Monday, December 31, 2012

जी नहीं चाहता नया साल मनाने को



अतुक में कच्चा हूँ तो तुक में गच्चा लेकिन गुजरात में जो कुछ हुआ उसके बाद मउ ( यू.पी>) में बड़े स्तर पर फिर वहीं हुआ तब एक अनायास भाव बन गया था. यह दो जनवरी 2006 की कविता है. इस साल यू पी में जो तेरह दंगे हुए उस लिहाज से मुझे लगा कि गच्चा ही सही इसे आपलोगों को सामने रख दिया जाय. 


जी नहीं चाहता नया साल मनाने को

सोचता हूँ जब मैं हँसने हँसाने को
नया साल काहे, कैसे मनाने को
दस्तक देती है खूनी वो रात
सभी बनना चाहते है अब गुजरात
रहेंगे कभी क्या मोहब्बत में ख़ालिश
बनेंगे कभी क्या धरातल के वारिस
लगे है खुद को मरने मिटाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

अस्मत लूटी थी, जवानी जली थी
जइफ के सिने में गोली लगी थी
खदकती तड़पती उन आँखों से हटकर
कैसे मनाऊँगा यादों से बचकर
रगों में दुखों का काँटा लिए
पैकेट की खुशी और बातें बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

ये नफरत के स्याही है धब्बे है इनके
इनकी ही खाई है इनकी ही काई है
इनकी रवायत है हिदायत है इनकी
इनकी सियासत है आयत है इनकी
रहबर जो चलते रहे साथ मेरे
धरम की लग्गी से मुझको दिए टेरे
ये सियासत मऊ में खतम हो ही जाए
समुंदर का पानी तब चूल्लू में आए
चूल्लू के पानी से उल्लू बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

सोचा था किसने आजादी से पहले
कत्लेयाम होगा आजादी के बाद
धीरे धीरे पर बढ़ते ये गोले
बूझकर भी ये छोड़ जाते है शोले
सफर की पहचान जो मंदिर से होकर
वही जाएगा अपनी मंजिल को लेकर
सपनों की ऐसी तैसी कराने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

क्या मासूम पैरो की पदचाप आएगी
पत्थर पर ऐसी लकीर खिच जाएगी
नाज़ुक हथेली बुझाएगी इसको
सरेयाम गले से लगाएगी मुझको
कहता है कोई पलकों पर आकर
तपिश की कमी की नज़्में बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...
                                                                         शेषनाथ पाण्डेय.

Friday, December 7, 2012

कुंठा भरी डायरी की शक्ति से चीरहरण की लालसा.




