युवा कवि , संपादक कुमार वीरेन्द्र के संपादन में " रू" का दूसरा अंक आया हैं. यह अंक असमिया साहित्यकार मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविताओं पर केंद्रित हैं. जनराह के पाठको के लिए इस अंक से कुछ कविताएँ ली जा रही हैं. हम इसके लिए कुमार वीरेन्द्र और " रू" के प्रति आभार व्यक्त करते हैं. इन कविताओं का अनुवाद दिनकर कुमार ने किया हैं, जिनका कार्य क्षेत्र असम हैं और ये हिंदी दैनिक सेंटिनल के संपादक हैं.
( मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविताओं में कल्पना, सूक्ष्म पर्यवेक्षण, विचारशीलता, प्रकृति से लगाव, जीवन- तृष्णा, सौंदर्यबोध, भावानुभूति का चित्रण मिलता है. उनकी कविताएँ बुद्धि दीप्त होने की जगह अनुभवसिक्त ही अधिक हैं अनगिनत कोमल अनुभूतियाँ कविताओं के रूप में वय्कत हुई हैं. उनकी कविताएँ आत्मालाप की तरह हैं वह मानो अपने आप से ही बातें करती रहती हैं. कवयित्री की लंबी कविताओं में चित्रकला का समाहार प्रदर्शित होता है. इनकी कविताएँ पढ़ने के बाद इन्हें " इमेजनिस्ट" कहते हुए हमें हिचक नहीं होनी चाहिए. इस संदर्भ में कवयित्री का व्यकतव्य ध्यान देने योग्य है - " मूल रूप से मैं अपने हृदय के लिए कविताएँ लिखती हूँ. मगर गोपनीय बात कहने के लिए किसी अंतरंग व्यक्ति को ढूँढ़ने की तरह मैं अपने सामने प्रिय पाठक को बैठा लेती हूँ चाहे किसी भी विषय पर कविता लिखूँ मेरा ध्यान उस पाठक पर टिका रहता है... .")
मणिकुंतला की कविताओं पर यह टिप्पड़ी डॉ. प्रफुल्ल कटकी ( पूर्व अध्यापक एवं अंग्रेजी अध्यापक, गुहावटी विश्वविद्यालय.) का हैं.
नारी
आसमान के बीच ठिठका हुआ है सूरज
टूटी- फूटी सड़क किनारे अलाव में
पिघल रहा है अलकतरा.
घरघराहट के साथ चल रहा है रोलर
जिसके दुर्दांत पहिए पर पानी उड़ेल रही हैं
एक दो संध्या के रंग की औरतें
तभी सूरज की परवाह किए बग़ैर
हवा का एक झोंका आए
पल-भर इधर-उधर देखकर
उसने हौले से पूछा दोनों औरतों से
- उड़ा दूँ क्या, उड़ा दूँ क्या तुमलोगों के आँचल से विप्लव का
पताका ?
औरतों ने खींच लिया सिर पर घूँघट
रोलर चला रहे मर्द से लेकर
आगे-पीछे काम कर रहे
सारे मज़दूर अगर औरते होते.
एक ने दूसरी तरफ देखा
- तब क्या होता.
आसमान में घूँघट को उछाल दिया होता
हम सबने मिलकर
आह, घरघराहट के साथ चलता रहा वक़्त का रोलर
यह सब कुछ भी समझे बग़ैर.
***
प्रेम
जिसे तुम चाहते हो
उसके संग ब्याह मत रचाना
हमेशा उसके साथ हम विस्तर होने की ख़्वाहिश मत रखना
एक संग खाना
अथवा अनर्गल बातें बनाना
जिसे चाहते हो
उसके लिए सीने के बीच रोप लेना पेड़
छायादार पेड़
जिसे तुम चाहते हो
मृत प्रतिमा की तरह सजाना
आदम या ईव के हाथों से छूना
और खु़द को उस ऐश्वर्य के अधिकारी मानकर
मन ही मन गर्वित भी होना
हमेशा याद रखना
जिसे तुम चाहते हो
वह तुम्हारा कोई नहीं है
वह किसान की फसल है
कभी मत उखाड़ना उसकी जड़
वह जो भी दे
वही है तुम्हारी प्राप्ति
तुम जिस तरह ग्रहण करोगे उसे
वही तो है मोहब्बत
मोहब्बत तुम्हारे जीवन का समस्त विनय
सर्वश्रेष्ठ आकांक्षा
लगातार क़रीब चाहकर भी
जिसे तुम गृहबंदी नहीं बनाते
उस एक शख़्स की ख़ातिर तुम निर्मल बनो
वह है इसीलिए तो सबकुछ सुंदर है तुम्हारा
जबकि सचमुच वह तुम्हारा कोई नहीं है
वह तो पानी है
वह तो हवा है
जिसके बग़ैर जी नहीं सकते तुम.
