Tuesday, January 29, 2013

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की राजनीति


राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हर साल भारत रंग महोत्वसव के दौरान पाकिस्तान शिरकत करता रहा है. लेकिन इस बार भारत पाकिस्तान के रिश्तों में आई कड़वाहट की वजह से पाकिस्तान के अजोका थियेटर द्वारा किया जाने वाला नाटक मंटोरामा को स्थगित कर दिया गया. इस दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति को लेकर युवा लेखिका मंजरी श्रीवास्तव ने वरिष्ठ लेखक मुशर्रफ़ आलम जौकी से जो बात चीत की हैं वो प्रस्तुत है- 

मंजरी श्रीवास्तव: लगभग हर वर्ष भारत रंग महोत्सव में पाकिस्तान शिरकत करता था. इस वर्ष भी राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव ने मंटो जन्म शताब्दी मनाने का ऐलान किया था. पर पाकिस्तान के अजोका थिएटर ग्रुप द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक 'मंटोरामा' के अचानक स्थगित कर दिए जाने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?

मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी: ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है.२६/११ के समय भी जब कसाब अपने आतंकवादी दोस्तों के साथ मुंबई में आतंक फैलाने के इरादे से आया था, उस समय भी पाकिस्तानी कलाकार वापस भेज दिए गए थे. भारत में ऐसा पहले भी होता रहा है कि भारत पाक-संबंधों को देखते हुए शिवसेना और मनसे जैसे कई संगठन एक घिनौनी राजनीति की शुरुआत कर देते हैं. यह वास्तविकता है कि आरम्भ से ही पाकिस्तान की मंशा भारत को लेकर ठीक नहीं रही है. १९६५ और १९७१ के युद्ध इसके उदाहरण भी हैं. इसके बाद भी राजनीतिक परिस्थितियों में पाकिस्तान मौक़े-बेमौक़े अपनी सीमा लांघते हुए ऐसे हमले करता रहा है. लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण मुद्दा यह उभरता है कि राजनीति और साहित्य का क्या सरोकार है.राजनीति तोडती है और साहित्य जोड़ता है. कला और साहित्य का मामला राजनीति से बिलकुल अलग और उलट होता है. मैं इस मामले में मदीहा का समर्थन करता हूँ. मदीहा ने एनएसडी को लताड़ते हुए बिलकुल सही कहा है कि- "यह कैसा हिन्दुस्तान है. अपना लोकतंत्र का बिल्ला टॉयलेट में फ्लश कर दीजिए. नफ़रत फैलाने वाले मुट्ठी भर लोगों के सामने पाकिस्तानी हुकूमत घुटने टेक देती है. आपने भी वही किया. अब मत कहियेगा की हम शरीफ़ लोग हैं.और यह फ़िलॉसफी तो बिलकुल भी नहीं चलेगी की मंटो जितने पाकिस्तान के हैं, उतने ही हिन्दुस्तान के.इस बार का महोत्सव मंटो पर केन्द्रित है और 'मंटोरामा' का ही मंचन नहीं हुआ.ख़ैर, इस फ़ैसले पर कोई ऐतराज़ नहीं कर हम कलाकारों की बची-खुची इज्ज़त एनएसडी ने उतार डी. ख़ाक में मिला दो ऐसा रंगमंच जहाँ मामूली फ़रमान से तुम कलाकारों की पतलून सरकने लगती है." यह हमारे साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास का दुर्भाग्य है कि मंटो और इक़बाल जैसे बड़े दानिशवर और साहित्यकारों के साथ भी राजनीति का खेल खेला गया. यहाँ मंटो से पहले मैं इक़बाल का भी मुद्दा उठाना चाहूंगा जिनकी मृत्यु १९३८ में हो गई लेकिन उन्हें पाकिस्तानी साहित्याकार घोषित किया गया. आप देखें तो उस समय हिन्दू-मुस्लिम का अंतर इस हद तक बढ़ चुका था कि शेख अब्दुल्लाह जैसे लोगों को भी यह कहना पड़ा था कि जो क़ौम हमारे हाथ से एक गिलास पानी नहीं ले सकती है वो हमें हमारा अधिकार कैसे दे सकती है. उस समय ऐसी मानसिकता इक़बाल जैसे बहुत से मुसलमानों की थी जो विभाजन के बाद भी यहीं रह गए.