मैं अपना सौभाग्य समझूँ या दुर्भाग्य की अब तक श्रवण कुमार गोस्वामी जैसे उपन्यासकार से अब तक अजाना ही रहा. खैर मैं जो भी समझूँ इससे उन लोगों पर क्या फर्क़ पड़ेगा जो तमाशे की तरह साहित्य को देखते हैं और तालियाँ पीटते हैं. इसलिए सबसे पहले श्रवण कुमार गोस्वामी द्वारा रचित और मेरे द्वारा पढ़ी गई उनकी पहली रचना जिसके केंद्र में महुआ माजी का चरित्र है और जिसमें चीरहरण करने की लालसा है, उस पर बात. डायरी के प्वाइंट पर बात इसलिए भी करना जरूरी है कि कई लोग यह भी कहते हैं कि महाशय के द्वारा उठाई गई बातों पर बात करना चाहिए. और मैं भी कोई जज नहीं हूँ कि किसी चीज की विश्वसनीयता के लिए सबूत की बात करूँ. मेरे लिए गोस्वामी की यह पहली रचना है और एक पाठक होने के नाते जैसे मैं हर रचना पर विश्वास करता हूँ, पढ़ता हूँ ठीक वैसा ही विश्वास यहाँ मेरा भी है. लेकिन रचना जो कहती है उसे समझता जरूर हूँ.
 हलाँकि महुआ ने अपनी सफाई में कहा है कि “जहां तक गोस्वामी जी के साथ मेरे तथाकथित पारिवारिक रिश्ते और उनमें किन्हीं कारणों से आई तथाकथित दूरी का सवाल है, मैं इसे एक बेहद निजी मामला समझती हूं, जिससे वृहत्तर साहित्यिक समाज का कोई हित-अहित जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए इन बातों की परत उघाड़कर मैं उस स्तर तक नहीं उतरना चाहती जिस स्तर पर गोस्वामी जी चले गए। वे एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं और उम्रदराज भी। उनके प्रति मेरे मन में जो सम्मान है, मैं चाहती हूं वह बना रहे.”  लेकिन जो बात डायरी के अंशों में हो रही है और उससे जो लेखक की मंशा निकल के आ रही है, उसकी दिली बेदिली चाहत क्या है ; इसे तो पाठकों को समझना ही होगा ? इसलिए अभी कुछ और कहूँ इससे पहले डायरी के प्वाइंट को देखा जाय. तभी पता चलेगा कि सच में महुआ के लेखन को आरोपित किया जा रहा है या कुछ और. आगे डायरी की बातें.
      शनिवार, 17 जुलाई 2004 के डायरी अंश में कुंठित गोस्वामी कहते है कि “ यह लिखा तो अच्छा गया है, पर क्यों तो कभी कभी संदेह होने लगता है... इसमें सौ पृष्ठ में ही तीन स्थानों पर जो चित्रण किया गया है उससे यह लगता है कि लेखिका चर्चित महिला लेखिका बनने के चक्कर में कोई संकोच नहीं करती.” यहाँ यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि कुंठित गोस्वामी की सामान्य भाषा ज्ञान इतनी लचर है कि उन्हें ये भी नहीं पता कि जब लेखिका है तो लेखिका के साथ महिला लगाने का क्या तुक. लेकिन महुआ का दुर्भाग्य रहा कि ऐसे लचर आदमी के पास अपनी भाषा सुधरवाने गई. मैंने भी “मैं बोरिशाइल्ला” उपन्यास पढ़ा है और उन चित्रों से गुजरा है जो बहुत ही स्वाभाविक है. सौ पेज में जितने स्थान आए हैं, जितनी घटनाएँ घट रही हैं और जो परिवेश बुना जा रहा है उस लिहाज से वे चित्र बहुत ही सहज और परिवेशगत लगते हैं. यह अलग बात है कि इसे पढ़ते हुए मैं नामर्द जैसा ही रह जाता हूँ और गोस्वामी जी साठे पर पाठे की उत्तेजना महसूस करने लगते हैं.
दरअसल महाराज उन चित्रों के माध्यम से महुआ के चरित्र में प्रवेश कर जाते है और उनको लगता है कि हो ना हो इसमें महुआ ही है जो एन्जॉय कर के चर्चित होना चाहती है. मुझे पूरी तरह से याद नहीं है फिर भी तीन सौ से ज्यादा पृष्ठ का यह उपन्यास होगा. यह बात गौर करने लायक है कि तीन सौ पृष्ठों के कथानक के कथ्य को सौ पेज में कैसे आँका जा सकता है ?
शनिवार 31 जुलाई 2004 के अपनी डायरी में गोस्वामी जी चित्रित करते है कि “ इस उपन्यास के बारे में अब तक मेरी कोई निश्चित राय नहीं बन सकी है। लेकिन इतना मैं कह सकता हूं कि चूंकि यह उपन्यास एक रूपसी का है, इसलिए लोग इसे फुलाएंगे जरूर। महुआ को अभी ही ऐसा सत्कार मिल चुका है कि वह गलतफहमी में जीने लगी है। कभी-कभी मुझे ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में अपना कुछ गंवा भी सकती है.”
      महाशय की इस आशंका में साफ जाहिर होता है कि उन्हें इस बात की जलन है या कोई ईर्ष्या है कि महुआ को “कुछ” ज्यादा मिल जाएगा. यही नहीं वो महुआ को रूपसी मानते है. जाहिर सी बात है यहाँ पर महुआ को अपनी बहन, बेटी, भतीजी या ऐसे किसी पारिवारिक रिश्ता के रूप में नहीं देख रहे हैं. अगर वे ऐसा देखते तो शायद इस भाषा का इस्तेमाल नहीं करते और अपनी राय भी कायम करते. और तब तो और भी जब उन्हें “ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में अपना कुछ ( “कुछ” प्वाइंट टू बी नोटेड मायलार्ड कि एक रूपसी की कुछ गंवाने की बात) गंवा भी सकती है.”
बुधवार 11 अगस्त 2004 में गोस्वामी जी कहते है कि “ उसने (महुआ) स्वीकार किया कि मैत्रेयी पुष्पा और जया जदवानी के प्रभाव के कारण उसने सेक्स को स्थान दिया.” यहाँ बहस की बहुत गुंजाइश है लेकिन एक बात तो साफ है कि हर दौर अपने चित्रण में एक नया आयाम रचता है, जिसमें पूर्व निरधारित चीजों के साथ कुछ और नई रेखाएं जुड़ती हैं. किसी के प्रभाव द्वारा सेक्स को स्थान देने का मतलब यह नहीं हो सकता है कि उससे चर्चित होना ही है. ऐसा रिश्ता यथार्थ से करीबी का भी हो सकता है और कोई लेखक या लेखिका ऐसा चाहती है तो ऐसा होना भी चाहिए. पहले तो बहुत साये में बाँध कर स्त्री या पुरूष के अंगों का जिक्र किया जाता था. उनके संबंधो की बात की जाती थी. लेकिन जैसे जैसे लेखन यथार्थ और उसकी कुरूपता की ओर मुड़ता गया उसके लिए यह बहुत जरूरी है कि पूरे सेंस के साथ वो चित्र उभर कर आए. मैत्रेयी के साथ कई लेखिकाओं ने बेबाकी से उन चित्रों को प्रस्तुत किया है. इस लिहाज से अगर कथानक के अनुरूप अगर कोई वैसा तथाकथित चित्र बन रहा है तो उससे बचना अपनी रचना को परिवेश इतर करना, उसे रूढ़िगत करना और उसकी प्रासंगिकता को कमतर करना होगा.
मन्नू भंडारी आपका बंटी में, कृष्णा सोबती सूरज मुखी अँधेरे में, अमृता प्रीतम नागमणि में अगर सेक्स दृश्यों को उपस्थित करती है तो इसका मतलब ये तो नहीं हुआ कि उन्होंने चर्चा पाने के लिहाज से ऐसा किया है. साथ ही बहुतेरे लेखकों ने भी सेक्स का चित्रण किया है. राजकमल, कृष्ण बलदेव वैद ने खुलकर लिखा है. काशीनाथ की भाषा और उनकी चित्रॊं से दुनिया वाक़िफ हैं. फिर महुआ जब उपनी बात को कहने के लिए मैत्रेयी और जया को संदर्भ के रूप में रखती है तो इसमें कौन सी बड़ी बात है. कुल मिलाकर महुआ की बात को  (डायरी की बात सत्य मानते हुए कि ऐसा उन्होंने कहा होगा ही) यहाँ एक संदर्भ के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि मैत्रेयी और जया के लेखन ने इस दौर के साहित्य में उन चित्रों के माध्यम से एक बहुकोणीय चित्र बनाया है और ये सारे चित्र सेंसर के लिए नहीं है. सब का सेंस होता है यह अलग बात है कि गोस्वामी जी को इसमें एक ही सेंस नजर आता हो.
