Friday, December 7, 2012

कुंठा भरी डायरी की शक्ति से चीरहरण की लालसा.




मैं अपना सौभाग्य समझूँ या दुर्भाग्य की अब तक श्रवण कुमार गोस्वामी जैसे उपन्यासकार से अब तक अजाना ही रहा. खैर मैं जो भी समझूँ इससे उन लोगों पर क्या फर्क़ पड़ेगा जो तमाशे की तरह साहित्य को देखते हैं और तालियाँ पीटते हैं. इसलिए सबसे पहले श्रवण कुमार गोस्वामी द्वारा रचित और मेरे द्वारा पढ़ी गई उनकी पहली रचना जिसके केंद्र में महुआ माजी का चरित्र है और जिसमें चीरहरण करने की लालसा है, उस पर बात. डायरी के प्वाइंट पर बात इसलिए भी करना जरूरी है कि कई लोग यह भी कहते हैं कि महाशय के द्वारा उठाई गई बातों पर बात करना चाहिए. और मैं भी कोई जज नहीं हूँ कि किसी चीज की विश्वसनीयता के लिए सबूत की बात करूँ. मेरे लिए गोस्वामी की यह पहली रचना है और एक पाठक होने के नाते जैसे मैं हर रचना पर विश्वास करता हूँ, पढ़ता हूँ ठीक वैसा ही विश्वास यहाँ मेरा भी है. लेकिन रचना जो कहती है उसे समझता जरूर हूँ.
 हलाँकि महुआ ने अपनी सफाई में कहा है कि “जहां तक गोस्वामी जी के साथ मेरे तथाकथित पारिवारिक रिश्ते और उनमें किन्हीं कारणों से आई तथाकथित दूरी का सवाल है, मैं इसे एक बेहद निजी मामला समझती हूं, जिससे वृहत्तर साहित्यिक समाज का कोई हित-अहित जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए इन बातों की परत उघाड़कर मैं उस स्तर तक नहीं उतरना चाहती जिस स्तर पर गोस्वामी जी चले गए। वे एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं और उम्रदराज भी। उनके प्रति मेरे मन में जो सम्मान है, मैं चाहती हूं वह बना रहे.”  लेकिन जो बात डायरी के अंशों में हो रही है और उससे जो लेखक की मंशा निकल के आ रही है, उसकी दिली बेदिली चाहत क्या है ; इसे तो पाठकों को समझना ही होगा ? इसलिए अभी कुछ और कहूँ इससे पहले डायरी के प्वाइंट को देखा जाय. तभी पता चलेगा कि सच में महुआ के लेखन को आरोपित किया जा रहा है या कुछ और. आगे डायरी की बातें.
      शनिवार, 17 जुलाई 2004 के डायरी अंश में कुंठित गोस्वामी कहते है कि “ यह लिखा तो अच्छा गया है, पर क्यों तो कभी कभी संदेह होने लगता है... इसमें सौ पृष्ठ में ही तीन स्थानों पर जो चित्रण किया गया है उससे यह लगता है कि लेखिका चर्चित महिला लेखिका बनने के चक्कर में कोई संकोच नहीं करती.” यहाँ यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि कुंठित गोस्वामी की सामान्य भाषा ज्ञान इतनी लचर है कि उन्हें ये भी नहीं पता कि जब लेखिका है तो लेखिका के साथ महिला लगाने का क्या तुक. लेकिन महुआ का दुर्भाग्य रहा कि ऐसे लचर आदमी के पास अपनी भाषा सुधरवाने गई. मैंने भी “मैं बोरिशाइल्ला” उपन्यास पढ़ा है और उन चित्रों से गुजरा है जो बहुत ही स्वाभाविक है. सौ पेज में जितने स्थान आए हैं, जितनी घटनाएँ घट रही हैं और जो परिवेश बुना जा रहा है उस लिहाज से वे चित्र बहुत ही सहज और परिवेशगत लगते हैं. यह अलग बात है कि इसे पढ़ते हुए मैं नामर्द जैसा ही रह जाता हूँ और गोस्वामी जी साठे पर पाठे की उत्तेजना महसूस करने लगते हैं.
