Monday, January 14, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 2 (विमलेश त्रिपाठी )


विमलेश त्रिपाठी के पहले डायरी अंश में हम पढ़ चुके हैं कि जीवन की बेचैनी किस कदर उन्हें प्रभावित करती हैं, कैसे वो अपनी ज़िंदगी पाने के लिए कोई रास्ता तलाशना चाहते है और जब उसका कोई पहलू पकड़ में आता है तो कितना अनजाना, कितना अकेला कर देता है उन्हें, कबीर के जागने और रोने की तरह. इस अंश में वे उस पहलू से मुखा़तिब होते हैं. यह मुख़ातिब उन्हें और बेचैन करता है और उनकी इस छटपटहाट में खुद की छटपटाहट नहीं. मुक्तिबोध के शब्दों में " एक अकेला वक्ष मेरा / और पृथ्वीं की छटपटाहट. लेकिन विमलेश विनम्रता से, एक आग्रह के साथ इस छटपटाहट में अपने होने, पाने और खोने का मतलब तलाशते है. यह तलाश ही विमलेश के लिए अहम है और हम सब के लिए भी. प्रस्तुत है दूसरा अंश - 



  




एक
30 अगस्त, 2012

मित्र लोग कहते हैं कि मैं कवि हो गया हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि वे मुझे 'कवि' व्यंग्य में नहीं कहते। उनकी मंशा पर संदेह करने की कोई वजह नहीं है। लेकिन मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता है कि क्या सचमुच कुछ कविताएं लिखने से कोई कवि हो जाता है

मुझे लगता है कि एक पूरी उम्र बीत जाती है कविता लिखते-लिखते लेकिन फिर भी कुछ एक लोग होते हैं जो कवि बन पाते हैं। सिर्फ कविता लिखने से कोई कवि नहीं बनता। हो सकता है कि कुछ लोग दो चार कविताएं लिखकर और जोड-तोड़ कर के पुरस्कार वगैरह पा जाएं और अपनी प्रयोजित चर्चा करवा लें, लेकिन जो सही मायने में कवि होता है, वह समय की सीमा पार कर बार-बार उभर कर सामने आता है। इस समय चाहे वह किसी खोह में दबा हो, लेकिन समय आने पर वह और उसकी कविता लोगों के लिए ताकत बन कर  उभरेगी - उभरती है।

कवि  कौन है, इसके फैसले को इतिहास पर छोड़ देना चाहिए। इतिहास का हंटर सबसे मजबूत होता है, कुछ बातों को छोड़कर हमें इतिहास पर भरोसा करना चाहिए कि वह  न्याय करेगा। हां, यह जरूर याद रखना चाहिए कि इतिहास भी अंततः एक मनुष्य ही लिखता है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इतिहास की कुछ घटनाएं मनुष्य के कमजोर हाथ में नहीं समातीं, वह अपने तरीके से घटित होती हैं। और उनका अपना तानाशाही रवैया भी होता है।

इसलिए जब कभी मुझे कोई कवि कहता है तो मैं झेंप जाता हूं। सिर्फ यह कारण नहीं कि अबतक की मेरी लिखी हुई कविताएं मुझे उस तरह संतुष्ट नहीं करतीं, बल्कि इसके पीछे कई अन्य कारण भी काम करते हैं- कुछ कारणों के बारे में मुझे खुद भी कुछ पता नहीं।

जब-जब मुक्तिबोध और निराला सरीखे कवियों को सामने पाता हूं, मेरा अब तक का लिखा-पढ़ा नाखून के बराबर भी नहीं ठहरता। यह मेरी विनम्रता नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं, बल्कि यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे मुझे हर रोज लागातार लोहा लेना पड़ता है।

मैं उन लोगों को प्रणाम करता हूं जो मुझसे भी अधिक विपरीत परिस्थियों में लिख रहे हैं, जिन्हें कोई नहीं जानता। जिन्हें अपने को जनाने की भूख भी नहीं। मैं कल शायद कवि बन भी जाऊं लेकिन वे लोग जो बिना किसी स्वार्थ के कला के कर्म में लगे हुए हैं, उनके सामने यह यह माथ हमेशा नत रहेगा..।
दो