***
शैया संगी
हर आदमी निद्रा के लिए बिस्तर पर नहीं जाता
हर आदमी मैथुन के लिए शैयासंगी नहीं ढूँढ़ता
मेरी मेज़ के सारे लोग हैं मेरे आत्मीय
जबकि एक को ही अहमियत देती हूँ चुपके से
चाहती हूँ आधा लिखे पन्ने से
जोंक की तरह रेंगते हुए
चुपचाप आए वह निकलकर
मेरे सामने बैठ जाए
जो नाम, यश, ऐश्वर्य दिया है उसे
दिए हैं कपड़े, खाद्य और चिंतन
गति, संवाद और अनुभव
वे कैसे लगी हैं
मेरे सामने बैठकर बताए
बहुत देर तक सुनती रहूँगी
सुन- सुनकर सोचूँगी उचित- अनुचित के बारे में
सोचते-सोचते जब झुक जाएगा
मेरा शरीर
तब कहूँगी उससे भीतर के विस्तृत शैया के बारे में
जहाँ सिर्फ़ विश्राम मैथुन ही नहीं होता
तन्हाई और आँसू भी ढूँढ़ते हैं आश्रय
आएगा क्या वह मेरे पीछे-पीछे ?
तकिए पर सिर रखकर आमने-सामने होकर सुनूँगी
देखूँगी अचरज से
छूकर देखूँगी संगमरमर का मुखड़ा
उसके बाद टकराऊँगी शायद अपना सिर
उसके अवयव से
क्यों, क्यों उसे उल्टा अंकित किया उपन्यास में ?
आह! पंछी के अंडे की खोल तोड़कर
सचमुच अगर एकदिन बाहर आए
मेरे आध लिखे उपन्यास का नायक
सिर्फ़ जी खोलकर बातें करने के लिए
आ जाए मेरे बिस्तर पर
क्या होगा ?
क्या होगा तब ?
कुछ नहीं होगा
कभी- कभी जवान बेटे सचमुच सोते हैं
माँ की बगल में.
***
नग्नता
जिसके बदन पर नहीं होती पोशाक
उसे हम नग्न कहते हैं
असल में पोशाक के भीतर
हम सभी नग्न.
इसके अलावा स्नान और सहवास भी
हमें नग्न बनाते हैं
स्नान में हम दिव्य शिशु
सहवास में तेज़ घोड़ा !
इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच
श्लील-अश्लील की छाप होने पर भी
दोनों है प्रकृतिगत धागे से बँधी हुई.
नग्नता के बाद आती है अर्धनग्नता.
जैसे पागल, भिखारी और आधुनिकता.
शरीर के बाद आती है मन और विचार की नग्नता.
जो लोग हैं मौलिक साहित्य के सेवक
वे लोग सार्वजनिक तौर पर
हथेली पर दिल दिखाते फिरते हैं.
कुछ अपनी संज्ञा के साथ कैनवास पर चित्र बनाते हैं
अथवा अन्तर्वीक्षण से प्रतिष्ठित करना चाहते हैं अपना मत.
ये सभी बेहिचक नग्नता के साथ
महाजीवन का संधान करते हैं.
देखा जाए तो मनुष्य को छोड़कर
हर प्राणी है नग्न.
इस शब्दार्थ को लेकर वैसे वे
बिलकुल कौतुहल नहीं होते.
मगर मनुष्य उत्सुक - कौतुहली.
नग्न शिशु के प्रति रखता है स्निगधता
नग्न व्यस्क के प्रति तरलता
नग्न पागल के प्रति करूणा
नग्न भिखारी के प्रति वितृष्णा
नग्न आधुनिकता के प्रति दिलचस्पी
नग्न शिल्पी-साहित्य के प्रति विनय.
