Monday, December 31, 2012

जी नहीं चाहता नया साल मनाने को



अतुक में कच्चा हूँ तो तुक में गच्चा लेकिन गुजरात में जो कुछ हुआ उसके बाद मउ ( यू.पी>) में बड़े स्तर पर फिर वहीं हुआ तब एक अनायास भाव बन गया था. यह दो जनवरी 2006 की कविता है. इस साल यू पी में जो तेरह दंगे हुए उस लिहाज से मुझे लगा कि गच्चा ही सही इसे आपलोगों को सामने रख दिया जाय. 


जी नहीं चाहता नया साल मनाने को

सोचता हूँ जब मैं हँसने हँसाने को
नया साल काहे, कैसे मनाने को
दस्तक देती है खूनी वो रात
सभी बनना चाहते है अब गुजरात
रहेंगे कभी क्या मोहब्बत में ख़ालिश
बनेंगे कभी क्या धरातल के वारिस
लगे है खुद को मरने मिटाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

अस्मत लूटी थी, जवानी जली थी
जइफ के सिने में गोली लगी थी
खदकती तड़पती उन आँखों से हटकर
कैसे मनाऊँगा यादों से बचकर
रगों में दुखों का काँटा लिए
पैकेट की खुशी और बातें बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

ये नफरत के स्याही है धब्बे है इनके
इनकी ही खाई है इनकी ही काई है
इनकी रवायत है हिदायत है इनकी
इनकी सियासत है आयत है इनकी
रहबर जो चलते रहे साथ मेरे
धरम की लग्गी से मुझको दिए टेरे
ये सियासत मऊ में खतम हो ही जाए
समुंदर का पानी तब चूल्लू में आए
चूल्लू के पानी से उल्लू बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

सोचा था किसने आजादी से पहले
कत्लेयाम होगा आजादी के बाद
धीरे धीरे पर बढ़ते ये गोले
बूझकर भी ये छोड़ जाते है शोले
सफर की पहचान जो मंदिर से होकर
वही जाएगा अपनी मंजिल को लेकर
सपनों की ऐसी तैसी कराने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...

क्या मासूम पैरो की पदचाप आएगी
पत्थर पर ऐसी लकीर खिच जाएगी
नाज़ुक हथेली बुझाएगी इसको
सरेयाम गले से लगाएगी मुझको
कहता है कोई पलकों पर आकर
तपिश की कमी की नज़्में बनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को
जी नहीं चाहता नया साल मनाने को...
                                                                         शेषनाथ पाण्डेय.

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