30 अगस्त, 2012, रात 12 बजे
और लोगों के जीवन पर कविता  का और कविता पर जीवन का प्रभाव कैसा पड़ता है, यह यहां कहना उद्देश्य नहीं है। लेकिन अपनी कहूं तो मेरे लिए कविता और जीवन दोनों साथ-साथ चलने वाले जरूरी उपादान हैं; कि जीवन पहले चलता है - कविता उसके पीछे लग जाती है। इसलिए मेरी कविताओं में हर रोज के दुख और खुशी का शामिल हो जाना मुझे कभी भी अस्वाभाविक नहीं लगता।

जैसे वह लड़का  जो मरे पास के चेयर पर बैठता है
, उसे आज पहली बार वेतन मिला है, वह  हाथ में रूपये लेकर ऐसे उत्साहित हो रहा है, जैसे एक बच्चे के हाथ में  कोई कीमती खिलौना होता है। मैं लाख चाहूं तब भी उस बच्चे हो गए लड़के की हरक्कतों को इग्नोर नहीं कर सकता। उसके सहारे मैं एक दूसरे समय में पहुंचता हूं जब पहली बार मेरे हाथ में  चार सौ रूपए का एक चेक आया था। उस समय मैं कोलकाता के जयपुरिया कॉलेज में अंशकालिक प्रवक्ता था। तब हमें महीने के चार सौ रूपए मिलते थे। बैंक में अकाऊंट नहीं था। मैं उस चेक को लेकर बार-बार देखता था और उसपर गोल-गोल अक्षरों में लिखे चार सौ रूपए। मैं चाहता था कि वे लिखे हुए चार सौ जादू से चार हरे-हरे नोटों में तब्दील हो जाएंगे। उस चेक को पैसे में बदलने के लिए पहली बार बैंक में खाता खुला था, और जिस दिन वह रूपए मेरे हात में आए उस दिन मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। वह अमीरी का अहसास मुझे किसी कविता से नहीं मिला, और दूसरे अहसास कविताओं को लेकर हैं, कहानियों को लेकर हैं लेकिन पहली कमाई के हाथ में आने का अहसास इतना अद्वितीय था कि उसकी तुलना और किसी अहसास से करना बेमानी है।

मेरे पास बैठने वाला लड़का अपने नोटों को स्कैन करता है
, उसे पेन ड्राइव में कॉपी करता है। वह उसे शायद जीवन भर रखना चाहता है अपने पास सम्हाल कर। मैं सोचता हूं कि उस समय मेरे पास स्कैनर होता तो शायद मैं भी ऐसा ही कुछ करता। लेकिन उन चार सौ रूपए के साथ मैं मनीषा जी से मिलने गया। हमने फूट-पाथ पर झाल मुढ़ी खाए, अंगूर खरीद कर खाया, और ढेर सारे मंसूबे बनाए। चार सौ रूपए कितने दिन तक रहते। खत्म भी हुए। लेकिन उनके होने का अहसास हमारे दिलों में हमेशा के लिए कही ठहर गया। आज इस लड़के को देखा तो एक कविता जैसा कुछ जिंदा हो गया।

कविता शब्द से नहीं बनती। जिन शब्दों को कविता में एक कवि लिखता है वे शब्द सबके पास होते हैं
, लेकिन कविता सिर्फ शब्द और भाषा नहीं होती। कविता  उस लड़के के चेहरे की हंसी होती है, जो पहले वेतन को हाथ में पाकर उभरती है, मां के माथे का सकून होती है जब वह अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरती है, लहलहाती फसल की एक किसान के चेहरे पर उभरी प्रतिबिंब होती है।

इसलिए मैं कहता हूं कि कविता को कभी भी शब्दों की मार्फत न तो समझा जा सकता है और ना ही लिखा जा सकता है। यही कारण है कि सही मायने में कविता लिखने वाले और समझने वाले संख्या में बहुत कम हैं।

समय जितना निर्मम और अत्याचारी होता जाएगा
, कविता लिखने और कविता समझने वालों की संख्या में कमी आती जाएगी। लेकिन कविता की जरूरत तब और अधिक होगी।

..क्योंकि हर समय में कविता लिखना या कविता पढ़ना मनुष्य होने की पहली शर्त है..

