं उतारी और तुम्हारे और इसके बीच तीन फीट का फासला है, तुम्हें सिर्फ अपनी कमर को थोड़ा सा हिलाना है और इसके लिये थोड़ा सा अभिनय करना है। मुझे उम्मीद है तुम्हें खुशी होगी कि तुम्हें अपने उसूलों से समझौता नहीं करना पड़ा।
युवा लेखक की आवाज़ में ठसक भरी थी, मैंने पहले ही कहा था सर कि भले मेरी किताब जीवन भर न छपे, मैं अपना ईमान नहीं डिगा सकता।
वरिष्ठ लेखक संतुष्ट होकर वापस अपनी जगह पर बैठ गया। युवा लेखक भी संतुष्ट था। प्रकाशक भी संतुष्ट था।
वरिष्ठ लेखक ने पहले ही सोच लिया था कि वह अपने और प्रकाशक के पिता के बीच दशकों पहले हुयी मुलाकातों के बारे में कोई जि़क्र नहीं करेगा।

विमल चंद्र पाण्डेय से यहां संपर्क किया जा सकता है -  https://www.facebook.com/thesilentjunoon

vimalpandey1981@gmail.com

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Thursday, September 19, 2013

रीना पारीक की कविताएँ.


रीना पारीक नवभारत टाइम्स मुंबई में कार्यरत हैं. लंबे अरसे तक साहित्य से गहरा जुड़ाव रखने के बाद अब उन्होंने इसे रचना शुरू किया हैं. हम जनराह के माध्यम से हिंदी साहित्य में उनका स्वागत करते हैं और उनकी कविताओं  पर खुद कुछ कहने के वजाय पाठकों के लिए स्पेस छोड़ते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएँ -





रोमांस 

रोमांस को हम कहीं पीछे छोड़ आये हैं 
अब बचा है तो बस, रिश्ता। 

एक मशीनी युग में जी रहे है हम
जहां मेरे सिंदूर का रंग हरा हो गया है तुम्हारी फाइलों के रंग की तरह 
कांच की इमारतों में मोबाइल गेम के किरदार की तरह दिखते हो तुम 
इन शीशों के आर-पार मेरी साँसों की आवाज़ नहीं पहुँच सकती 

मेरी चूड़ियों, पायल और झुमकों की अठखेलियों को तुम्हारे कम्प्यूटर के की-बोर्ड की आवाज़ निगल जाती है 
रोमांस तो अब यश राज की फिल्मों में भी नहीं रहा
जिन्हें देखकर सीखा था हमने अपने इश्क  की दुनिया को रंगना  
अब गिटार बजाती हुई मीरा बहुत रूखी और बनावटी लगती है 
उसी मुस्कराहट की तरह, जो मुझे खुश करने के लिए अपने होटों पर चिपका लेते हो तुम कभी कभी 
तुम्हारे हमारे बीच का रोमांस तो हथेली से रेत की तरह फिसल रहा है
चाहकर भी न तुम पकड़ पाते हो न मैं 
ज़रूरत बन गए है हम एक दूसरे की 
उससे भी अधिक आदत 
जो अवचेतन में भी बनी रहती है
वरना सीख तो हम आज भी नहीं पाए हैं रिश्ते निभाना

कभी कभी सोचती हूँ-
एक कविता हो सकती थी ज़िंदगी,  
एक सपना भी 
जो नींद में इस कृत्रिम दुनिया से अलग होने पर महसूस होता है 
मगर नींद के टूटते ही यथार्थ के धरातल पर
ऐसा बाज़ार बन जाती है
कि जहां न सपनों का मूल्य है न कविता का 



गरीब 

तुम्हे शर्म आती है
मैले कुचेले चिथड़ों में लिपटे  
कचरे के ढेर से अपनी ज़िन्दगी चुनते बच्चों पर 

तुम्हे शर्म आती है
सड़क पर आधी साड़ी में लिपटी
अपने अधपसली बच्चे को दूध पिलाती माँ पर

तुम्हे शर्म आती है
तुम्हारे फेके गए रोटी के टुकड़े से
अपनी साँस जोड़ते बुढ्ढों पर 

कभी सोचा है गरीबी क्या है?
गरीब तो तुम हो
जो अपने शीशमहल की छत से झुग्गियों को देखकर मुंह फेर लेते हो 

गरीब तो तुम हो 
जो सिग्नल पर खड़े भिखारी पर नाक -मुंह सिकोड़ अपनी गाड़ी आगे बढ़ा देते हो

गरीब ही नहीं बेशर्म भी हो तुम!
क्योंकि गरीब होकर भी गरीबी पर शर्म करते हो.