दरअसल महाराज उन चित्रों के माध्यम से महुआ के चरित्र में प्रवेश कर जाते है और उनको लगता है कि हो ना हो इसमें महुआ ही है जो एन्जॉय कर के चर्चित होना चाहती है. मुझे पूरी तरह से याद नहीं है फिर भी तीन सौ से ज्यादा पृष्ठ का यह उपन्यास होगा. यह बात गौर करने लायक है कि तीन सौ पृष्ठों के कथानक के कथ्य को सौ पेज में कैसे आँका जा सकता है ?
शनिवार 31 जुलाई 2004 के अपनी डायरी में गोस्वामी जी चित्रित करते है कि “ इस उपन्यास के बारे में अब तक मेरी कोई निश्चित राय नहीं बन सकी है। लेकिन इतना मैं कह सकता हूं कि चूंकि यह उपन्यास एक रूपसी का है, इसलिए लोग इसे फुलाएंगे जरूर। महुआ को अभी ही ऐसा सत्कार मिल चुका है कि वह गलतफहमी में जीने लगी है। कभी-कभी मुझे ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में अपना कुछ गंवा भी सकती है.”
      महाशय की इस आशंका में साफ जाहिर होता है कि उन्हें इस बात की जलन है या कोई ईर्ष्या है कि महुआ को “कुछ” ज्यादा मिल जाएगा. यही नहीं वो महुआ को रूपसी मानते है. जाहिर सी बात है यहाँ पर महुआ को अपनी बहन, बेटी, भतीजी या ऐसे किसी पारिवारिक रिश्ता के रूप में नहीं देख रहे हैं. अगर वे ऐसा देखते तो शायद इस भाषा का इस्तेमाल नहीं करते और अपनी राय भी कायम करते. और तब तो और भी जब उन्हें “ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में अपना कुछ ( “कुछ” प्वाइंट टू बी नोटेड मायलार्ड कि एक रूपसी की कुछ गंवाने की बात) गंवा भी सकती है.”
बुधवार 11 अगस्त 2004 में गोस्वामी जी कहते है कि “ उसने (महुआ) स्वीकार किया कि मैत्रेयी पुष्पा और जया जदवानी के प्रभाव के कारण उसने सेक्स को स्थान दिया.” यहाँ बहस की बहुत गुंजाइश है लेकिन एक बात तो साफ है कि हर दौर अपने चित्रण में एक नया आयाम रचता है, जिसमें पूर्व निरधारित चीजों के साथ कुछ और नई रेखाएं जुड़ती हैं. किसी के प्रभाव द्वारा सेक्स को स्थान देने का मतलब यह नहीं हो सकता है कि उससे चर्चित होना ही है. ऐसा रिश्ता यथार्थ से करीबी का भी हो सकता है और कोई लेखक या लेखिका ऐसा चाहती है तो ऐसा होना भी चाहिए. पहले तो बहुत साये में बाँध कर स्त्री या पुरूष के अंगों का जिक्र किया जाता था. उनके संबंधो की बात की जाती थी. लेकिन जैसे जैसे लेखन यथार्थ और उसकी कुरूपता की ओर मुड़ता गया उसके लिए यह बहुत जरूरी है कि पूरे सेंस के साथ वो चित्र उभर कर आए. मैत्रेयी के साथ कई लेखिकाओं ने बेबाकी से उन चित्रों को प्रस्तुत किया है. इस लिहाज से अगर कथानक के अनुरूप अगर कोई वैसा तथाकथित चित्र बन रहा है तो उससे बचना अपनी रचना को परिवेश इतर करना, उसे रूढ़िगत करना और उसकी प्रासंगिकता को कमतर करना होगा.