      बुधवार 6 अक्टूबर 2004. गोस्वामी जी अपनी छद्मता को जाहिर करते है कि “महुआ माजी पेस्ट्री लेकर आई. मैंने नाराजगी प्रकट की. मैंने पहले ही उसे लाने से कुछ रोक दिया था. पेस्ट्री में अंडा होता है इसी आधार पर मैंने उसे लौटा दिया.” यहाँ हम गोस्वामी जी को शाकाहारी होने की तारीफ़ कर सकते है, लेकिन खुद शाकाहारी होने के बाद भी मैं इसे तारीफ के लायक रत्ती भर नहीं समझता हूँ. लेकिन गोस्वामी जी का अब्जरवेशन देखिए कि महुआ उनके पास जो कुछ भी ला रही है, दे रही है, उनकी बीवी से घुलमिल रही है इसमें उनको लगता रहा है कि सारा कुछ उन्हें पटाने के लिए किया जा रहा है. ऐसा लगते हुए भी वो नए परिच्छेद पर काम करते जा रहे हैं. क्या इस बात की कोई गुंजाइश नहीं है कि कोई किसी के पास मिठाई बिना यूज करने के लिए ले जाता होगा. हमारे देश में मिठाई ले जाना एक आम चलन है. महुआ भी एक इंसान है वो भी रिश्ते नाते को जीती होंगीं. अपनों के पास आती जाती होगी. खाली हाथी कहीं जाने में उसे संकोच होता होगा. यहाँ पर महुआ की आकांक्षा को सिर्फ़ यूज करने के रूप में ही क्यों देखा जाय ? खैर !
      शनिवार, 13 नवंबर 2004 में गोस्वामी जी कहते है कि “ उसने (महुआ) ने बताया कि आधार प्रकाशन उसके उपन्यास के लिए अग्रिम के रूप में पचास हजार देने को तैयार है। वह बहुत सारी बातें बोल गई। जो स्थितियां बन रही हैं, वे महुआ का दिमाग चढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। मैं उसे समझाने की स्थिति में नहीं हूं, क्योंकि वह इतनी प्रबुद्ध नहीं है कि मेरी सीख पर ध्यान दे सके। उसे परिपक्व होने में समय लगेगा। वह यह नहीं समझ पा रही है कि लोग उसके उपन्यास की नहीं अपितु उसके रूप की कीमत लगा रहे हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह किसी दुर्घटना का शिकार न बने.” अब यहाँ क्या कहाँ जाय!!! जो महुआ अपना काम निकलवाने के लिए मिठाई ला सकती है. प्रकाशन के दबंगई दौर में आधार प्रकाशन से अग्रिम  राशी ले सकती है. वो महुआ गोस्वामी जी की नज़र में इतनी प्रबुद्ध नहीं है कि उनकी सीख पर ध्यान दे सके. महाराज बेचैन है कि महुआ कितनी कच्ची है. उनको पुख्ता पता चल गया है कि महुआ के साथ जो कुछ भी हो रहा है सब उसके रूप का कमाल है. अगर महाराज को सच में महुआ के अबोधपने से दुर्घटना का शिकार होने का डर होता तो क्या चुप लगा जाते ? कोई हमें बताएगा कि किसी का कोई अपना (भले ही उसे खून का रिश्ता न हो ) दुर्घटना की तरफ जाए और वो चुप लगा जाय ? आखिर कौन सी ऐसी बाध्यता थी जिस वजह से महाराज अपना विरोध दर्ज नहीं कर पा रहे थे. क्या उन्हें इस बात का डर सता रहा था कि महुआ से अपनी राय बता देने पर वो नाराज हो जाएगी. महाराज के लिए यहाँ क्या महत्वपूर्ण है. महुआ की नाराजगी या महुआ की दुर्घटना ?
      बुधवार, 1 फरवरी 2006  के महुआ किताब उनको भेंट करने की वजाय खगेंद्र को देती है. हाय रे इतनी नाइन्साफी ? ये भी बर्दाश्त करने की बात है महाराज ? फिर आगे के अंशो में पता चलता है कि बहुतों को महुआ ने अपनी किताब दे दी हैं लेकिन गोस्वामी जी के पास किताब नहीं पहुँची है. फिर भी उनका इंतजार तो देखिए. गोस्वामी जी इस इंतजार में है कि “यदि यह औरत अब अपना उपन्यास मुझे देने के लिए आई तो मैं उपन्यास नहीं लूँगा.” इंतजार की भी हद होती है गोस्वामी जी !!! आखिर इतना भी इंतजार उसके लिए क्यों जो आपके ब्रेन स्ट्रोक के बाद भी हाल चाल लेने नहीं आई ? आखिर उस औरत का इतना इंतजार क्यों. जबकि कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसके ज़िंदगी में किसी ने अहसानफरामोशी न की हो. इस दौर में तो सब इसके अभयस्त है. फिर उस औरत का इतना इंतजार क्यों ? होगा क्यों नहीं. कैसे कोई रूपसी जो अभी उतनी प्रबुद्ध भी नहीं है कि महाराज की बात समझ सके और महाराज को इगनोर कर दे. काश मेरी बात गलत साबित हो सकती. लेकिन जो दिख रहा है उसको क्या कहा जाय ?
      ये तो रही बात डायरी और उसके निहितार्थ की. बच्चन जी ने अपने आत्मकथा में जिक्र किया है कि “कलम से बड़ा कोई मुखबिर नहीं हो सकता.” और यहाँ पर महाराज ने मेरे लिए अपनी पहली रचना में साबित कर दिया है कि उनकी राइटिंग कितनी छद्म, कितनी छिछली और चीरहरण की लालसा से दूषित है. मेरी लिए यह अच्छा ही रहा कि मैं इनकी और रचनाओं से अगर लिखा भी होगा, है भी (लोग बता रहे है कि बड़े प्रकाशन से किताबें आई है) तो अपरिचित रहा. लेकिन आगे की बात के लिए कुछ प्वाइंटर जरूरी है. पहली बात, न्याय में देरी एक तरह से अन्याय है. महाराज को जब मालूम चल गया था कि महुआ की यह रचना किसी और की रचना है और जो कुछ भी है उसमें महुआ का कम, किसी और का ज्यादा है तो ये अब तक चुप क्यों लगाए रहे ? कौन सी चाहत थी इसके पीछे ? आज ऐसा कर के किस के साथ न्याय कर रहे है ? क्या हिंदी साहित्य के पाठकों के सामने खुलासा कर के जाहिर करना चाहते है कि पाठकों सावधान हो जाओ यहाँ रचनाएँ चोरी होती है ? यह बात पहले भी तो हो सकती थी ? आखिर किस बात का इंतजार कर रहे थे उपन्यासकार ? डॉक्टर दिनेश्वर प्रसाद के मरने का इंतजार कर रहे थे कि वो अपनी बात अपने तरीके से कह सके और अपने प्रति हुए अपमान का बदला एक सजग दुश्मन की तरह समय पर निकालेंगे ?
      भोजपुरी में एक कहावत है “खेलब ना खेले देब खेलवे बिगाड़ देब.” अपना तो कुछ लिखना नहीं है अगर कोई और लिख रहा है तो उसके रास्ते का काँटा कैसे बने. और यहाँ तो गोस्वामी जी इतने तमतमाए है जैसे कोई एक पक्षीय प्रेम में जला हुआ प्रेमी खुद को नकारात्मक कर लेता है.
      अगर कोई व्यक्ति जिसने बंग्ला भाषा में इसे लिखा था तो उसके पास इतना गूदा क्यों नहीं था कि यह उसे पूरा कर सके. अब वह आदमी कहाँ है ? एक बात यह भी है कि उसने इसे बांग्ला में लिखा था. अगर मैं यहाँ अनुवाद के कार्य को भी सर्जनात्मक ना मानू तो भी यहाँ मैं ध्यान दिलाना चाहूँगा कि दूसरी भाषा की थीम या उसकी चीज को जो किसी और भाषा में रचित होती है तो उसकी ताक़त कही से कम नहीं होती और वह मौलिक भी होती है. कई रचनाएँ ऐसी हुई भी है. निराला की “राम की शक्ति पूजा” में भी लोग कहते है कि उसमें बांग्ला की रामायण कथा है. विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र के जीवन पर आवारा मसीहा लिखा. इसमें कई बांग्ला की रचनाओं को संदर्भ में लिया गया है लेकिन जो चीज़े तैयार हुई उसको देखिए. कहा जाता है कि ऐसी ऑथेंटिक जीवनी बांग्ला में भी नहीं हैं. यहाँ आप कह सकते है कि विष्णु प्रभाकर ने सारे संदर्भ का जिक्र किया है. लेकिन महुआ ने नहीं. लेकिन यहाँ यह देखना भी जरूरी है कि शरतचंद्र की जीवनी हैं और मैं बोरिशाइल्ला फिक्शन है. इस लिहाज से आभार साभार की बातें तो लेखक अपने संस्मरणों, अपनी रचना प्रक्रिया, अपनी आत्मकथा में भी कह सकता है. उसके लिए इतनी जल्दी क्यों ? लेखिका का यह पहला उपन्यास है. उपन्यास में उन्हें नहीं लगा होगा कि एक अलग से बात अपनी रचना उत्स और उसकी प्रक्रिया के बारे में किया जाय तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई ? हो सकता है इसमें किसी और की थीम हो. लेकिन वह थीम किस रूप में हमें मिली है यह भी तो देखने की बात होगी ? थीम हम कहीं और से उठाते भी नहीं हैं. हम जो देखते हैं, सुनते हैं और हमारे लिए उसमें से जो हांट करता है उसे उठा लेते हैं. पचास पेज के इंटरव्यू से तीन सौ से ज्यादा पेज का फिक्शन लिख लेना कोई जुए का खेल है क्या ? फिर भी मैं कहता हूँ कि मेरी बातें गलत साबित हो जाय लेकिन डायरी जो कह रही है उस पर गौर करने लायक बातें हैं और उन बातों में डायरी लेखक को महुआ की रचना से कोई मतलब नहीं. यहाँ महत्वपूर्ण है महुआ का गोस्वामी जी को तवज्जो न देना.
       