मगर अचरज की बात है कि
इसके विपरीत मनुष्य नग्न शव के प्रति
किसी तरह का कौतुहल व्यक्त नहीं करता
और तो और पोस्टमार्टम के लिए तैयार
नग्न शरीर के प्रति भी नहीं
हाँ, दिल की धड़कन कायम रहने तक ही मनुष्य नग्न
उसके बाद सभी दिव्य शिशु!
***
श्रमिक का यौवन
वक्त ठिठक जाए
- वह सोचता है.
जब वह उसके नयनों में कुछ कुछ देखता है.
क्या देखता है,
उसे पता है.
साँस रोककर
पीठ से झटकार कर उतारता है क़र्ज़ का बोझ.
एक फूल
एक मुट्ठी अनाज के लिए उसकी हथेली पर खरोंचे.
चाँद, सूरज, सितारे देखने के लिए उसे वक़्त नहीं मिलता
गट्ठर ढोते हुए यक्ष्मा से सड़ गया है उसके सीने का भीतरी हिस्सा.
घुटनों में सिर छुपाकर
आत्मरति से कँपा देता है वह घर के भीतर घर
उसके नयनों में देखने के लिए उसे परमिट की ज़रूरत नहीं होती
मगर अपने क़रीब लाने के लिए
थामना ही होगा उत्कट सुंदर - सुगंधित जीवन.
***
मणिकुंतला भट्टाचार्य
हाउस न. - 10
कल्याणि सागर पथ
10 एपीबीएन गेट के सामने
काहिली पाड़ा
गुवाहटी - 781019 ( असम)
फोन - 09435019920
अनुवादक : दिनकर कुमार
09435103755
( मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविताओं में कल्पना, सूक्ष्म पर्यवेक्षण, विचारशीलता, प्रकृति से लगाव, जीवन- तृष्णा, सौंदर्यबोध, भावानुभूति का चित्रण मिलता है. उनकी कविताएँ बुद्धि दीप्त होने की जगह अनुभवसिक्त ही अधिक हैं अनगिनत कोमल अनुभूतियाँ कविताओं के रूप में वय्कत हुई हैं. उनकी कविताएँ आत्मालाप की तरह हैं वह मानो अपने आप से ही बातें करती रहती हैं. कवयित्री की लंबी कविताओं में चित्रकला का समाहार प्रदर्शित होता है. इनकी कविताएँ पढ़ने के बाद इन्हें " इमेजनिस्ट" कहते हुए हमें हिचक नहीं होनी चाहिए. इस संदर्भ में कवयित्री का व्यकतव्य ध्यान देने योग्य है - " मूल रूप से मैं अपने हृदय के लिए कविताएँ लिखती हूँ. मगर गोपनीय बात कहने के लिए किसी अंतरंग व्यक्ति को ढूँढ़ने की तरह मैं अपने सामने प्रिय पाठक को बैठा लेती हूँ चाहे किसी भी विषय पर कविता लिखूँ मेरा ध्यान उस पाठक पर टिका रहता है... .")
मणिकुंतला की कविताओं पर यह टिप्पड़ी डॉ. प्रफुल्ल कटकी ( पूर्व अध्यापक एवं अंग्रेजी अध्यापक, गुहावटी विश्वविद्यालय.) का हैं.
नारी
आसमान के बीच ठिठका हुआ है सूरज
टूटी- फूटी सड़क किनारे अलाव में
पिघल रहा है अलकतरा.
घरघराहट के साथ चल रहा है रोलर
जिसके दुर्दांत पहिए पर पानी उड़ेल रही हैं
एक दो संध्या के रंग की औरतें
तभी सूरज की परवाह किए बग़ैर
हवा का एक झोंका आए
पल-भर इधर-उधर देखकर
उसने हौले से पूछा दोनों औरतों से
- उड़ा दूँ क्या, उड़ा दूँ क्या तुमलोगों के आँचल से विप्लव का
पताका ?
औरतों ने खींच लिया सिर पर घूँघट
रोलर चला रहे मर्द से लेकर
आगे-पीछे काम कर रहे
सारे मज़दूर अगर औरते होते.
एक ने दूसरी तरफ देखा
- तब क्या होता.
