Wednesday, July 30, 2014

यहाँ विफलता नहीं संघर्ष को याद किया जाता है : प्रांजल धर.


विपिन चौधरी की कविताओं पर यह आलेख प्रांजल धर का हैं. यह आलेख जनपथ में जाना था लेकिन इससे पहले विपिन की कविताओं पर अशोक कुमार पाण्डेय( अब के अशोक आज़मी) और महेश वर्मा का आलेख आ गया तो हम वहाँ नहीं दे पाए. प्रांजल भाई समय के बेहद पाबंद हैं और हमारे द्वारा दिए गए समय सीमा में उन्होंने लिख कर दिया भी लेकिन हम कुछ मजबूरियों से नहीं दे पाए. बहरहाल;  प्रांजल भाई से क्षमा के साथ उस आलेख को जनराह पर दे रहे हैं. आशा है, आप अपनी राय से अवगत कराएंगे. (मॉडरेटर) 

           पिछले कुछ समय से युवा कवयित्री विपिन चौधरी की कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने और अनेक मंचों से सुनने को मिलती रही हैं। उनका लेखन मन को भीतर तक स्पर्श करता है। विपिन चौधरी की कविताएँ गहन प्रेक्षणों और बारीक जीवनानुभवों की कविताएँ हैं। कविताओं में जो वे कह रही होती हैं, महज उतना ही उनकी कविता का अभिप्रेत नहीं होता। इसके उलट कविताओं की पंक्तियों के पीछे यथार्थ की तमाम परतें अनावृत होती देखी जा सकती हैं। उदाहरण के लिए हम उनकी एक साधारण-सी लगने वाली कविता पुलिया पर मोची को देख सकते हैं जहाँ मोची की उम्र और उस पेड़ की उम्र में एक वाजिब समानान्तरता देखी जा सकती है जिसके नीचे वह बैठा करता है। यहाँ कवयित्री के अपने अनुभवों के वलय भी पाठकों का ध्यान खींचते हैं, जब वह कहती है कि अपने बचपन में इसी मोची और इसी पेड़ को देखने का नज़रिया कुछ और था और आज समय बदलने के साथ नज़रिया भी बदल गया है। इस कविता का यह प्रारम्भिक अंश द्रष्टव्य है :
पुलिया काफी पुरानी है 
उस पर, पीपल की छाँव तले बैठा यह मोची भी
पेड़ की उम्र से मोची की उम्र का पता नहीं चलता 
न मोची की उम्र से पेड का
और न पानी की गति का
बिना लाग लपेट पुल के नीचे बहता है
  
बचपन में इस पुलिया से गुज़रते हुये
थक जाने पर
माँ की गोदी के लिये मचलती पुलिया के नीचे बहते पानी में अपनी परछाई
देख खुश होती
दिखता यही मोची जूते 
गाँठता

तब पुलिया और मोची आकर्षण नहीं था
बचपन के पास दूसरी चीज़ें थीं।

           आमतौर पर हम बड़ी-बड़ी चीज़ों और घटनाओं को देखने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अनेक छोटी-मोटी बातें हमारी निगाहों में नहीं आ पातीं या फिर हम उन्हें देखना-जानना और उनके बारे में समझना प्रायः महत्वहीन समझते हैं। सन्त रहीम ने शायद यही सब सोचकर लिखा होगा कि रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि। पर बेस्ट आउट ऑफ़ वेस्ट यानी कचरे में से भी काम की उपयोगी वस्तु खोज लेने वाली कवयित्री की दृष्टि उन अदेखे इलाकों तक भी जाती है, जहाँ किसी भी सरोकार वाली रचना को जाना ही चाहिए। विपिन की एक कविता है रसूल रफूगर का पैबन्दनामा। एक सधे हुए शिल्प में यह कविता कुछ अधिक मानवीय बिम्बों की रचना करती है :

वह फटे कपड़े पर जालीदार पुल बनाकर   
कपड़ों का खोया हुआ मधुमास वापिस कर देता है 

जब रसूल के इस हुनर को खुली आँखों से देखा नहीं था
तब सोचा और जाना भी नहीं था
कि फटी चीज़ों से इस कदर प्रेम भी किया जा सकता है