      मरंग गोड़ा निलकंड हुआ पर भी महाराज को आपत्ती है. लेकिन उस पर बात करने की मुझे कोई वजह नहीं दिखती, क्यों कि उस पर ऐसे आरोप महाराज ने लगाए है कि मैं दावे से कह सकता हूँ कि साहित्य की समझ मेरे हिसाब से महाराज को नहीं है. यह भी हो सकता है कि यहाँ मेरा हिसाब बेहद नासमझ भरा हो लेकिन मैंने तो किसी भी रचना पर ऐसी कोई बात नहीं सुनी है जिसमें कोई आलोचक या रचनाकार किताब पर बात करने से पहले अपने अपमान में पगलाया हुआ हो या आभार पाने के लिए बेचैन हो. जाहिर सी बात है गोस्वामी ने जो भी किताब पर बातें की है दरअसल वह कोई बात ही नहीं एक हथियार का प्रयोग है जिससे वे महुआ का चीरहरण करना चाहते हैं.
लेकिन एक यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि महाराज को जब महुआ ने अपना दूसरा उपन्यास “मरंग गोड़ा निलकंठ हुआ” दिया तो मन मार कर ले लिए. क्यों ? इसलिए कि महाराज समारोह में कोई दृश्य उपस्थित करना नहीं चाहते थे. क्या बिना दृश्य उपस्थित किए अपनी नाराजगी नहीं जाहिर किया जा सकता है ? वो भी एक ऐसा आदमी जो अपमान और आभार की आग से लगातार सुलझ रहा हो ? मेरी हर बात पर महाराज के सामने सवाल ही उभर रहा है लेकिन मैं क्यों अब और सवाल करूँ जिसकी मंशा हमें समझ में आ गई हो.
      लेकिन यहाँ पर साहित्यिक तमाशाकारों पर बात करना भी जरूरी लगता है. कुछ लोग साहित्य में दुशासन दल के एजेंडा को मान कर चलते हैं. उन लोगों के लिए साहित्य एक खिलवाड़ है और वे साहित्य की अपनी भूमिका के रूप में रस रंजन करना चाहते है. अगर ऐसा नहीं होता तो सुभाष चंद्र कुशवाहा कहीं जाते तो यह देखने में थोड़ी ही लगे रहते कि कौन लेखिका किस ड्रेस में है. उस पर क्या बातें हो रही है ? बाकी सरोकार से उनको कोई मतलब नहीं होता. उनके लिए जरूरी है कि लेखिका दिन भर में कितनी साड़ियाँ बदलती है. कौन कौन लोग लेखिका के बारे में क्या बातें कर रहे है ? वाह रे हमारे सामाजिक संघर्ष और सरोकार के झंडाबरदार लेखक. किसी सुंदर स्त्री का गुणी होना इस कदर खटक सकता है ?  गोष्ठियों में आप कैसे सरोकार ले कर जाते हैं ? मेरे खयाल से इसीलिए पाठक इनकी कोई रचना पूरी पढ़ नहीं पाता. आधी कहानी भी पाठकों के लिए अझेल हो जाती है. महुआ अगर दिन भर में तीन साड़ियाँ बदलती है या तीस उस से किसी का क्या जाता है. एक लेखिका को क्या शौक करना गुनाह है. उसकी अपनी आदतों और अपने तरीके से जीने के लिए किसी के मानक को अपनाना जरूरी है ? और वह भी ऐसे लोग है जो बिना पेंदी के लोटे हों ?
हलाँकि मैंने भी महुआ को तीन गोष्ठियों में देखा सुना है. साल 2006 में कोलकता युवामहोत्सव में (भारतीय भाषा परिषद के कार्यक्रम में), कथाक्रम 2006 में और संगमन जमेशेदपुर (2006)  में. लेकिन मैंने तो ऐसी कोई बात रीड नहीं की. और अगर ऐसा महुआ करती भी है तो इसमें किसी के बाप का क्या जाता है ? क्या स्त्री को हमेशा अभागन पीड़ित और मजबूर ही दिखना चाहिए ? और इन सब बातों को कहने का क्या मतलब है. यह तो ठीक उस घोर सामंती कूढ़ मगजी बात है कि किसी स्त्री की गलती (यहाँ गलती को भी कटघरे में खड़ा किया जा सकता है) को उसके चरित्र से जोड़ दिया जाय. अगर एकबारगी किसी को यह लगता भी है कि महुआ ने इस उपन्यास की चोरी की है तो क्या उसके लिए यह कहना जरूरी है कि उसने मेरा अभार चुरा लिया, मुझे सम्मान नहीं दे रही. दिन भर में वह कितनी साड़ियाँ बदलती है या रूपशी को कितने और कैसे कैसे लोग इंतजार करते है ?
क्या इसके लिए जरूरी नहीं होता कि हम महुआ की और रचनाओं पर बात करें. महुआ ने तो बहुत अच्छी कहानियाँ भी लिखी है. लेकिन महुआ की रचना से किसी को मतलब रहता तब तो. खैर ! आखिर में विमल चंद्र पांडेय की पोस्ट से अपनी बात खत्म करता हूँ जिसमें वे कहते है कि “मैं नहीं जानता लेकिन ये तो सभी देख रहे हैं कि बिना सबूत के श्रवण जी के साथ बहुत लोग महुआ के खिलाफ सिर्फ 'औरत है तो क्या खाक लिखेगी' वाली भावना के साथ खड़े हुए जा रहे हैं.” यह स्थिति महुआ सहित पूरे साहित्यिक माहौल के लिए खतरनाक है जिसे अनदेखी करना कतई ठीक नहीं होगा.
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Sunday, December 2, 2012