आसमान में घूँघट को उछाल दिया होता
हम सबने मिलकर
आह, घरघराहट के साथ चलता रहा वक़्त का रोलर
यह सब कुछ भी समझे बग़ैर.
***
प्रेम
जिसे तुम चाहते हो
उसके संग ब्याह मत रचाना
हमेशा उसके साथ हम विस्तर होने की ख़्वाहिश मत रखना
एक संग खाना
अथवा अनर्गल बातें बनाना
जिसे चाहते हो
उसके लिए सीने के बीच रोप लेना पेड़
छायादार पेड़
जिसे तुम चाहते हो
मृत प्रतिमा की तरह सजाना
आदम या ईव के हाथों से छूना
और खु़द को उस ऐश्वर्य के अधिकारी मानकर
मन ही मन गर्वित भी होना
हमेशा याद रखना
जिसे तुम चाहते हो
वह तुम्हारा कोई नहीं है
वह किसान की फसल है
कभी मत उखाड़ना उसकी जड़
वह जो भी दे
वही है तुम्हारी प्राप्ति
तुम जिस तरह ग्रहण करोगे उसे
वही तो है मोहब्बत
मोहब्बत तुम्हारे जीवन का समस्त विनय
सर्वश्रेष्ठ आकांक्षा
लगातार क़रीब चाहकर भी
जिसे तुम गृहबंदी नहीं बनाते
उस एक शख़्स की ख़ातिर तुम निर्मल बनो
वह है इसीलिए तो सबकुछ सुंदर है तुम्हारा
जबकि सचमुच वह तुम्हारा कोई नहीं है
वह तो पानी है
वह तो हवा है
जिसके बग़ैर जी नहीं सकते तुम.
***
शैया संगी
हर आदमी निद्रा के लिए बिस्तर पर नहीं जाता
हर आदमी मैथुन के लिए शैयासंगी नहीं ढूँढ़ता
मेरी मेज़ के सारे लोग हैं मेरे आत्मीय
जबकि एक को ही अहमियत देती हूँ चुपके से
चाहती हूँ आधा लिखे पन्ने से
जोंक की तरह रेंगते हुए
चुपचाप आए वह निकलकर
मेरे सामने बैठ जाए
जो नाम, यश, ऐश्वर्य दिया है उसे
दिए हैं कपड़े, खाद्य और चिंतन
गति, संवाद और अनुभव
वे कैसे लगी हैं
मेरे सामने बैठकर बताए
बहुत देर तक सुनती रहूँगी
सुन- सुनकर सोचूँगी उचित- अनुचित के बारे में
सोचते-सोचते जब झुक जाएगा
मेरा शरीर
तब कहूँगी उससे भीतर के विस्तृत शैया के बारे में
जहाँ सिर्फ़ विश्राम मैथुन ही नहीं होता
तन्हाई और आँसू भी ढूँढ़ते हैं आश्रय
आएगा क्या वह मेरे पीछे-पीछे ?
तकिए पर सिर रखकर आमने-सामने होकर सुनूँगी
देखूँगी अचरज से
छूकर देखूँगी संगमरमर का मुखड़ा
उसके बाद टकराऊँगी शायद अपना सिर
उसके अवयव से
क्यों, क्यों उसे उल्टा अंकित किया उपन्यास में ?
आह! पंछी के अंडे की खोल तोड़कर
सचमुच अगर एकदिन बाहर आए
मेरे आध लिखे उपन्यास का नायक
सिर्फ़ जी खोलकर बातें करने के लिए
आ जाए मेरे बिस्तर पर
क्या होगा ?
क्या होगा तब ?
कुछ नहीं होगा
कभी- कभी जवान बेटे सचमुच सोते हैं
माँ की बगल में.
***
नग्नता
जिसके बदन पर नहीं होती पोशाक
उसे हम नग्न कहते हैं
असल में पोशाक के भीतर
हम सभी नग्न.
इसके अलावा स्नान और सहवास भी
हमें नग्न बनाते हैं
स्नान में हम दिव्य शिशु
सहवास में तेज़ घोड़ा !
इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच
श्लील-अश्लील की छाप होने पर भी
दोनों है प्रकृतिगत धागे से बँधी हुई.
नग्नता के बाद आती है अर्धनग्नता.
जैसे पागल, भिखारी और आधुनिकता.