तीन

रविवार,  सितंबर, 2012

एक खाली और उदास दिन। कुछ-कुछ वैसा जैसा निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलता है। लगता है जैसे हम एक बहुत बड़े शून्य का हिस्सा हो गए हैं - बल्कि एक शून्य में बदल जाते हैं। सारी संवेदनाएं कहीं ठहर सी जाती हैं शायद दिमाग के किसी गुप्त गुफा में - शायद आराम करने के मूड में। आपको देखकर तब कोई भी किसी दूसरे ग्रह का जीव समझने की भूल कर सकता है।

कई बार सोचता हूं कि यह खालीपन यह उदासी कहां से आती है, जबकि दूर-दूर तक कोई तात्कालिक कारण नजर नहीं आता। पर यह उदासी आती है और टिक रहती है। अब वह कितने दिन रहेगी, यह उसकी मरजी के उपर है। आप चाहकर उसे हटा नहीं सकते - मन को निचोड़-समेट कर किसी दूसरी जगह नहीं ले जा सकते।

क्या सिर्फ ऐसा किसी रचनाकार के साथ ही होता है, किसी कलाकार के साथ - या हर कोई इस अनुभव से गुजरता है। मुझे याद आता है कि इस तरह का अंतराल-यह उदासी और खालीपन - पता नहीं किन समयों से मेरे पास आती रही है। तब रचना - कला और कई चीजों की मेरी समझ एकदम न के बराबर थी। कि नहीं ही थी। तब मैं जाकर किसी पेजड के नीचे बैठ जाता था और घंटो उसकी पत्तियां गिना करता था। बरसात का दिन हुआ तो पानी भरे गड़हे में ढेला फेंकना आम बात थी। खेत की कभी न खत्म होने वाली पगडंडियां थी जिनसे होते हुए मैं गांव के सिवान तक पहुंच जाता था। कभी-कभी मन करता कि वहां जाऊं जहां बादल जमीन को छू रहे होते हैं। जबकि और सारे बच्चे खेल रहे होते थे और मैं उदास भटकता रहता था गांव के बियाबानों में।

तब नहीं जानता था कि यह क्यों हो रहा है। जानता तो अब भी नहीं हूं। क्या पकृति हमें इस तरह उदास और अकेला कर के हमें निरंतर गढ़ती रहती है। जैसे कोई मूर्तिकार कोई मुर्ति गढ़ता है, या कुम्हार वर्तन गढ़ता है। 

सोच के असंख्य छोरों तक जाता है यह मन और खाली हाथ वापिस लौट आता है।जब हार-थक जाता है तो कोई एक शब्द उभरता है जेहन में उसका हाथ पकड़ कर हम एक छोटी या बहुत लंबी यात्रा करते हैं - कविता कुछ-कुछ ऐसे ही बनती है। क्या ऐसे ही जन्म लेती हैं कलाएं। 

हम अपनी पीड़ा में  एक यात्रा  पर निकल पड़ते हैं और हमारी यात्राओं के चिन्हों को कविता -कहानी और कला समझा जाता है...।


चार


सितंबर, 1, 2012, शनिवार

कविता में अनुभव और समृतियों का क्या महत्व है। क्या बिना अनुभव के कविता लिखी जा सकती है। उसी तरह बिना स्मृति के। मुझे बार-बार लगता है कि कविता शब्द या भाषा से नहीं लिखी जाती। अगर ऐसा होता तो दुनिया के सारे लोग जो बोलना और लिखना जानते हैं वे सब कवि होते। लेकिन ऐसा नहीं है तो इसका कारण यह है कि कविता भी अन्य कलाओं की तरह एक कला है और इस कला को अभ्यास कर के सीखना होता है। अभ्यास हमें सिर्फ शब्द और भाषा को बरतना सिखाती है। बाकी चीजें जिनमें अनुभव और समृति भी शामिल है, वह हर मनुष्य के लिए अलग होती हैं। सिर्फ समृति या सिर्फ अनुभव के दम पर बड़ी कविता या बड़ी कला का सृजन लगभग असंभव है।