मन्नू भंडारी आपका बंटी में, कृष्णा सोबती सूरज मुखी अँधेरे में, अमृता प्रीतम नागमणि में अगर सेक्स दृश्यों को उपस्थित करती है तो इसका मतलब ये तो नहीं हुआ कि उन्होंने चर्चा पाने के लिहाज से ऐसा किया है. साथ ही बहुतेरे लेखकों ने भी सेक्स का चित्रण किया है. राजकमल, कृष्ण बलदेव वैद ने खुलकर लिखा है. काशीनाथ की भाषा और उनकी चित्रॊं से दुनिया वाक़िफ हैं. फिर महुआ जब उपनी बात को कहने के लिए मैत्रेयी और जया को संदर्भ के रूप में रखती है तो इसमें कौन सी बड़ी बात है. कुल मिलाकर महुआ की बात को  (डायरी की बात सत्य मानते हुए कि ऐसा उन्होंने कहा होगा ही) यहाँ एक संदर्भ के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि मैत्रेयी और जया के लेखन ने इस दौर के साहित्य में उन चित्रों के माध्यम से एक बहुकोणीय चित्र बनाया है और ये सारे चित्र सेंसर के लिए नहीं है. सब का सेंस होता है यह अलग बात है कि गोस्वामी जी को इसमें एक ही सेंस नजर आता हो.
      बुधवार 6 अक्टूबर 2004. गोस्वामी जी अपनी छद्मता को जाहिर करते है कि “महुआ माजी पेस्ट्री लेकर आई. मैंने नाराजगी प्रकट की. मैंने पहले ही उसे लाने से कुछ रोक दिया था. पेस्ट्री में अंडा होता है इसी आधार पर मैंने उसे लौटा दिया.” यहाँ हम गोस्वामी जी को शाकाहारी होने की तारीफ़ कर सकते है, लेकिन खुद शाकाहारी होने के बाद भी मैं इसे तारीफ के लायक रत्ती भर नहीं समझता हूँ. लेकिन गोस्वामी जी का अब्जरवेशन देखिए कि महुआ उनके पास जो कुछ भी ला रही है, दे रही है, उनकी बीवी से घुलमिल रही है इसमें उनको लगता रहा है कि सारा कुछ उन्हें पटाने के लिए किया जा रहा है. ऐसा लगते हुए भी वो नए परिच्छेद पर काम करते जा रहे हैं. क्या इस बात की कोई गुंजाइश नहीं है कि कोई किसी के पास मिठाई बिना यूज करने के लिए ले जाता होगा. हमारे देश में मिठाई ले जाना एक आम चलन है. महुआ भी एक इंसान है वो भी रिश्ते नाते को जीती होंगीं. अपनों के पास आती जाती होगी. खाली हाथी कहीं जाने में उसे संकोच होता होगा. यहाँ पर महुआ की आकांक्षा को सिर्फ़ यूज करने के रूप में ही क्यों देखा जाय ? खैर !
      शनिवार, 13 नवंबर 2004 में गोस्वामी जी कहते है कि “ उसने (महुआ) ने बताया कि आधार प्रकाशन उसके उपन्यास के लिए अग्रिम के रूप में पचास हजार देने को तैयार है। वह बहुत सारी बातें बोल गई। जो स्थितियां बन रही हैं, वे महुआ का दिमाग चढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। मैं उसे समझाने की स्थिति में नहीं हूं, क्योंकि वह इतनी प्रबुद्ध नहीं है कि मेरी सीख पर ध्यान दे सके। उसे परिपक्व होने में समय लगेगा। वह यह नहीं समझ पा रही है कि लोग उसके उपन्यास की नहीं अपितु उसके रूप की कीमत लगा रहे हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह किसी दुर्घटना का शिकार न बने.” अब यहाँ क्या कहाँ जाय!!! जो महुआ अपना काम निकलवाने के लिए मिठाई ला सकती है. प्रकाशन के दबंगई दौर में आधार प्रकाशन से अग्रिम  राशी ले सकती है. वो महुआ गोस्वामी जी की नज़र में इतनी प्रबुद्ध नहीं है कि उनकी सीख पर ध्यान दे सके. महाराज बेचैन है कि महुआ कितनी कच्ची है. उनको पुख्ता पता चल गया है कि महुआ के साथ जो कुछ भी हो रहा है सब उसके रूप का कमाल है. अगर महाराज को सच में महुआ के अबोधपने से दुर्घटना का शिकार होने का डर होता तो क्या चुप लगा जाते ? कोई हमें बताएगा कि किसी का कोई अपना (भले ही उसे खून का रिश्ता न हो ) दुर्घटना की तरफ जाए और वो चुप लगा जाय ? आखिर कौन सी ऐसी बाध्यता थी जिस वजह से महाराज अपना विरोध दर्ज नहीं कर पा रहे थे. क्या उन्हें इस बात का डर सता रहा था कि महुआ से अपनी राय बता देने पर वो नाराज हो जाएगी. महाराज के लिए यहाँ क्या महत्वपूर्ण है. महुआ की नाराजगी या महुआ की दुर्घटना ?
