Saturday, January 12, 2013

सुनील श्रीवास्तव की कविताएँ.



बिहार के आरा में जन्में सुनील अपनी कविताओं में आदमी के संघर्षबोध और उसके विद्रोह को एक अलग तेवर से साधते हैं. अपनी जमीन से आस्थावान होने के लिए वो कोई गुहार नहीं करते बल्कि सावधान करते है और आस्था अनास्था के खेल में जो जीवन छूट रहा है उस पर से पर्दा हटाते हैं : विमल चँद्र पाण्डेय

( साहित्य और उसकी गतिविधियों से गहन जुड़ाव के बाद भी सुनील कविता भेजने में बहुत संकोची है, इसलिए दो संग्रह की कविताएँ पास में रखने के बाद भी कुछेक लघु पत्रिकाओं में ही आ पाए हैं. कई सालों से जनपथ से जुड़े है और अब उसके सहायक संपादक भी है. पढ़ाई लिखाई उनकी आरा में ही हुई है और पढ़ने-लिखने में इतने अच्छे रहे कि एस एस सी के एक्जाम में टॉप टेन में आने से अपनी मनचाही जगह आरा में नौकरी भी मिल गई. आयकर विभाग आरा में कार्यरत है. उनका दिल आरा में बसता है और आरा वाले भी बहुत आदर और प्रेम के साथ उनको अपने में सँजो कर रखे हैं. इसके पहले आभासी संसार पर सुनील की कविताएँ नजरिया पर प्रकाशित हुई थी जिसको लोगों ने सराहा. आगे से उनकी कविताएँ समय समय पर जनराह पर दी जाएगी. अभी प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ. ) 


जिन्दा हत्या     
(मुंबई में मारे गए बिहारी युवक राहुल राज की स्मृति में)

इस दौर में जब
शेरों को मारा जा रहा है
कुत्ते की मौत
अर्जुनों से ज्यादा
      पैदा हो रहे हैं अभिमन्यु
आग और पानी ने
दोस्ती कर ली है
तब
तुम्हारी हत्या की खबर पर
आंसू बहाना निरा बेवकूफी है न !

वैसे, बेवकूफी उनकी भी है
जो यह समझते हैं
कि गलती की थी तुमने
जो महज एक देशी कट्टा ले
चले आए वह बड़ा साम्राज्य ध्वस्त करने
नहीं जानते वे
कि व्यवस्था जो देख नहीं पाती
आंधी के संकेतों को
उसे बिखरना होता है
मिटना होता है

और बेवकूफी उनकी भी
जिन्होंने अपनी नपुसंक कार्रवाई में
घेरकर मारा तुम्हें
और अब थपथपा रहे पीठ अपनी
कि बचा ली है अपनी लंका को
राख होने से

लेकिन भाई, सच कहूँ
तुम्हारी हत्या का जिन्दा प्रसारण,
जिन्दा प्रसारण देखते वक्त
मेरे जेहन में बिलकुल नहीं आया था
महाभारत का चक्रव्यूह
या फिलोसोफी ऑफ बम

उस वक्त मैंने देखा था सिर्फ
जवानी में उबलते एक खूबसूरत लड़के को
और उसकी देह को छेदतीं
हिंजड़ों की गोलियों को

एक हूक उठी थी
यार, तुमने क्यों किया यह सब
क्यों नहीं बैठे रहे चुपचाप  
घटनाओं पर एक तीखी प्रतिक्रिया दे
दोस्तों-अपनों के बीच
व्यवस्था के प्रति एक भद्दी गली उछाल
क्यों चले आए मरने
मौत को चूमने तुम
हमारी, हम सब की जिंदगी को दुत्कारते
***

जादू उनकी जबान का

(We cannot allow the republic killing its own children
      -A bench of Supreme Court on Jan 14, 2011)
जैसे दीवारों के कान होते हैं
खम्भों की भी जबान होती है
और यह जबान हमें आश्वासन देती है
कि हम बेवजह मारे नहीं जाएँगे

मुर्दो, सुनो यह आश्वासन
और जीवित हो जाओ
अपनी छाती की छेद में डालो उँगली
और निकाल लो गोलियाँ