           इस कविता में एक आम भारतीय की घर-गृहस्थी के दुखों का महीन तानाबाना है, उस जाल का चित्रांकन है जो किसी गृहस्थ को नमक-रोटी की जुगत के लिए घेरे रहता है। किसी की बेवा बहन है तो किसी की तलाकशुदा बेटी है घर में। एक आम मध्यमवर्गीय परिवार, बल्कि कहना चाहिए कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की समस्याओं का पूर्ण चित्र इन कविताओं में से झाँकता रहता है। आज जब हर तरफ परिवर्तन और उसके लिए व्यक्त की जाने वाली अकुलाहट का जिक्र होता रहता है, तब यह कविता बहुत प्रासंगिक नजर आती है क्योंकि इसमें कवयित्री बिना किसी पूर्वग्रह के इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि अगर क्रान्ति की चिंगारी किसी को थमानी हो तो इस रफूगर से ज्यादा योग्य दूसरा कोई हो नहीं सकता।
           विपिन की कविताओं में अपने समय की विसंगतियों पर व्यंग्य है, विसंगतियों के विस्तार और आकार पर व्यंग्य है, उनकी सूक्ष्मता से मुठभेड़ है और राजनीति के ककहरे को समझने की गहराई है। अपनी कविता लोकतंत्र का मान रखते हुए में वे लिखती हैं : “कम्बल से एक आँख बाहर निकालकर हम बाशिन्दों ने/ इन सफेद पाजामाधारी मदारियों के जमघट का तमाशा खूब देखा/ सावधानी से छोटे-छोटे कदमों से ये नट उछल-कूद का तमाशा खूब दिखाते। हर पाँच साल में होने वाले लोकतंत्र के निर्वाचन महापर्व की सच्चाई के पीछे आम जनता के प्रति किए गए कितने वादों की कितनी ही परतें दबी होती हैं, इसका अन्दाजा हमें इस कविता से मिलता है। यहाँ आकर कुछेक बिन्दुओं पर यह कविता एक गहन विचार कविता की शक्ल अख्तियार कर लेती है। विपिन के यहाँ कविता में कल्पना तो है, पर हवाई और निराधार कल्पनाएँ नहीं हैं। यहाँ अनुभूति की तीव्रता तो है, पर ये अनुभूतियों में कृत्रिमता या बनावटीपन हर्गिज नहीं है। यहाँ अनावश्यक भावनाओं का उबाऊ अम्बार नहीं है, गलदश्रु भावुकता का मिथ्यातिरेक नहीं है बल्कि मर्मवेधी चित्र हैं जो हमारे-आपके आसपास से उठाए गए हैं।
           कपालिक अघोरी की तरह, कील, प्रथम पुरुष और सिम्फनी जैसी कविताओं का फलक बहुत व्यापक है, भले ही ये प्रथमदृष्टया छोटे विषयों पर रची गयी कविताएँ लगती हैं। विपिन की कविताएँ बताती हैं कि कविताओं का अर्थ मन से नहीं, बल्कि कानों से लिया जाता है। अर्थग्रहण और भावग्रहण की ये तरकीबें कविता में आकर एक नया वितान-सी रचती मालूम पड़ती हैं और पाठक कविताओं का रस लेता ही रहता है। स्वर-लहरियों की उठान से खाली मानव मन का कोना कितना सूना हो सकता है, और कला उसमें कितना रस भर सकती है, इसके दृष्टान्त हमें विपिन की कविताओं में बखूबी मिलते हैं। वे लिखती हैं कि संगीत की मादकता के लिए एक पुल पर कोमलता से चलना होता है। आज जब हर तरफ खतरनाक किस्म के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक किस्म के सरलीकरणों का बोलबाला है तब ऐसी कोमलता को सुरक्षित रखने की कवयित्री की कामना उन्हें विशिष्ट बनाती है। साथ ही ये कविताएँ तथाकथित भूमण्डलीकरण के दुष्परिणामों को उकेरती हैं और हमें इस बात के लिए सजग करती हैं कि सूखती जा रही मानवता की धारा को किस तरह बचाया जाए। आज भी ऐसे लोग हैं जो किसी अलमस्त बेहोशी में कुछ नेक काम कर दिया करते हैं, जैसे गाय को आटा या कुत्ते को रोटी खिलाना या फिर किसी भूखे व्यक्ति के लिए खाने का इन्तजाम करना। ये कविताएँ इस बात की सराहनीय कोशिश करती हैं कि नेक कामों की नेकनीयती