      बुधवार, 1 फरवरी 2006  के महुआ किताब उनको भेंट करने की वजाय खगेंद्र को देती है. हाय रे इतनी नाइन्साफी ? ये भी बर्दाश्त करने की बात है महाराज ? फिर आगे के अंशो में पता चलता है कि बहुतों को महुआ ने अपनी किताब दे दी हैं लेकिन गोस्वामी जी के पास किताब नहीं पहुँची है. फिर भी उनका इंतजार तो देखिए. गोस्वामी जी इस इंतजार में है कि “यदि यह औरत अब अपना उपन्यास मुझे देने के लिए आई तो मैं उपन्यास नहीं लूँगा.” इंतजार की भी हद होती है गोस्वामी जी !!! आखिर इतना भी इंतजार उसके लिए क्यों जो आपके ब्रेन स्ट्रोक के बाद भी हाल चाल लेने नहीं आई ? आखिर उस औरत का इतना इंतजार क्यों. जबकि कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसके ज़िंदगी में किसी ने अहसानफरामोशी न की हो. इस दौर में तो सब इसके अभयस्त है. फिर उस औरत का इतना इंतजार क्यों ? होगा क्यों नहीं. कैसे कोई रूपसी जो अभी उतनी प्रबुद्ध भी नहीं है कि महाराज की बात समझ सके और महाराज को इगनोर कर दे. काश मेरी बात गलत साबित हो सकती. लेकिन जो दिख रहा है उसको क्या कहा जाय ?
      ये तो रही बात डायरी और उसके निहितार्थ की. बच्चन जी ने अपने आत्मकथा में जिक्र किया है कि “कलम से बड़ा कोई मुखबिर नहीं हो सकता.” और यहाँ पर महाराज ने मेरे लिए अपनी पहली रचना में साबित कर दिया है कि उनकी राइटिंग कितनी छद्म, कितनी छिछली और चीरहरण की लालसा से दूषित है. मेरी लिए यह अच्छा ही रहा कि मैं इनकी और रचनाओं से अगर लिखा भी होगा, है भी (लोग बता रहे है कि बड़े प्रकाशन से किताबें आई है) तो अपरिचित रहा. लेकिन आगे की बात के लिए कुछ प्वाइंटर जरूरी है. पहली बात, न्याय में देरी एक तरह से अन्याय है. महाराज को जब मालूम चल गया था कि महुआ की यह रचना किसी और की रचना है और जो कुछ भी है उसमें महुआ का कम, किसी और का ज्यादा है तो ये अब तक चुप क्यों लगाए रहे ? कौन सी चाहत थी इसके पीछे ? आज ऐसा कर के किस के साथ न्याय कर रहे है ? क्या हिंदी साहित्य के पाठकों के सामने खुलासा कर के जाहिर करना चाहते है कि पाठकों सावधान हो जाओ यहाँ रचनाएँ चोरी होती है ? यह बात पहले भी तो हो सकती थी ? आखिर किस बात का इंतजार कर रहे थे उपन्यासकार ? डॉक्टर दिनेश्वर प्रसाद के मरने का इंतजार कर रहे थे कि वो अपनी बात अपने तरीके से कह सके और अपने प्रति हुए अपमान का बदला एक सजग दुश्मन की तरह समय पर निकालेंगे ?
      भोजपुरी में एक कहावत है “खेलब ना खेले देब खेलवे बिगाड़ देब.” अपना तो कुछ लिखना नहीं है अगर कोई और लिख रहा है तो उसके रास्ते का काँटा कैसे बने. और यहाँ तो गोस्वामी जी इतने तमतमाए है जैसे कोई एक पक्षीय प्रेम में जला हुआ प्रेमी खुद को नकारात्मक कर लेता है.