**  **  ***  **


रीना पारीक से यहाँ संपर्क किया जा सकता हैं - reenapareek15@gmail.com  https://www.facebook.com/reena.pareek.7




Sunday, August 18, 2013

मिता दास की लघु कथाएँ.


मिता दास बांग्ला और हिंदी दोनों में लिखती हैं. साथ ही अनुवाद का काम भी करती हैं. प्रस्तुत है उनकी दो लघु कथाएँ.


 जाल.
 डॉ कैलाश बेड रूम से निकलते ही घर की नौकरानी से टकरा जाते हैं ,  और हडबडाकर डॉ .कैलाश अपनी पत्नी मीनल को आवाज़ लगाते हैं " जरा देखना मेरा स्टेथोस्कोप कहाँ रखा है ?"

           
मीनल प्रसव के लिए मायके गई हुई थी अभी कुछ ही दिन हुए लौटी है उन दिनों डॉ कैलाश एक हार्ट सर्जरी में व्यस्त थे अपने ही नर्सिंग होम में उन्होंने अपने एक दोस्त  को फोन पर ही हिदायत दे दी थी " जरा देख लेना पियूष , मेरा आना असंभव है ...बड़ा ही कोंम्पलीकेटेड केस है , पैसे मैं एडवांस में ले चुका हूँ यार तू ​ भी एकअच्छा डॉ० है मुझसे अच्छा ही ट्रीटमेंट करेगा , मुझे पता है यारसब ठीक हो जायेगा ...चल अच्छा मैं रखता हूँ " प्रसव से लौटी मीनल जरा कमजोर हो गई थी पूरे टाइम वाली नौकरानी थी उसकी , उसके संग सारे काम मीनल काझटपट निपट जाता है

              
जब मीनलमायके गई थी,उसी दौरान उस नौकरानी ने इस घर में कई ऐसे राज़ देखे जिसे बयाँ करना मुश्किल था , क्या पता मीनल विश्वास भी करती या नहीं नौकरानी ने मीनल को कुछ नहीं बताया पर वह डॉ के निकट जाने से कतराने लगी डॉ कैलाश को भी लगा शायद नौकरानी ने जरूर कुछ देख लिया है पर वह करे भी तो क्या ....क्या पूछे उससे की वह क्या जानती है

                 
मीनल फिर मायके गई , अपनी मौसेरी बहन की शादी पर इस बार नौकरानी ने सोचा की वह सच जान कर ही रहेगी , फिर मैडम के आने पर सब सच - सच बयाँ कर देगी इस बार उसने शनिवार के रात को तीन चार दोस्तों के साथ डॉ को घर की सीढियां चढते देखा डरती - डरती  वह उनके कहने पर ग्लास , प्लेट ,चम्मच काँटा - छुरी , सोडा, आइस और सलाद रख गई डॉ ने कहा कुछ जरुरत होगी तो हम खुद ले लेंगे तुम जाकर सो जाओ नौकरानी अपने सर्वेंट रूम ने जाकर सो रही पर उसे नींद कहाँ ...तेज़ - तेज़ म्यूजिक , हा हा ही ही और ग्लास फूटने की आवाज़ और तेज़ - तेज़ रौशनी क्लिक की आवाज़ और जाने कैसा शोर ....उसे बड़ी देर बाद नींद आई पिछली बार भी इसी तरह का ही शोर था पर इस बार कुछ और तरह की आवाजें भी घुल मिल गई थी और जाने कब क्या - क्या सोचते - सोचते उसे नींद ही गई

                   
सुबह जब उसने चाय की ट्रे ले उस कमरे में घुसी तो देखा की सभी सुध बुध खोये नींद और शराब के नशे में चूर लुढ़के पड़े हैं और सी० डी० प्लेयर पर एक फिल्म चल रही है तेज़ और भद्दी आवाज़ के साथ ऐसी फिल्म नौकरानी ने कभी नहीं देखीथी वह घबराकर कमरे से बाहर निकल आई उसे निकलते डॉ कैलाश ने देख लिया था उसने सोचा की वह यह सब मीनल को बता देगी , फिर उसका धंधा चौपट ..." हूँ ....करूँ तो क्या करूँ ​" . इसका भी कोई जबरदस्त इलाज सोचना पड़ेगा ...." एक भद्दी सी हंसी होंठों पर खेल गई