गर्भ में मारे गए बच्चो
जन्म लो अब
नए आश्वासनों के आलोक में

आत्महत्या करनेवालों कृषको
अपने लहू से अलग करो
सल्फास का जहर
आओ उपजाओ अन्न

गणतंत्र के गुमशुदा लोगो
सब लौट आओ घर
आँगन में रोपो फूल
हवाओं ने दिया है आश्वासन
फूलों की निगाह्वानी का

तुम भी लौट आओ रामवचन मास्टर
पोंछ दो अपनी पीठ पर से
पुलिसिया डंडों के निशान
जाओ पढाओ बच्चों को
बताओ उन्हें यह नया विधान
सारे खम्भे बोलेंगे अब
एक ही जबान

जबान आश्वासन की
लोकतंत्र की सर्वकालिक भाषा
सीख गए हैं सारे खम्भे
सुदृढ़ होगा गणतंत्र हमारा 

   
मेरे भीतर भी ......

नहीं सोचते तुम
जो करने को सपने में भी
वही करता हूँ रोज-रोज
सुबह जगने से रात सोने तक
कभी-कभी सो जाने के बाद भी

वह आग
जिसे सजाकर रखा है तुमने
अपनी खूबसूरत आँखों में
और जिसे इस तरह से रखते हो
मेरे सामने
कि बस अकबका कर रह जाऊं मैं
उसी आग पर रोज-रोज
डालता हूँ ठंडा पानी
सच मानो बुझी नहीं है अब तक
वह मेरे भीतर भी

सौभाग्यशालियो, सुनो
एक टुकड़ा बारिश का
कभी रहा है मेरे पास भी
तुम कैसे यकीन करोगे
कि उसे सरकने दिया है मैंने
उस छोटी-सी चीज के लिए
जिसे तुम नहीं मान सकते प्यास

वसंत तुम्हें मिलेगा कल
उसे रख लेना जेब में
फिर चमकना आकाश पर
चाँद की तरह
ध्रुवतारे की तरह
दिशा दिखाना दुनिया को
और मत देखना मेरी तरफ

हालाँकि दुनिया में रहूँगा मैं भी
और तुम चाहे जितना भूलना चाहो
मैं कौंधता रहूँगा तुम्हारे जेहन में
किसी नियम के अपवाद की तरह  
***
अनशन

-          अम्मा गोदी
-          नहीं पैदल
-          नहीं नहीं गोदी
-          कहा न पैदल
-          गोदी गोदी गोदी
-          अच्छा आ जा
-          मेरा मुन्ना राजा
-          कितना प्यारा मुन्ना है


अनशनकारियो
वे तुम्हारी माँ नहीं है
जो मान लेंगे हर जिद
देवपथ के राहियो
मरने लगोगे जब तड़प-तड़प कर
वे तुम्हारे हाथों में एक भ्रम थमाएंगे
तुम उसे पीकर तोड़ देना हड़ताल
फिर जीत का जश्न मनाना
इठलाना अम्मा की गोदी चढ़कर

कइयों ने किया ऐसा
कई कर रहे ऐसा
कई अमर हो गए

लेकिन अगर
तुमने पहचान लिया
हाथों में थमाए गए पेय को
पीने से कर दिया इनकार
तो तुम्हें मरना पड़ेगा

कई मर गए
कई मर रहे
एक औरत वहाँ सुदूर पहाड़ों में
अभी तक जिन्दा है
ग्यारह वर्ष बाद भी

हम सब उसके मरने का इन्तजार कर रहे हैं  

***
तमीज

(कवि कुमार वीरेंद्र के प्रति)

गमछिया रख दो न वीरेंद्र भाई
क्या रखा है इस लाल गमछी में
जो हमेशा गले लगाए फिरते हो

तुम तो पहचानते हो इस समय को
यह अपनी जरूरतों को
तरजीह देने का समय नहीं है
उनकी संहिताओं को मानने का समय है
वे विश्वास नहीं करेंगे
किसी में आज भी बची है कूव्वत
कि अपने रंग में रँगा
घूमता है उनकी दुनिया में

तुम भूल गए क्या
राजधानी का वह दफ्तर
चपरासी ने उतरवा लिया था गमछा
भीतर भेजने से पहले
तुम पूछ भी तो नहीं पाए थे
उस आई.ए.एस. अधिकारी से
कि साहब क्यों कर दिया जाता है नंगा
हमें आपसे मिलने से पहले