विमल चंद्र पाण्डेय का उपन्यास : दसवीं किश्त

अब तक आप विमल चंद्र पाण्डेय के उपन्यास की नौ किश्तें पढ़ चुके हैं जिसमें हमने सोलह इकाइयों को रिलिज किया हैं. इस बार हम आगे बीसवीं इकाईं तक प्रस्तुत कर रहे हैं और यह प्रस्तुति फिलहाल के लिए आखिरी या एक विराम होगी. यहाँ तक का हिस्सा अपने अंतिम रूप में है लेकिन इसके आगे की कड़ियों में और काम किये जाने की सम्भावना के मद्देनज़र इसे लेखक ने फिलहाल रोकने का आग्रह किया है. ख़ुशी की बात यह है कि काफी लम्बे अंतराल पर ही सही उपन्यास लगभग पूरा हो चुका है. इस महीने के अंत तक यह अपने अंतिम स्वरुप में होगा और हम चाहेंगे कि इसके बाद यह फिर से हमारे पाठकों के लिए उपलब्ध हो...फ़िलहाल विमल के पहले उपन्यास के लिए उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ...आप सबकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का स्वागत है.


(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है दसवीं  और फिलहाल के लिए आखिरी किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)




17.

सुनील और आनंद रिंकू के कमरे पर काफ़ी पहले पहुंच गये थे और राजू थोड़ी देर बाद पहुंचा था। बीच का अंतराल अच्छा खासा लम्बा था लेकिन रिंकू अब तक तैयार नहीं हो पाया था। राजू ने पहुंचते ही गुहार लगायी कि जल्दी निकला जाय लेकिन रिंकू अपनी शर्ट को लेकर थोड़ा संशय में था।
´´यह वाली सही है कि पहिलकी वाली ही ठीक थी....देखना।´´ उसने गोल घूम कर दिखाया। सुनील और आनंद दोनों ने रज़ामंदी दे दी कि यही ठीक है और अब जल्दी निकलना चाहिये।
´´सही लग रहा है.´´ उसने राजू से पूछा।
´´पहले कौन वाली शर्ट पहने थे ?´´ राजू ने पूछा।
आनंद और सुनील इस सवाल पर यह सोच कर झल्ला गये कि अब फिर से रिंकू राजू को पुरानी वाली शर्ट पहन कर दिखायेगा और समय बर्बाद करेगा।
´´भाग्साले....फिर नरक करोगे ? अबे सही है ये शर्ट। चलो...।´´ आनंद ने शोर मचाया तो रिंकू गंभीर हो गया।
´´तुम लोगों को समझ में नहीं आ रहा है ? हम बहुत टेंशन में हैं यार। कायदे से यही तो पहली मुलाक़ात होगी...।´´ रिंकू ने भावुक आवाज़ में कहा तो वहां मौजूद लोग और लोग भी थोड़े भावुक हो गये।
´´इस पैण्ट पर हल्के कलर की शर्ट ज़्यादा मस्त लगेगी।´´ राजू ने राय दी तो रिंकू सोच में पड़ गया।
´´यार हल्के रंग की है तो मगर साफ नहीं है।´´
अचानक आनंद और सुनील दोनों की नज़र एक साथ राजू की शर्ट की तरफ़ गयी।
´´ये बहुत मस्त लगेगा तुम्हारे पैण्ट पर....।´´ राजू ने थोड़ी देर रिंकू की पैण्ट की ओर देखा और अपनी शर्ट की तरफ। ´´मस्त कॉंबिनेशन रहेगा।´´ वह अपनी शर्ट उतारने लगा तो रिंकू ने अपनी शर्ट उतार दी। दोनों ने एक दूसरे की शर्ट पहनी और नया-नया महसूस किया।
´´क्या प्लानिंग है वैसे ?´´ राजू जो कि थोड़ा देर से पहुंचा था पूरा प्लान जानना चाहता क्योंकि उसी से उसका भी प्लान जुड़ा था।
´´उसकी मां घर जाएगी आधे घण्टे बाद खाना बनाने....।´´ रिंकू ने प्लान बताना शुरू किया तो उसके चेहरे पर व्योमकेश बख्शी वाली चपलता उतर आयी। सब ध्यान से सुन रहे थे क्योंकि प्लान में सबकी अपनी-अपनी भूमिका थी। ´´हम मान लेते हैं कि समय की कमी की वजह से वह सबसे आसान खाना यानि खिचड़ी भी बनायेगी तो बनाने और सुक्ला को खिलाने में कुल मिलाकर एक घण्टा तो लगेगा ही। हम इस समय को कम करके सिर्फ़ पैंतालिस मिनट मानते हैं तो हमारे पास अपने काम में कामयाब होने के लिये पंद्रह मिनट हैं ताकि हमारे पास अपने-अपने समान के साथ बतियाने के लिये कम से कम आधा घण्टा आराम से रहे। अब प्लानिंग को एक बार और दोहरा लेते हैं। सुनील.....।´´ पूरी प्लानिंग की रिहर्सल करने में पांच मिनट और लगे और इसके बाद चारों दोस्त जब सज संवर कर कमरे से बाहर निकले तो देख कर लग रहा था कि रिंकू की शादी है और बाकी तीनों बाराती हैं।
´´ट्यूबलाइट का भाई कहां है ?´´ सुनील ने पूछा।
´´वह वहीं पर मिलेगा।´´ रिंकू ने आश्वस्त किया।
                रिंकू ने कमरे का ताला बंद किया और चाभी जेब के हवाले करते हुये बोला।
´´कोई सिगरेट नहीं पीयेगा कि मुंह न महके...। लड़कियों को सिगरेट की महक पसंद नहीं होती।´´ रिंकू ने बड़े बुज़ुर्ग की तरह फ़रमान सुनाया। सबने सहमति में सिर हिलाया।
´´क्या बता रहे थे तुम बे कि चतुर्वेदिया पिटा रहा था ?´´ आनंद ने उत्सुकता ज़ाहिर की।
´´हमको तो कल यही बताया कि चतुर्वेदिया अब लड़कों को छोड़कर लड़कियों में इंट्रेस्ट लेने लगा है।´´ रिंकू ने राजू की ओर इशारा किया।
´´तुम साले दिये नहीं उसको.....कितना पीछे पड़ा था तुम्हारे....।´´ सुनील ने चुटकी ली।
सब हंसने लगे।
´´सुने हैं कोई नयी पेंटिंग बना रहा है....।´´ रिंकू ने माउथ फ्रेशनर मुंह में डालते हुये कहा।
´´किसके लिये ?  सोनिया गांधी के लिये ?´´ राजू ने पूछा।
´´ नहीं बे इस बार प्रियंका गांधी के लिये।´´
ग्रुप में एक बार फिर हंसी का फुहारा छूटा।
18.