को समझने के ईमानदार प्रयास किए जाएँ। अनुभवों की रोशनाई से रची ये कविताएँ हमें ऐसे सन्देशों के प्रति जागरूक करती हैं जिन्हें जरूरत से ज्यादा बार सुना और कहा गया है और इसीलिए अब ये सन्देश हमारी तंत्रिकाओं में जम-से गए हैं। ईमानदार लेकिन सिरफिरे लोग किस तरह हाशिए पर डाल दिये जाते हें और उनका नाम देश के जनसंख्या रजिस्टर में से हटा दिया जाता है, इसका सुन्दर नमूना हमें सिरफिरा नामक कविता में मिलता है। ऐसी कविताएँ व्यवस्था विरोध की ईंट से कविता की इमारत को गढ़ती हैं।
           जिस तरह पूरी दुनिया को एक ही खास रंग और एक ही खास भाषा में रँगने की साजिश जारी है, उसमें एकरसता के खिलाफ जाने वाली एक कविता अपनी एकता के बलिहारी की ये पंक्तियाँ शोषण की संरचनाओं की बखिया उधेड़ने वाली लगती हैं : तुम्हारी भूख और मेरी प्यास एक नहीं थी/ फिर भी एक ही सिक्के की उलट-पलट थे  हम/ चाहे किसी भी  कोण से दिखे/ हमें एक जैसा ही दिखना था ऐसे हालात के प्रति विपिन विद्रोह का स्वर भी उभारती हैं और कई बार उनकी कवताएँ देश-दुनिया और समाज की स्त्रियों के लिए आवाज भी उठाती हैं। पर याद रखना चाहिए कि यह सब विपिन के यहाँ बहुत गहराई में जाकर सम्पन्न होता है, न कि प्रदर्शनबाजी या नारेबाजी की शक्ल में। ऐसे कुछ मोड़ों पर आकर ये कविताएँ सृजनात्मकता और चिन्तनशीलता का सुन्दर कोलाज बनाती हैं।
           अगर कुछ सीमित शब्दों में कहना हो तो विपिन की कविताओं का सूत्रवाक्य शायद यही होगा कि यहाँ विफलता नहीं, संघर्ष को याद किया जाता है। पर कैसे संघर्ष को और किसके संघर्ष को याद किया जाता है? इस सवाल के उत्तर विपिन की अनेक कविताओं में व्याप्त हैं। मसलन, यासिर अराफात का संघर्ष या फिर अपने अस्तित्व को जूझ रही अनेक भाषाओं का बुनियादी संघर्ष या फिर जीवन के लिए हाँड़तोड़ मेहनत करने वाले मजूरों का संघर्ष वगैरह। इससे कवयित्री की प्रतिबद्धता का पता चलता है और कवयित्री ने लिखा भी है कि प्रधानमन्त्री तो बल्लियों के उस पार हैं, हम तो जनता हैं, हमें बल्लियों के इस पार ही रहना है। तमाम यथास्थिति का विरोध करती ये कविताएँ आम जनता के संघर्षों से अपनी ऊष्मा को सँजोती हैं और कविता में आमफहम बिम्ब ले आती हैं जिनसे हम भीतर तक अपना जुड़ाव इन कविताओं से महसूस कर पाते हैं।
           जो भी तंत्र है, वह मानव को सुख-सुविधा और सुशासन देने के नाम पर जो कुछ देता आया है, विपिन उन सबका लेखन करती हैं। मसलन, दंगे, पुलिस, पिटाई और राजनीति आदि। परंतु पीड़ा का तो फलसफा ही ऐसा है जिसे कोई शासन या प्रशासन या उसका कोई भी तंत्र समझ ही नहीं सकता। जो कविताएँ प्रेम को विषय बनाकर रची गईं हैं या जिन कविताओं में प्रेम का चाहे-अनचाहे जिक्र हुआ है, वे समग्रता में इस विषय को प्रस्तुत करती हैं और कुछ अछूते कोनों का भी संधान करती हैं। यहाँ यह बात जोड़नी होगी कि उनकी कविताएँ एक स्त्री मन की कविताएँ तो हैं, पर उनकी संवेदनाएँ सिर्फ स्त्रियों तक सीमित नहीं हैं। न ही उनकी कविताएँ किसी संकीर्णता की शिकार हैं। कुल मिलाकर विपिन की कविताएँ हमें एक ऐसे बहुरंगी भावजगत में ले जाती हैं जहाँ कल्पना और यथार्थ के अपने-अपने रंग हैं, जहाँ परिवर्तन की बेचैनी है और जहाँ पहुँचकर आशा का संचार होता है।
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प्रांजल धर
2710, भूतल
डॉ. मुखर्जी नगर
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