दूर क्यों जाएँ
वह हमारे प्रतिनिधियों की सभा थी
चुने हुए प्रतिनिधियों की सभा
गेट पास था तुम्हारे पास
फिर क्यों शक हुआ प्रहरियों को
सुरक्षा के दुश्मन
गमछी लटकाकर ही आते हैं क्या

मैं ही क्या कहूँ
मेरी गली के कुत्ते भी तो
भौंकने लगे थे उसदिन
तुम्हारे गले में गमछी देख कर

खतरनाक समय है वीरेंद्र जी
कुत्ते भी सीख गए हैं
आदमी की तमीज

गमछिया उतार दो भाई
गुजरने नहीं दिया जाएगा वर्ना
तुम्हें किसी गली से 
***
चूक

बस यहीं चूक जाता हूँ

रोज एक छुरी
रखकर ऑफिस बैग में
निकलता हूँ घर से
दफ्तर के आलीशान कमरे में
कुर्सी पर बैठा अजगर
लपलपाता है जीभ
खोलता है मुँह
मुझे निगलने को जब
तो छुरी क्या
भूल जाता हूँ अपना आदमी होना भी
खरगोश-सा बंद कर लेता हूँ आँखें
निगले जाने को प्रस्तुत

बस यहीं चूक जाता हूँ

नैहर गई पत्नी
शिद्दत से करती है इंतजार
शाम होने का
आता हूँ घर तो आता उसका कॉल
पूछती हाल-चाल
कई-कई बातें बतियाती
आखिर में करती है निहोरा
देखना चाँद को आज
कितना सुन्दर लग रहा

और मैं
मैं खोलता हूँ डायरी
लिखता हूँ आज का खर्च
फिर उसे आमदनी से घटाता हूँ
बैलेंस निकालता हूँ
और शून्य से बढती उसकी निकटता
को देख शून्य हो जाता हूँ

बस यहीं चूक जाता हूँ

बचपन का दोस्त पगलाकर
कर लेता है ख़ुदकुशी
फोन पर आती है खबर
आते नहीं आँसू मगर

और भी कुछ ख़बरें
पगलाए हुए दोस्तों की
खड़ी हैं कतार में,
बेरोजगार भाई ने किया था कॉल
उसकी आवाज में भी झाँकने लगा है
कुछ संदेहास्पद

सोचता हूँ
सोचते जाता हूँ
आखिर यह हल निकालता हूँ
कि स्विच-ऑफ कर
रख देता हूँ फोन

बस यहीं चूक जाता हूँ

तोंद पर हाथ फेरते लल्लन बाबू
गोल्डन फ्रेम के चश्मे से पढ़ते हैं अख़बार
नक्सलियों को गरियाते हैं
चाय सुडकते हम
हाँ में हाँ मिलाते हैं

छाती में लेकर कैंसर की गांठें
पोछा लगाती निधिया की माई
मांगती है महीने का एडवांस
छह सौ रुपये में क्या
भर जाएगा पेट
हो जाएगी दवाई
पूछ नहीं पाता हूँ

बस यहीं चूक जाता हूँ

लेकिन बात यह भी है
मैं चूकता नहीं, दोस्त, कभी
चूक जाने का अभिनय करता हूँ
ताकि तुम पहचान न सको मुझे
कर न सको सबसे अलग
यह रोज जो थोड़ा-थोड़ा जहर
देते हो तुम मुझे
उसे सहेज कर रखता हूँ एक घड़े में
भर जाएगा जब यह
डाल आऊंगा तुम्हारे कुएँ में
यह सपना मुझे रोज आता है
मैं रोज यह सपना देख बहल जाता हूँ

बस यहीं चूक जाता हूँ.
*** 


सुनील से संपर्क किया जा सकता है: 
सुनील श्रीवास्तव
नेहरू नगर , आरा, बिहार
802301
janpathpatrika@gmail.com  , 9955209528



1 comment:

  1. bahut badheeyaa aur maarak kavitaayein...amma kee godee, rahul raj aur gamchha...jitne facebook pe gand machaaye kavi hain, unhe kuchh seekhnaa chahiye ki kavita kya hoti hai...suni bhaai aapko bahut badhaai aur sheshnath aapko bhee...janraah kee yah samgree dil ko chhoo gayee...

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