शेरसिंह जब चिंतित मुद्रा में क्रांति की बातों पर विचार करते घर पहुंचे तो उनके विचारों की श्रृंखला फिर एक आघात से टूटी। शुक्ला जी ने उन्हें गेट पर से ही भगाते हुये आदेश दिया कि वह शुक्लाइन को लेकर आयें क्योंकि शुक्लाजी को बहुत तेज़ भूख लगी है। उन्हें कॉलोनी कुत्ता संघ के पदाधिकारियों और सदस्यों की बात सही महसूस होने लगी। वह वापस थके कदमों से जागरण स्थल की ओर लौट पड़े कि मालकिन को बुला लाया जाय। शुकलाइन ने शेरसिंह की सिर्फ़  एक भूंक पर ही मामला समझ लिया और उठने का उपक्रम करने लगीं।
´´कहां....?´´ दरोगाइन ने पूछा जब उन्होंने देखा शुक्लाइन अपने दोनों घुटनों पर ज़ोर देकर उठने की कोशिश कर रही हैं।
´´आव....तानी पंडीजी के खाना खिया के।´´ वह खड़ी हो गयीं।
´´अरे भाई साहब को भी ले आइये।´´ दरोगाइन ने कहा। पूरे कॉलोनी के मर्द उनके भाई साहब थे और वह सबकी भाभी होने के नाते किसी से भी कभी कोई भी भद्दा मज़ाक कर सकतीं थीं जिसका इंतज़ार सारे भाई साहब बड़ी बेसब्री से करते थे।
                शुक्लाइन उठीं और शेरसिंह के पीछे-पीछे चल दीं। शेरसिंह ने वहां मौजूद कुत्तों की तरफ़ एक नज़र देखा जो व्यंग्य भरे भाव से उन्हीं की ओर देख रहे थे। उन्होंने नज़रें घुमा लीं। शुक्लाइन के मन में एक बार आया कि दरोगाइन को कह जांय कि वह दोनों लड़कियों पर नज़र रखें पर अगले ही पल उन्हें अपनी बेवकूफ़ी का एहसास हुआ कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो दरोगाइन तिल का ताड़ बना कर पता नहीं कॉलोनी में क्या खबर फैला दी। उन्होंने चालाकी दिखायी और घर पहुंच कर उन्होंने शेरसिंह को वापस मंदिर जाकर लड़कियों पर नज़र रखने की हिदायत दे दी। शेरसिंह इस आदेश से बहुत खुश हुये और कुलांचें, जो कि कुत्तों के भाषण से खाली हो चुकी थीं, भरते हुये मंदिर की ओर चल पड़े।
                शेरसिंह जैसे ही मंदिर के लिये मोड़ पर मुड़े, उनकी नज़र एक कुतिया पर पड़ी जो बीच रास्ते में आराम फरमा रही थी और स्कूटर मोटरसायकिल वालों को हार्न बजाने के बावजूद अपनी गाड़ियां बगल से मोड़ कर ले जानी पड़ रही थीं। कुतिया हॉर्न की आवाज़ों पर कोई तवज़्ज़ो नहीं दे रही थी कि और शेरसिंह उसकी इस दबंगई और बेफि़क्री से बहुत प्रभावित हुये। उन्हें लगा कि उन्हें अपनी समस्या के बारे में उससे कुछ राय करनी चाहिये और वह मंदिर न जाकर उसकी ओर बढ़ गये।
                मंदिर में कीर्तन अपने शबाब पर था जब ट्यूबलाइट का भाई जाकर सविता और अनु के बगल में बैठ गया और आंखें मूंद कर कीर्तन में हिस्सा लेने लगा। उसने थोड़ी देर बाद आंखें खोलीं और अपने आसपास देखा। जब सभी औरतें कीर्तन में व्यस्त थीं तो उसने सविता के कंधे पर धीरे से छुआ। सविता थोड़ा झुक गयी और उसकी बातें सुनने लगी। उसकी बातें सुनकर सविता के चेहरे के आत्मविश्वास और ख़ुशी में कई गुने का इज़ाफ़ा हुआ। जब वह वहां से चला गया तो सविता ने पांच मिनट बीतने की इंतज़ार किया और पूर्ववत् कीर्तन करती रही। ठीक पांच मिनट बाद, जब `मुझे दिल ना देगी जब तक पीछा करुंगा तब तक´ की तर्ज पर `मुझे वर ना देगी जब तक भक्ति करुंगा तब तक´ भजन पर औरतों के झूमने की गति थोड़ी धीमी हो गयी थी और वे सावधान से विश्राम मुद्रा में आ चुकी थीं, सविता के मोबाइल पर एक फोन आया। उसने मोबाइल हथेली में लिया तो दरोगाइन और श्रीवास्तवाइन ने झांक कर कॉलर का नाम देखने की कोशिश की लेकिन तब तक सविता लपक कर फोन रिसीव कर चुकी थी।
´´हैलो, हां प्रतिमा....बोलो।´´
´´हैलो....हैलो तुम्हारी आवाज नहीं आ रही है।´´
´´हैलो.....अरे हम जागरण में हैं इसलिये हल्ला हो रहा है।.....आंय....क्या.....घर पे ? अच्छा अच्छा...हां हां...। ठीक है....आते हैं हां हां अच्छा तैयार होवो हम आ रहे हैं।´´
                फोन काटने के बाद सविता ने वहां मौजूद आंटियों से, जो एक तरह से उसकी मां की अघोषित मुखबिर थीं, कहा कि वह प्रतिमा को लेने के लिये उसके घर जाना चाहती है। प्रतिमा पैरों से थोड़ी लाचार थी और उसे कहीं बाहर निकलने के लिये एक हल्के से सहारे की ज़रूरत पड़ती थी। आंटियों ने सविता को उसके इस प्रस्ताव पर उसे साधुवाद दिया और ध्वनिमत से इसे पारित कर दिया। हालांकि एक मिनट को दरोगाइन के मन में आया कि जब प्रतिमा की मां गांव गयी है और उसके घर में कोई नहीं है तो उसका जागरण में आना इतना ज़रूरी क्यों है। लेकिन अपने इस विचार को वह ये सोच कर दबा गयीं कि कहीं सचमुच ही वह देवी के दर्शन करना चहती हो तो उसके विशय में गलत सोचने पर उन्हें पाप पड़ेगा।
                सविता जैसे ही कॉलोनी के मोड़ पर मुड़ी, उसे सामने से आता रिंकू दिखायी दिया जिसके होंठो पर मुस्कान थी। सविता ने फुर्ती से अपने आगे-पीछे अगल-बगल एक नज़र में देख लिया और निश्चिन्त हो गयी। उसका मन हो रहा था कि वह दौड़ कर रिंकू की बांहों में समा जाये मगर वह अपने आपको संयत किये रिंकू के पीछे-पीछे चल पड़ी। रिंकू कॉलोनी के अगले मोड़ से उस जंगल की ओर मुड़ गया जिसके किनारे से पांच नम्बर फाटक नज़र आता था।
                सविता के बताये अनुसार अनु थोड़ी देर बाद उठी और एक ओर चल पड़ी। उसकी पहरेदारी में दरोगाइन समेत कोई महिला उत्सुक नहीं थी तो इसके पीछे कई कारण थे। एक तो वह बहुत दबंग लड़की थी जो किसी को कभी भी कुछ भी कड़वा बोल देने के लिये कुख्यात थी, दूसरे कॉलोनी में उसकी छवि अपने पीछे घूम रहे लड़कों को बुरी तरह बेइज़्ज़त करने वाली लड़की की थी जिसके मन में लड़के नाम की प्रजाति के लिये मुहब्बत तो दूर, ज़रा भी सुहानुभूति तक नहीं थी। अनु ने जागरण स्थल के पीछे जाने पर पाया कि राजू जींस की दोनों जेबों में हाथ डाले बेसब्री से टहल रहा है और उसका इंतज़ार कर रहा है। वह वैसे तो लड़कों को अपने आस-पास फटकने भी नहीं देती थी लेकिन राजू उसे बहुत अच्छा लगा था, दूसरे दीदी का व्यवहार उसे प्रेम करने को प्रेरित कर रहा था। दीदी जब से सामने की बालकनी वाले लड़के के प्रेम में पड़ी थी, सबसे हंस कर बात करती थी और मां की कड़वी से कड़वी बात पर न विचलित होती थी न उसका जवाब देती थी। उसे लग गया था कि प्रेम ज़रूर कोई जादुई चीज़ है और वह भी इसका स्वाद ज़रूर चखेगी। यह राजू की किस्मत ही थी कि ऐसे विचारों के बीच उसने ही सबसे ज़्यादा कोशिश की और अपनी सफलता के बाद से आजकल वह `कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती´ कविता ग्रुप में हर परिस्थिति में सुनाता रहता था।
अनु जैसे ही राजू की ओर बढ़ी राजू क्वार्टर्स के पीछे वाले हिस्से की ओर चल पड़ा जहां अमूमन दिन में भी सन्नाटा होता था।
                सुनील अपनी योजना के मुताबिक जागरण के पंडाल के पीछे टहलता हुआ सिगरेट पीने लगा और किसी भी तरह के संभावित खतरे की टोह लेने लगा। थोड़ी दूरी पर उसे शुक्ला के घर का पालतू कुत्ता भी दिखायी दिया जो एक कुतिया के आगे-पीछे टहल रहा था। सुनील को न जाने क्यों लगा कि उसके दोनों दोस्त जो लौण्डियों के पीछे गये हैं, कुत्ते जैसे ही हैं। वह उनसे अधिक ज़िम्मेदारी का काम कर रहा है और इस तरह उन दोनों कुत्तों से बेहतर है जो खुद को ´दिलवाले दुल्हनियां...´ का शाहरुख़ और ´प्यार किया तो डरना...´ का सलमान समझ रहे हैं। ऐसा सोचने से उसका बिना गर्लफ्रेण्ड होने का, जिसे ग्रुप में रंड़वा होना कहा जाने लगा था, दुख काफी हद तक कम हुआ और वह अपने आप को डॉन का अमिताभ बच्चन समझता हुआ लम्बे कश लेने लगा मानो रोमांटिक बातें उसे बहुत बोर करती हों।