                     
शाम का वक़्त था नौकरानी ने फ्रिज खोलकर चोरी से एक कोक जैसा कुछ ड्रिंक निकाल और अपने ग्लास में उड़ेल कर एक ही सांस में पी गई वह नहीं समझ पाई  डॉ साहब की चाल को थोड़ी ही देर में उसकी आँखें बुझने लगी चाल में भी एक लडखडाहट भर गई उसने पूरे कमरे को एक भरपूर नज़र से देखा , सारा का सारा कमरा घूम रहा था और वह तेज़ लाइटें ऑन हो चुकी थी और एक कैमरा सर पर घूम रहा था जाल की तगड़ी बुनावट पर झल्ला कर रह गई हाथ पांव पटके कंठ से कोई आवाज़ भी नहीं निकली उसने महसूस किया की वह कैद हो गई है तवे पर वह एक रोटी की तरह घूम रही थी शरीर तंदूर पर चिकन की तरह ही भुन रहा था

 ढोलची.

गणेशी मसान से ढोल गले में लटकाए और दोनों बाजुओं को हवा में बेकाबू सा लहराता -, झूमता - झामता कोठारी को लौट रहा था | उसके कदम बेहिसाब उठ रहे थे | उसका मन आज जाने कौन सा धुन अलाप रही थी | थोड़ी - थोड़ी देर में वह अपने आप ही कुछ - कुछ बडबडाता चल रहा था

 " नहीं .....नहीं .....अब कभिच्च नहीं बजाऊंगा , चाहे भूख से क्यूँ मरना पड़े | पैसे के लाने तो कभिच्च बजाऊंगा किसी की मैयत पे " | राह चलते सभी राहगीर उसे पलट - पलट कर ताक रहे थे | जब वह शनिचरी हाट से गुजरा तो दिलावर चचा ने पीछे हे हांक लगाई , बोले -------- " गणेशी ......अरे हो गणेशी , लगता है आज तो बहुत गजबे मालमत्ता हाथ लगे है तभिच्च मैं भी कहूँ साल्ला आज गणेशी के पैर काहे झूम रहा , जुबान काहे काबू धर रहा | "

" नहीं चचा नही , कुछु नही हाथ लगा जो भी मिला रहा हम फैंक आये उनके मुहं पे | "
" पर बड़ा झूम झाम रहा , पांव तो जमीन पर धर ही नहीं रहे तेरे , काहे झूठ बोल रहा रे ........बूढ़े चचा से...? "
" चचा ,..... अब कभिच्च बजाईब ..... .. ...कभिच्च नही | " किसी तरह मन मसोस कर बोला कि एक क्षण को दिलावर चचा सकपका गए | पीठ पर गणेशी के हल्का सा हाथ धर कर बोले -----" गणेशी लल्ला... नई बजाईब तो खइबे का.... ओखर लाने ही तो सब टंटा , अब तो तुम्हरा बाबूजी भी तो जिन्दा बचें है लल्ला ..... घर भर .सबके पेट में का भकोसेगा ......पेट ही तो दुसमन ठहरा हम गरीबन का | " 
" .....चचा नहीं , अब कभिच्च नहीं बजाईब ...... मन में इक फांस खुब गई है , मरने के बाद मसान , मसान के बाद नर्मदा , नर्मदा में अस्थि सिरा कर खाली हाथ लौटना , ढोलची हूँ तो का भया जिया हमरा भी जलता है | एक आग की लपट उठती है , और सारा सरीर खाक ..........धू - धू कर जलता है | सोच रहे हम की ये साला कैसी जिनगी भला ------ जब तक जियो, जिनगी भर पेट की खातिर लात जूते खाओ ,एडियाँ रगड़ - रगड़ कर पिसे जोड़ो अऊ पिसे के लाने भाई - भाई में खूना - खच्चर , बेटे बहू  से दो मुट्ठी भात के लाने करेजा जला - जला कर धुन्धुआ जाती बूढी आँखें | अब जाके  अस्सी साल में मरा बुढहू { बुड्ढा } साले लोग दिन रात मेवा , मिठाई और फल बाँट रहे हैं गरीबो में | अब श्राद्ध के दिन बाम्हनो की पंगत बिठाएंगे .....ढेरों फल , मेवा , मिठाई नर्मद्दा में चढ़ाएंगे , और कहेंगे ..." बाबूजी भूल - चूक माफ़ | खा लो और तृप्त हो लो | अब बुढाऊ खाए क्या ? बुड्ढे के मुहं में दान्त नहीं , पेट में आंत नहीं ......नहीं जनते  क्या साले लोग की सीने में सांस नहीं | दलिद्दर साले .........अब दान पुन .....जीते जी दो मुट्ठी भात को कितना रुलाया | अब मर गए तो ढोलची बुलवाकर पोते - पोती , नाती - नतनी नचाएंगे ........देखो अस्सी साल जीकर मरा है ...तुम्हरा नाना , तुम्हरा दद्दा | थू - थू  है ..........ऐसी जिनगी और ऐसी मौत पर ..........." 