कहने का तात्पर्य यह है कि यह इक़बाल जैसों का केवल एक क्षणिक अनुभव था. आज़ादी से नौ साल पहले मरने वाले इक़बाल को पाकिस्तानी नहीं कहा जा सकता मगर हमारी राजनीति की घिनौनी परंपरा ने इक़बाल जैसे महान कवि और दार्शनिक को पाकिस्तान की झोली में डाल दिया. इसी तरह, सारा जीवन भारत में रहने वाले और जीवन के केवल सात साल पाकिस्तान में गुज़ारने वाले मंटो को भी यहाँ की राजनीति ने पाकिस्तान को सौंप दिया. मदीहा ठीक कहती हैं कि अगर उनके जाने के बाद एनएसडी यह ड्रामा करती है कि मंटो हिन्दुस्तानी हैं तो फिर एनएसडी ने मंटो पर नाटक का प्रदर्शन करने से मना क्यों किया ? मैं एक बात और भी बताता चलूँ कि मैं मंटो को सदा से हिन्दुस्तानी मानता आया हूँ और मैंने इस विषय पर काफ़ी पहले एक लेख भी लिखा था. मंटो पत्नी के जोर देने पर ज़बरदस्ती पाकिस्तान गए लेकिन वहां जाकर भी मंटो एक पल के लिए भी स्वयं को भारत से काट नहीं सके.जैसे, एक जगह मंटो लिखते हैं:-"आज मेरा दिल उदास है.चार-साढ़े चार बरस पहले जब मैंने अपने दूसरे वतन बम्बई को छोड़ा था तो मेरा दिल इसी तरह दुखी था. मुझे वो जगह छोड़ने का सदमा था जहाँ मैंने ज़िन्दगी के सबसे हसीं दिन गुज़ारे थे."  इसी तरह मंटो एक जगह और लिखते हैं:-"मैं यहाँ पाकिस्तान में मौजूद हूँ लेकिन मैं चलता-फिरता बम्बई हूँ. मैं कहीं भी जाऊंगा बम्बई में ही रहूँगा."
बहुत आसानी से मंटो के उस दर्द को समझा जा सकता है कि मंटो ने विभाजन को कबूल ही नहीं किया. एक तो इसका सटीक उदाहरण 'टोबा टेक सिंह' है और 'यज़ीद' जैसी कहानियाँ हैं. इन कहानियों के सन्दर्भ में आसानी से कहा जा सकता है कि मदीहा ने भारत सरकार पर जो गुस्सा ज़ाहिर किया है वह एक रंगकर्मी और कलाकार का गुस्सा है और वह जायज़ है. देखा जाए तो इस तरह के मामले में केवल दो देशों की घिनौनी राजनीति ही होती है. पाकिस्तान के पहले आक्रमण के साथ जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने फेसबुक पर अपने सन्देश में लिखा कि कहीं ऐसा तो नहीं की ये दोनों देशों की अपनी-अपनी समस्याओं से निपटने की एक चाल हो क्योंकि जब भी दोनों देश गृहयुद्ध में उलझते हैं तो बाक़ी सारी समस्याएं हाशिए पर चली जातीं हैं. ये सच हो, तब भी, इस मामले में राजनीति की वकालत नहीं की जा सकती. कला और संस्कृति को आज़ाद होने का हक़ हासिल है. यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए की अंकुश या दबाव जहाँ एक घृणित राजनीति के आईने में आप किसी भी देश के कलाकार का अपमान कर रहे हों. मेरी मानें तो ये मशहूर रंगकर्मी मदीहा गौहर से ज्यादा मंटो का अपमान है और देश चलाने वालों को यह अच्छी तरह से याद रखना चाहिए कि अभी हम मंटो जैसे साहित्यकारों के अपमान का बोझ उठाने को तैयार नहीं हैं.  