      अगर कोई व्यक्ति जिसने बंग्ला भाषा में इसे लिखा था तो उसके पास इतना गूदा क्यों नहीं था कि यह उसे पूरा कर सके. अब वह आदमी कहाँ है ? एक बात यह भी है कि उसने इसे बांग्ला में लिखा था. अगर मैं यहाँ अनुवाद के कार्य को भी सर्जनात्मक ना मानू तो भी यहाँ मैं ध्यान दिलाना चाहूँगा कि दूसरी भाषा की थीम या उसकी चीज को जो किसी और भाषा में रचित होती है तो उसकी ताक़त कही से कम नहीं होती और वह मौलिक भी होती है. कई रचनाएँ ऐसी हुई भी है. निराला की “राम की शक्ति पूजा” में भी लोग कहते है कि उसमें बांग्ला की रामायण कथा है. विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र के जीवन पर आवारा मसीहा लिखा. इसमें कई बांग्ला की रचनाओं को संदर्भ में लिया गया है लेकिन जो चीज़े तैयार हुई उसको देखिए. कहा जाता है कि ऐसी ऑथेंटिक जीवनी बांग्ला में भी नहीं हैं. यहाँ आप कह सकते है कि विष्णु प्रभाकर ने सारे संदर्भ का जिक्र किया है. लेकिन महुआ ने नहीं. लेकिन यहाँ यह देखना भी जरूरी है कि शरतचंद्र की जीवनी हैं और मैं बोरिशाइल्ला फिक्शन है. इस लिहाज से आभार साभार की बातें तो लेखक अपने संस्मरणों, अपनी रचना प्रक्रिया, अपनी आत्मकथा में भी कह सकता है. उसके लिए इतनी जल्दी क्यों ? लेखिका का यह पहला उपन्यास है. उपन्यास में उन्हें नहीं लगा होगा कि एक अलग से बात अपनी रचना उत्स और उसकी प्रक्रिया के बारे में किया जाय तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई ? हो सकता है इसमें किसी और की थीम हो. लेकिन वह थीम किस रूप में हमें मिली है यह भी तो देखने की बात होगी ? थीम हम कहीं और से उठाते भी नहीं हैं. हम जो देखते हैं, सुनते हैं और हमारे लिए उसमें से जो हांट करता है उसे उठा लेते हैं. पचास पेज के इंटरव्यू से तीन सौ से ज्यादा पेज का फिक्शन लिख लेना कोई जुए का खेल है क्या ? फिर भी मैं कहता हूँ कि मेरी बातें गलत साबित हो जाय लेकिन डायरी जो कह रही है उस पर गौर करने लायक बातें हैं और उन बातों में डायरी लेखक को महुआ की रचना से कोई मतलब नहीं. यहाँ महत्वपूर्ण है महुआ का गोस्वामी जी को तवज्जो न देना.
       
      मरंग गोड़ा निलकंड हुआ पर भी महाराज को आपत्ती है. लेकिन उस पर बात करने की मुझे कोई वजह नहीं दिखती, क्यों कि उस पर ऐसे आरोप महाराज ने लगाए है कि मैं दावे से कह सकता हूँ कि साहित्य की समझ मेरे हिसाब से महाराज को नहीं है. यह भी हो सकता है कि यहाँ मेरा हिसाब बेहद नासमझ भरा हो लेकिन मैंने तो किसी भी रचना पर ऐसी कोई बात नहीं सुनी है जिसमें कोई आलोचक या रचनाकार किताब पर बात करने से पहले अपने अपमान में पगलाया हुआ हो या आभार पाने के लिए बेचैन हो. जाहिर सी बात है गोस्वामी ने जो भी किताब पर बातें की है दरअसल वह कोई बात ही नहीं एक हथियार का प्रयोग है जिससे वे महुआ का चीरहरण करना चाहते हैं.
लेकिन एक यहाँ गौर करने वाली बात यह भी है कि महाराज को जब महुआ ने अपना दूसरा उपन्यास “मरंग गोड़ा निलकंठ हुआ” दिया तो मन मार कर ले लिए. क्यों ? इसलिए कि महाराज समारोह में कोई दृश्य उपस्थित करना नहीं चाहते थे. क्या बिना दृश्य उपस्थित किए अपनी नाराजगी नहीं जाहिर किया जा सकता है ? वो भी एक ऐसा आदमी जो अपमान और आभार की आग से लगातार सुलझ रहा हो ? मेरी हर बात पर महाराज के सामने सवाल ही उभर रहा है लेकिन मैं क्यों अब और सवाल करूँ जिसकी मंशा हमें समझ में आ गई हो.