मिता दास के बारे में -
   जन्म -------१२ जुलाई सन १९६१ 
   स्थान -------जबलपुर [.प्र]
   सम्प्रति ------स्वतंत्र लेखन 
   विधा --------कविता ,कहानी ,आलेख ,स्तंभकार ,रेखांकन ,अनुवाद,
साक्षात्कार लेना ​ , संपादन करना आदि |
   संग्रह -------- अंतरमम [काव्य -संग्रह ] बांग्ला भाषा में [ सन ----२००३ में ]
   संकलित ------ कहानी [हरेली ] कथा संग्रह में ,
                         कवितायेँ [हम बीस सदी के ] काव्य संग्रह में ,
                        कवितायेँ [नवा अंजोर के नवा किरण ] काव्य & कथा संग्रह में ,
                        सारा भारत काव्य संग्रह में ------ कविता संग्रहित [बांग्ला भाषा ],
                        साहित्य सेतु काव्य संग्रह में ------ कविता संग्रहित [बांग्ला भाषा में ]
  सम्पादित ------- संग्रह ---- हम बीस सदी के [हिंदी काव्य संकलन के संपादन मंडल में ]
                           पत्रिका ---- धरातल के स्वर ...... पाक्षिक [हिंदी ]
                                            मुक्त कंठ .......... मासिक पत्रिका [हिंदी ]
                                           छत्तीसगढ़ आसपास ....... मासिक पत्रिका [हिंदी ]
                                             सेतु .............. मासिक पत्रिका [हिंदी विभाग ] बांग्ला पत्रिका 
पुरष्कार ------------ हिंदी कहानी प्रतियोगिता में ......कहानी ------''पहलू यह भी '' पुरस्कृत 
सम्मान --------------[] हिंदी सेवी सम्मान  ''कवि रोबिन सुर ''......... उत्तर बंग नाट्य जगत सिलिगुरी[ नोर्थ बंगाल ] सन २००३ में 
                              [] ''हिन्दी विद्या रत्न भारती सम्मान '' कादंबरी साहित्य परिषद्                                                     चिरिमिरी हिल्स  कुरासिया कोरिया [ . .]  
                              []  '' डा . खूबचंद बघेल सम्मान ''   २००५ में 
                              [] प्रसश्ती पत्र  '' हिंदी साहित्य हेतु '' २००५ में 
                              [] '' राष्ट्रभाषा अलंकरण '' २००८ में                                      

प्रसारण ------------- दूरदर्शन ------[ भोपाल से ]  स्वरचित गीतों और नज्मो का प्रसारण 
                              १९९९ में , गायिका ------- तपोशी नागराज ,   
                                             संगीत --------- मुरलीधर नागराज
                              दूरदर्शन ------- रायपुर से स्वरचित कविताओं का पाठ 
                              आकाशवाणी ------- रायपुर से विगत पंद्रह [१५ ] वर्षों से  लगातार 
                                                            स्वरचित कविताओं का पाठ |

                                          पता ----- ६३/ नेहरूनगर पश्चिम , भिलाई , छत्तीस
                                                      गढ़ ...पिन ---- ४९०००२० 
                                          फोन नंबर --- 08871649748 , 09329509050