मंजरी श्रीवास्तव: मदीहा के समर्थन में भारतीय साहित्यकारों और रंगकर्मियों के सामने आने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?


मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी: साहित्य, भाषा और देश की दीवारों से कहीं अलग है. इसलिए ऐसे हर मुद्दे पर साहित्यकारों और रंगकर्मियों द्वारा आवाज़ बुलंद करना ही एकमात्र विकल्प है. हम एक ऐसी घृणित या बदलापूर्ण संस्कृति में जी रहे हैं जहाँ ईंट का जवाब पत्थर से देने की आदत पड़ चुकी है. बाबरी मस्जिद पर हमला हुआ तो पाकिस्तान और बांग्लादेश के मंदिर भी तोड़ डाले गए. यह एक राजनीतिक रद्देअमल था. लेकिन इसी का दूसरा पहलू है कि मदीहा गौहर समेत तमाम बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों ने खुलकर अखबारों में मंदिरों को तोड़े जाने का विरोध किया. मीडिया केवल नेगेटिव समाचार को ही पहुंचाने तक सीमित हो गया है.लेकिन यह अच्छी शुरुआत है कि मदीहा को लेकर पत्र-पत्रिकाओं और फेसबुक आदि पर भी नाराजगी व्यक्त करने और मदीहा के समर्थन में बयानात की क़तार लग गई है. लेकिन इन सब के पीछे एनएसडी  की कलाई खुल कर सामने गई है. भारत रंग महोत्सव जैसे आयोजनों में भी इतनी घटिया राजनीति की उम्मीद नहीं की जा सकती थी. जहाँ इतने सारे रंगकर्मी मौजूद हों वहां बहुत आसानी से मंटो की आवाज़ सारी दुनिया को सुनाई जा सकती थी.नाटक एक बड़ा माध्यम है और यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि मंटोरामा आज के समय के लिहाज़ से रंगमंच की ज़रूरतों को देखते हुए एक बड़ा और सार्थक कदम है क्योंकि मंटो अपने समय में भी उतने ही सार्थक थे जितने आज. उस समय भी मंटो जैसी कोई आवाज़ नहीं थी और आज भी स्वाधीनता के ६७ वर्ष बाद ऐसी कोई आवाज़ नहीं जो एक बड़ी क्रांति का स्वर बन सके. देश की राजनीति से ज़्यादा  एनएसडी ने जिस कायरता का परिचय दिया है उसके लिए माफ़ी एक छोटा-सा शब्द है. इस कदम ने भारत रंग महोत्सव की भूमिका को भी एक नकारात्मक भूमिका बना दिया है. इस सन्दर्भ में यह बात भी बेहद अहम् है कि यदि सरकारी फरमान होते तो इस नाटक का मंचन सरकार की ख़िलाफ़त करके कहीं नहीं करवाया जा सकता था. बाद में अक्षरा थिएटर में इसका सफल मंचन कराया गया. इससे यह पता चलता है कि यह एनएसडी की अपनी सोची-समझी राजनीति थी.  

मंजरी श्रीवास्तव: इससे भारत-पाक संबंधों पर क्या असर पड़ेगा ?

मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी: पाकिस्तान के जंगग्रुप और भारत के टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा चलाये जा रहे 'अमन की आशा' की आशाएं भी इस तरह की वारदातों से धूमिल हो जाती हैं.  यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान की जनता में से कोई भी जंग नहीं चाहता. साहित्यकार बिरादरी या रंगकर्मी आमतौर पर इस बात के इच्छुक होते हैं कि कैसे दोनों देशों के रिश्तों को मधुर बनाया जाए. मगर होता क्या है. सारी कार्यवाई एक तरफ़ हो जाती है और नफ़रत की राजनीति इन सब पर भारी पड़ती है. पाकिस्तान में अभी हाल में कादरी समर्थकों का हंगामा इसी सिलसिले की एक कड़ी था. भ्रष्टाचार में डूबी हुई सरकार को उबारने के लिए पाकिस्तानियों ने कादरी में भारतीय अन्ना हज़ारे को देखा. दरअसल भ्रष्ट राजनीती के पीछे छिपी नफ़रत की भाषा को दोनों देशों की अवाम अच्छी तरह समझती है. दिल्ली गैंग रेप का मामला हो या भ्रष्टाचार का राक्षस, किसी भी तरह के आन्दोलन में साहित्य और कलाकारों की अपनी भूमिका रही है. साहित्य हमेशा से आज़ाद रहा है. अभी हाल में सन २०१२ में पाकिस्तान के ख़ालिद तूर का एक उपन्यास "बालों का गुच्छा" सामने आया. "बालों का गुच्छा" उस पाकिस्तानी राजनीति को बेनक़ाब करता है जहाँ सरकार के पीछे मौलवियों और ठगों जैसे तांत्रिकों और फ़कीरों का हाथ है, इन्हीं के पास असल सत्ता है. लेकिन, यहाँ ख़ालिद तूर कश्मीर के बारे में अपनी राय स्पष्ट करना नहीं भूलते-

१९४७ में शुमाली इलाकों के अवाम की अक्सरियत कश्मीर के साथ रहना चाहती थी. अवाम में यह प्रोपगंडा किया गया कि जो बग़ावत हो रही है वह महाराजा के ख़िलाफ़ है. अगर अवाम तक ये सच्चाई पहुँच जाती कि महाराजा ख़तम हो चुका है  और कश्मीर अब हिन्दुस्तान का हिस्सा है तो सिपाही बग़ावत में हिस्सा लेते अवाम क्योंकि सब कश्मीर में ही रहना चाहते थे."
                                                                                                                                                                                                                         (पृष्ठ संख्या-५२, बालों का गुच्छा)

७५ वर्षीय एक पाकिस्तानी साहित्यकार खुलकर कश्मीर के बारे में एक वक्तव्य दे रहा है जो बहुत कुछ हिन्दुस्तान के पक्ष में जाता है. ये भी आज़ादी का संकेत है और कहना चाहिए कि पाकिस्तान को ये साहित्यिक आज़ादी अब जाकर मिली है लेकिन क्या हमारे यहाँ किसी उर्दू-हिंदी साहित्यकार ने कश्मीर पर खुलकर अपने वक्तव्य को स्पष्ट करना चाहा ? मेरा उत्तर है - नहीं. रिश्तों को सुन्दर बनाने के लिए कश्मीर जैसी समस्या का समाधान भी आवश्यक है. पाकिस्तानी लेखक भी स्वीकार करते हैं कि ये मामला इतना तूल नहीं है जितना तूलानी बना दिया गया है और इसके पीछे भी दोनों देशों की अपनी-अपनी राजनीति है. कुल मिलकर मदीहा के सन्दर्भ में देखते हुए स्थिति निराशाजनक ही नज़र आती है. अब ऐसे मुद्दों पर ख़ामोश रहने की ज़रुरत नहीं है, बल्कि साहित्यिक आन्दोलन को मज़बूत करने की ज़रुरत है जहाँ भ्रष्ट राजनीति के विरोध में संबंधों को मधुर बनाने के प्रयास किए जाएँ.रास्ता तभी निकलेगा


 मंजरी श्रीवास्तव

·        हिंदी कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर 
·         हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित,
·        एक लम्बी कविता "एक बार फिर नाचो इज़ाडोरा " पुस्तिका के रूप में प्रकाशित
·        साहित्य अकादेमी, अकादेमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एवं लिटरेचर, आकाशवाणी, दूरदर्शन तथा कई महत्वपूर्ण मंचों से कविता पाठ
·        मराठी एवं बांग्ला में ख़लील जिब्रान एवं अन्य कई कविताओं का अनुवाद.
·        पहला काव्य संग्रह- “पहली बारिश का मंज़रनामा शीघ्र प्रकाश्य 
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