शरीर के बाद आती है मन और विचार की नग्नता.
जो लोग हैं मौलिक साहित्य के सेवक
वे लोग सार्वजनिक तौर पर
हथेली पर दिल दिखाते फिरते हैं.
कुछ अपनी संज्ञा के साथ कैनवास पर चित्र बनाते हैं
अथवा अन्तर्वीक्षण से प्रतिष्ठित करना चाहते हैं अपना मत.
ये सभी बेहिचक नग्नता के साथ
महाजीवन का संधान करते हैं.
देखा जाए तो मनुष्य को छोड़कर
हर प्राणी है नग्न.
इस शब्दार्थ को लेकर वैसे वे
बिलकुल कौतुहल नहीं होते.
मगर मनुष्य उत्सुक - कौतुहली.
नग्न शिशु के प्रति रखता है स्निगधता
नग्न व्यस्क के प्रति तरलता
नग्न पागल के प्रति करूणा
नग्न भिखारी के प्रति वितृष्णा
नग्न आधुनिकता के प्रति दिलचस्पी
नग्न शिल्पी-साहित्य के प्रति विनय.
मगर अचरज की बात है कि
इसके विपरीत मनुष्य नग्न शव के प्रति
किसी तरह का कौतुहल व्यक्त नहीं करता
और तो और पोस्टमार्टम के लिए तैयार
नग्न शरीर के प्रति भी नहीं
हाँ, दिल की धड़कन कायम रहने तक ही मनुष्य नग्न
उसके बाद सभी दिव्य शिशु!
***
श्रमिक का यौवन
वक्त ठिठक जाए
- वह सोचता है.
जब वह उसके नयनों में कुछ कुछ देखता है.
क्या देखता है,
उसे पता है.
साँस रोककर
पीठ से झटकार कर उतारता है क़र्ज़ का बोझ.
एक फूल
एक मुट्ठी अनाज के लिए उसकी हथेली पर खरोंचे.
चाँद, सूरज, सितारे देखने के लिए उसे वक़्त नहीं मिलता
गट्ठर ढोते हुए यक्ष्मा से सड़ गया है उसके सीने का भीतरी हिस्सा.
घुटनों में सिर छुपाकर
आत्मरति से कँपा देता है वह घर के भीतर घर
उसके नयनों में देखने के लिए उसे परमिट की ज़रूरत नहीं होती
मगर अपने क़रीब लाने के लिए
थामना ही होगा उत्कट सुंदर - सुगंधित जीवन.
***
मणिकुंतला भट्टाचार्य
हाउस न. - 10
कल्याणि सागर पथ
10 एपीबीएन गेट के सामने
काहिली पाड़ा
गुवाहटी - 781019 ( असम)
फोन - 09435019920
अनुवादक : दिनकर कुमार
09435103755
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ReplyDeleteआह! पंछी के अंडे की खोल तोड़कर
सचमुच अगर एकदिन बाहर आए
मेरे आध लिखे उपन्यास का नायक
सिर्फ़ जी खोलकर बातें करने के लिए
आ जाए मेरे बिस्तर पर
क्या होगा ?
क्या होगा तब ?
कुछ नहीं होगा
कभी- कभी जवान बेटे सचमुच सोते हैं
माँ की बगल में.
2.
स्नान में हम दिव्य शिशु
सहवास में तेज़ घोड़ा !
इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच
श्लील-अश्लील की छाप होने पर भी
दोनों है प्रकृतिगत धागे से बँधी हुई.
नग्नता के बाद आती है अर्धनग्नता.
जैसे पागल, भिखारी और आधुनिकता.
मगर अचरज की बात है कि
इसके विपरीत मनुष्य नग्न शव के प्रति
किसी तरह का कौतुहल व्यक्त नहीं करता
और तो और पोस्टमार्टम के लिए तैयार
नग्न शरीर के प्रति भी नहीं
हाँ, दिल की धड़कन कायम रहने तक ही मनुष्य नग्न
नए बिम्बों एवं शिल्प का प्रयोग, हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक कविताएँ. मणिकुंतला, दिनकर एवं शेष तीनों को बधाई. शेष को विशेष धन्यवाद हम सब तक इन कविताओं को पहुंचाने के लिए. मंजरी श्रीवास्तव