19.
सविता हर लिहाज़ से रिंकू से अधिक पढ़ी-लिखी ही नहीं, उससे अधिक समझदार (जिसे अंग्रेज़ी में मैच्योर कहा जाता था और जिसके लिये हिंदी में कोई सटीक शब्द नहीं था) भी थी और इस बात को रिंकू के ग्रुप में सब मानते थे। रिंकू के मन में भी थोड़ा संशय इस बात को लेकर ज़रूर था कि यह लड़की उससे उम्र में भी बड़ी और पढ़ाई (अगर सूत्रों की मानें) में भी अधिक है, कहीं उसने रिंकू को हल्के में ले लिया तो इस डर के मद्देनज़र रिंकू ने पैण्ट की जेब में विल्स नेवी कट की एक पैकेट रख ली थी जिसमें चार-पांच सिगरेटें शेष थीं। अगर सविता ने अपने बड़े या समझदार होने का कुछ रोब दिखाया तो फिर रिंकू को फॉर्म में आ जाना था और लम्बे-लम्बे कश लेते हुये कुछ बड़ी-बड़ी बातें कहनी थीं जिसमें से कुछ उसने पारस के औचक भाषणों से मारी थीं।
दोनों जंगल में कुछ दूर चले और एक पेड़ के नीचे पहुंच कर रिंकू रुक गया। स्ट्रीट लाइट की रोशनी दोनों को एक दूसरे का चेहरा देखने के लिये पर्याप्त थी। रिंकू गंभीर मुद्रा में चलता हुआ दो कदम आगे बढ़ा और पलट कर दोनों बांहें फैला दीं। यह स्टाइल भारतीय युवाओं को शाहरुख खान की देन थी जिसके एवज़ में हर युवा उसका शुक्रगुज़ार था। देश का युवा शाहरुख खान बनना चाहता था और शाहरुख खान युवा बनना चाहता था। दोनों इसके लिये विभिन्न प्रकार की हरकतें करते रहते थे। जिस फि़ल्म में रिंकू ने यह दृश्य देखा था उसके हिसाब से अब सविता को स्लो मोशन में दौड़ते हुये आना था और रिंकू की बांहों में लिपट जाना था।
´´क्या....?´´ रिंकू ने जब बांहें फैलाये हुये दोनों पंजों को कई बार हिलाया तो सविता ने पूछा।
रिंकू का मूड थोड़ा खराब हुआ लेकिन उसने अपने आप को तुरंत संयत कर लिया। सविता की इस अदा को उसने इस बात से जोड़ा कि वह बहुत सीधी बच्ची है और फि़ल्में कतई नहीं देखती है। इस तरह के विचार हालांकि राजू के लिये सुरक्षित रखे जाते थे लेकिन अंतत: सारे दोस्त एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे।
´´क्या क्या.....मेरी बांहें तुमको लपेटने के लिये तड़प रही हैं।´´ रिंकू ने यथासंभव सरल शब्दों में कहने की कोशिश की लेकिन बात थी कि फि़ल्मी हुयी जाती थी।
´´हम कहे हैं क्या कि तुम्हारी बांहों में आएंगे ?´´ सविता के इस सवाल पर रिंकू का जुटाया गया आत्मविश्वास धीरे-धीरे दरकने लगा।
´´नहीं कही तो नहीं हो मगर.....हम...तुमसे.....।´´ रिंकू को लगा अब तक इस लड़की को लेकर सोचता आ रहा है और फोन पर दोनों के बीच जो बातें हुयी हैं वह उसकी कल्पना की उड़ाने हैं। यह वह लड़की कतई नहीं है और अब यह उसकी बद्तमीज़ी पर उसे कायदे से सबक सिखाने वाली है। उसने अपनी बांहे बटोरनी शुरू कर दीं लेकिन उसे लगा कि उसकी हज़ार बांहें हो गयी हैं और बटोरने में बहुत वक़्त लग रहा है। सविता मुस्कराती हुयी आई और उसकी आधी बटोरी बांहों को खोल कर उसमें एक छोटे बच्चे की तरह घुस गयी। ``एकदम बेकूफे हो क्या ?´´ उसका बेवकूफ़ कहना रिंकू को इतना प्यारा लगा जितना उसे अपने अब्बा का ज़हीन कहना भी नहीं लगा होगा (हालांकि ऐसे मौके उसकी ज़िंदगी में सिर्फ़ दो बार ही आये थे जब अब्बा ने उसकी तारीफ़ की थी)।
दोनों कुछ पल के लिये खामोश रहे। काफ़ी समय रिंकू ने यह सोचने में लगा दिया कि आखिर ऐसी स्थिति में क्या कहना उसके लिये अच्छा और आगे बढ़ने में मददगार साबित होगा। एक वक़्फ़े के बाद उसने धीरे से सविता के कानों में फुसफुसाते हुये पूछा, ``तुम्हारी उम्र कितनी है ?´´ हालांकि यह सवाल किसी भी लड़की, महिला या बुढ़िया से पूछा जाने वाला सबसे ख़तरनाक सवाल था और इस सवाल पर बरसों के बने बनाये रिश्ते एक झटके में बिखर सकते थे लेकिन रिंकू ने यकायक यह खतरा उठा लिया था। सविता उसकी बांहों से अलग हो गयी और पास की एक कंटीली झाड़ी से एक जंगली फूल नोच कर उसे मसलने लगी।
``क्यों पूछ रहे हो ?´´ उसकी आवाज़ में एक तनहाई थी जिसे रिंकू ने महसूस तो किया लेकिन उसका मतलब नहीं समझ सका। उसे सिर्फ़ इतना ही समझ में आया कि उसे यह सवाल, कम से कम, अभी नहीं पूछना चाहिये था। उसने फूल मसलती सविता के शरीर को पहली बार इतने नज़दीक से इतनी फुरसत से देखा। उसे लगा वह दुनिया का सबसे खुशनसीब इंसान है। उसने सविता के कंधे पर धीरे से हाथ रखा और उसका इरादा यह था कि वह अपने हाथों को कंधे से फिसलाता धीरे-धीरे उसे उन्नत वक्षों की ओर ले जायेगा जो उसे पागल कर रहे थे।
``नहीं बताना तो रहने दो, हमको कोई फ़र्क नहीं पड़ता।´´ उसने सविता का मुंह अपनी ओर कर उसे सीने से चिपका लिया। सविता के वक्ष उसके सीने पर गड़ रहे थे और उसके शरीर में जो प्रतिक्रिया हो रही थी उसे लेकर वह इतना सशंकित था कि उसे डर लग रहा था कि सविता को पता न चल जाये कि उसके भीतर क्या परिवर्तन हो रहे हैं। उसने सविता को खुद से थोड़ा अलग किया और उसके चेहरे पर चूमने से शुरूआत की। उसे याद आया कि योजना के मुताबिक उसे पहले उसकी हथेलियां आगे-पीछे चूमनी थीं लेकिन उसे यह जंचा नहीं। योजना के हिसाब से चलने के लिये सविता को भी योजना के हिसाब से हरकतें करनी थीं जो वह नहीं कर रही थी। उसने सारी योजनाओं को परे झटका और पहले उसके गाल चूमने के बाद उसके होंठों पर अपने होंठ ले गया। सविता से मिले सहयोग ने उसकी अपनी त्वरित योजना के उत्साह को दुगुना कर दिया और उसकी उंगलियां सविता के शरीर पर यहां-वहां नाचने लगीं।