      लेकिन यहाँ पर साहित्यिक तमाशाकारों पर बात करना भी जरूरी लगता है. कुछ लोग साहित्य में दुशासन दल के एजेंडा को मान कर चलते हैं. उन लोगों के लिए साहित्य एक खिलवाड़ है और वे साहित्य की अपनी भूमिका के रूप में रस रंजन करना चाहते है. अगर ऐसा नहीं होता तो सुभाष चंद्र कुशवाहा कहीं जाते तो यह देखने में थोड़ी ही लगे रहते कि कौन लेखिका किस ड्रेस में है. उस पर क्या बातें हो रही है ? बाकी सरोकार से उनको कोई मतलब नहीं होता. उनके लिए जरूरी है कि लेखिका दिन भर में कितनी साड़ियाँ बदलती है. कौन कौन लोग लेखिका के बारे में क्या बातें कर रहे है ? वाह रे हमारे सामाजिक संघर्ष और सरोकार के झंडाबरदार लेखक. किसी सुंदर स्त्री का गुणी होना इस कदर खटक सकता है ?  गोष्ठियों में आप कैसे सरोकार ले कर जाते हैं ? मेरे खयाल से इसीलिए पाठक इनकी कोई रचना पूरी पढ़ नहीं पाता. आधी कहानी भी पाठकों के लिए अझेल हो जाती है. महुआ अगर दिन भर में तीन साड़ियाँ बदलती है या तीस उस से किसी का क्या जाता है. एक लेखिका को क्या शौक करना गुनाह है. उसकी अपनी आदतों और अपने तरीके से जीने के लिए किसी के मानक को अपनाना जरूरी है ? और वह भी ऐसे लोग है जो बिना पेंदी के लोटे हों ?
हलाँकि मैंने भी महुआ को तीन गोष्ठियों में देखा सुना है. साल 2006 में कोलकता युवामहोत्सव में (भारतीय भाषा परिषद के कार्यक्रम में), कथाक्रम 2006 में और संगमन जमेशेदपुर (2006)  में. लेकिन मैंने तो ऐसी कोई बात रीड नहीं की. और अगर ऐसा महुआ करती भी है तो इसमें किसी के बाप का क्या जाता है ? क्या स्त्री को हमेशा अभागन पीड़ित और मजबूर ही दिखना चाहिए ? और इन सब बातों को कहने का क्या मतलब है. यह तो ठीक उस घोर सामंती कूढ़ मगजी बात है कि किसी स्त्री की गलती (यहाँ गलती को भी कटघरे में खड़ा किया जा सकता है) को उसके चरित्र से जोड़ दिया जाय. अगर एकबारगी किसी को यह लगता भी है कि महुआ ने इस उपन्यास की चोरी की है तो क्या उसके लिए यह कहना जरूरी है कि उसने मेरा अभार चुरा लिया, मुझे सम्मान नहीं दे रही. दिन भर में वह कितनी साड़ियाँ बदलती है या रूपशी को कितने और कैसे कैसे लोग इंतजार करते है ?
क्या इसके लिए जरूरी नहीं होता कि हम महुआ की और रचनाओं पर बात करें. महुआ ने तो बहुत अच्छी कहानियाँ भी लिखी है. लेकिन महुआ की रचना से किसी को मतलब रहता तब तो. खैर ! आखिर में विमल चंद्र पांडेय की पोस्ट से अपनी बात खत्म करता हूँ जिसमें वे कहते है कि “मैं नहीं जानता लेकिन ये तो सभी देख रहे हैं कि बिना सबूत के श्रवण जी के साथ बहुत लोग महुआ के खिलाफ सिर्फ 'औरत है तो क्या खाक लिखेगी' वाली भावना के साथ खड़े हुए जा रहे हैं.” यह स्थिति महुआ सहित पूरे साहित्यिक माहौल के लिए खतरनाक है जिसे अनदेखी करना कतई ठीक नहीं होगा.
Top of Form

     

No comments:

Post a Comment