20.
रिंकू ग्रुप का पहला लड़का था जिसने किसी लड़की के शरीर को इतने पास से छुआ था और पूरी तरह न सही, उसका आनंद उठाया था। वरना अब तक तो ये लोग दुर्गापूजा और दशहरे जैसे मेलों में ही किसी लड़की और औरत के शरीर के अंगों को छू पाते थे। दुर्गापूजा ग्रुप का सबसे पसंदीदा त्योहार इसीलिये हुआ करता था कि उस समय सभी को हथुआ मार्केट, मछोदरी, चेतगंज और नाटी ईमली जैसे भीड़-भाड़ वाले इलाकों में दुर्गा जी के पंडालों को देखने उमड़ी भीड़ में ढेर सारी सजी संवरी लड़कियां देखने और छूने के लिये मिल जाती थीं। ये वे लड़कियां होती थीं जिन्हें उनके मां-बाप बहुत अनुशासन में रखते थे और किसी सहेली के घर जाने के लिये भी इन्हें पचास बार पूछना पड़ता था। ऐसे त्योहार इन लड़कियों के लिये सजने, घर से बाहर निकलने, अपनी सहेलियों से मिलने, सहेलियों के बीच किसी सीधे लड़के की चर्चा करने और नये फैशन के कपड़े खरीदने की योजना बनाने की सुविधा प्रदान करते थे, इसलिये लड़कियों के भी चहेते थे। लड़के लड़कियों दोनों के चहेते होने के कारण इन त्योहारों में ख़ूब भीड़ हुआ करती थी। ज़्यादातर लड़कियां वाकई ऐसे लड़कों से बहुत डरती थीं जो भीड़ में उनके अंगों को दबाने और मसलने का मौका खोजा करते थे। कुछ लड़कियां बहुत दबंग थीं और लड़के के घूरने पर भी हंगामा मचा कर पूरी भीड़ को अपने पक्ष में कर लेती थीं। माता के दर्शन के लिये घुस रही भीड़ में हर आधे घंटे बाद हंगामा होता था और कोई एक लड़की रोती हुयी बताती थी कि उसके साथ फलां लड़के ने बद्तमीज़ी की है। बद्तमीज़ी करने वाला लड़का भी भीड़ में से इस तमाशे को देख रहा होता था और दोस्तों को यह बताने में लगा रहता था कि उसके स्तन कितने नरम थे। लड़के की पहचान करने में लड़की की घबराहट व लापरवाही का शिकार हुआ दूसरा लड़का डरा सहमा सा भीड़ को देखता रहता था और हर दूसरे सेकेण्ड कहता था, ``हम कुछ नहीं किये...दुर्गा  मां की कसम हम कुछ नहीं किये...।´´ थोड़ी देर बाद, जब भीड़ में से कोई उत्साही नौजवान उसे एकाथ थप्पड़ मार चुका होता तो वह लड़की को दीदी कहता उसके पैरों पर गिर जाता। रिंकू और उसका ग्रुप ऐसी घटनाओं को दूर से देख रहा होता क्योंकि उनमें सुनील के अलावा कोई हाथ लगाने के पक्ष में नहीं होता था। बाकी सबका मानना था कि ख़ूबसूरत लड़कियों को इतनी संख्या में देखना ही बहुत है और ये सब काम ठीक नहीं हैं। सुनील का कहना था कि फूल और लड़कियां सूंघने और छूने के लिये होते हैं न कि देखने के लिये। उसे पता नहीं था कि उसका यह संवाद भी किसी पुरानी घटिया फिल्म से प्रभावित था।
ऐसे में रिंकू का किसी लड़की के शरीर को इतने करीब से छू लेना एक बड़ी उपलब्धि थी, न सिर्फ़ रिंकू के लिये बल्कि पूरे ग्रुप के लिये। रिंकू ने इस घटना के बाद तीन-चार दिनों तक स्नान नहीं किया और उसकी वह शर्ट जो उसने राजू से उधार ली थी उसे हमेशा के लिये अपने पास रख लिया। राजू की ख़ुशी भी संभाले नहीं संभल रही थी और उसने खुशियों की मात्रा ज़रूरत से ज़्यादा हो जाने के कारण सभी दोस्तों में बांट दी थी।
``कै बार किस किये....?´´ बातें कुछ इतनी ताज़ा थीं कि चाहे जितनी बार दोहराओ उनकी ताज़गी जाती ही नहीं थीं। अनुज गदाई ने अपनी तरफ से नया सवाल पूछा था।
``अबे बता तो चुके हैं कई बार....। सुनिलवा से पूछ लो।´´ राजू ने सुनील की ओर देखते हुये कहा तो उसका दिमाग ख़राब हो गया।
``साले हम क्यों बताएं। हम क्या तुम्हारे पीए हैं ? हम थे भी नहीं वहां....। लौंडियाबाजी करो तुम लोग और कहानी सुनाएं हम...।´´ वह फिर से एक नयी सिगरेट सुलगाने लगा। जब से रिंकू और राजू की ज़िंदगियों में लड़कियों का अवागमन हुआ था वह सिगरेट बहुत पीने लगा था। पता नहीं उसे हमेशा ये क्यों लगता रहता कि उसके दोनों दोस्त गलत रास्ते पर जा रहे हैं और उसे इन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिये।
``अबे बीसे मिनट तो साथ रह पाये। तीन बार किस किये।´´ राजू ने शर्माते हुये बताया।
``स्मूच कि गाल पे किस....?´´ अनुज गदाई आंखें बंद कर मन की आंखों से दृश्य को अनुभव करना चाहता था।
``गाल पे.  हम उसके नन्ना हैं क्या बे ? अबे किस किये मतलब होंठ में होंठ सटाके....गदाई नहीं तो।´´
अनुज गदाई ने आगे की बातें नहीं सुनीं। वह भी अनु को एक बीच मन लगाकर चाह चुका था और अब उसे दुख और संतोष एक साथ हो रहा था। दुख इसलिये कि शायद उसे उसके पीछे कुछ दिन और लगे रहना चाहिये था और संतोष इसलिये कि चलो कम से कम ग्रुप में ही तो आयी, अब उसके बारे में कुछ न कुछ सुनने को मिलता रहेगा। कॉलोनी का हर लड़का कॉलोनी की हर लड़की को कभी न कभी चाह चुका होता था और इसलिये किसी भी लड़की की शादी होती थी तो कॉलोनी के सभी जवान लड़कों को सांप सूंघ जाता था और क्रिकेट के मैदान में तीन-चार दिनों तक मरघट जैसा सन्नाटा छाया रहता था। कॉलोनी की एक लड़की शादी करके अपनी ससुराल जाती थी और किसी न किसी घर में एक मुख्य दिल और कई घरों में कई सहायक दिल टूटा करते थे। मुख्य दिल का अर्थ था वह लड़का जिसने अपने तीन-चार साल उस लड़की के पीछे बर्बाद किये होते थे और सहायक का अर्थ था कि वे लड़के जो अपना काम जारी रखते हुये बिना अपनी दिनचर्या को नुकसान पहुंचाये बिना लड़कियों को नाना प्रकार के ज़रियों से अपनी भावनाओं से अवगत कराते रहते थे। कुल मिलाकर किसी भी लड़की की शादी में उसके मां-बाप समेत सभी रिश्तेदारों की खुशियों का योग कर दें तो भी पूरी कॉलोनी के नौनिहालों को समग्र रूप से जो दुख होता था वह भारी पड़ता था और इस दुख के कारण कॉलोनी की फिज़ा कई दिनों तक ग़मगीन रहती थी।