कविता में एक व्यक्ति का अनुभव जब बहुतों का अनुभव बन जाता है, जब एक व्यक्ति की स्मृति बहुतों की समृति  पर पड़ी धूल-गर्द साफ कर देती है, तब सही मायने में वह अनुभव और वह स्मृति कविता या कला कही जाती है।
कविता एक तरह की फ्लैश है। जैसे कैमरे का फ्लैश होता है। हमारे देखते न देखते चमक कर गायब हो जाता है। कविता भी हमारे मन में एक फ्लैश की तरह उठती है, उस फ्लैश को पकड़ना होता है। कई बार बिना फ्लैश के भी कविता लिखी जाती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि धुंधली तस्वीर की तरह वह और धुंधली न हो जाए। कवि को कविता में उस फ्लैश को छुपाना होता है, वह छुपा हुआ फ्लैश जब पाठक के मन में कौंधता है तो कविता कम्युनिकेट होती है। मेरे हिसाब से कविता का संप्रेषित होना सही-सही उस कविता और लिखने वाले कवि की सफलता होती है..।

यह जरूरी नहीं कि लिखे हुए हर शब्द या वाक्य में कविता हो। कविता का वह फ्लैश पूरी कविता के बीच कहीं  छुपा होता है। कई बार वह अपने आप चमक जाता है, कई बार इसके लिए कोशिश करनी होती है।

कविता की कोई उम्र होती है क्या? जैसे हमारी आपकी होती है? कविता का घर कहां होता है? कविता रोती या हंसती भी है हमारी तरह ? उसे भी गुस्सा आता है? प्यार आता है, नफरत होती है????

क्या कविता सपने में कवि को या पाठक को परेशान कर सकती हैं

क्या कविता भी सांस लेती है, बिमार पड़ती है, और उसे भी दवाइयों की जरूरत होती है ?


पांच

बुधवार, 05.09.2012

कविता का लोक से क्या रिश्ता है। यह सवाल कई लोंगों ने कई तरह से उठाया है। लोक के पिछड़ेपन का सवाल भी कविता के साथ अक्सर उठाया जाता है और इस वजह से लोक संपृक्ति वाले कवियों को कमतर कर के आंकने की एक एक प्रवृति भी देखने में आती है। 

मुझे कई बार लोगों की यह सब बातें समझ में नहीं आतीं। इमानदारी से कहूं तो कई लोगों की कविताएं मेरे लिए पहेली या बुझौअल की तरह हैं। कहते हैं कि ऐसी कविताएं विश्व कविता की कोटि में आती हैं। मतलब आकाश के माथे पर खिजाब लगाने की चिंता ज्यादा प्रबल होती है ऐसे कवियों की कविताओं में। लोक का कविता से रिश्ता का मतलब मेरी समझ में यही आता है कि ऐसी कविताएं लोक की तरह ही सहज और संप्रषणीय होती हैं। लोक में एक तरह की धूसरता होती है, जिसका अपना सौन्दर्य होता है। एक और बात मेरी समझ में आती है कि लोक  संपृक्ति वाली कविताओं के पास अपनी एक समृद्ध जमीन होती है, एक लंबी साकारात्मक परंपरा और व्यवहार होता है जो मनुष्यता का एक सहज गुण है।  मैं जब भी कविता लिखने बैठता हूं मेरे गांव का सबसे गरीब आदमी याद आता है, जिसके उपवास चूल्हे को मैंने अपनी आंखों से देखा है। अपनी आजी की वो आंखें देखी हैं जो अपने परदेश चले गए बेटे के इंतजार में पसीजती रहती थीं। बाबा की आंख का वह धुंआ देखा है जब सूखे या बाढ़ के समय उभर आती थीं और महीनों टिकी रहती थी।


मेरे लिए लोक का मतलब वह गांव है जहां 65 साल की आजादी के बाद भी अबतक बिजली नहीं पहुंची है और जहां आज भी फगुआ गाया जाता है, सिनरैनी सजती है और चइता की तान उठती है खलिहानों से। और वह गांव सिर्फ मेरा गांव नहीं है हिन्दुस्तान का  एक गांव है जहां रहने वाले लोग इसी देश के वासी हैं, उसकी राजधानी भी दिल्ली ही है। 

मेरे लिए लोक का मतलब आगे बढ़कर यह देश भी है जिसमें सैकड़ों गांव हैं, एक शहर भी है जहां लोगों के मन में गांव की हवा हांफती है। यह वह लोक है जो अपनी जमीन पर खड़े होकर संसार की ओर मुंह उठाए देख रहा है, और  कहता है कि तुम्हें हमारी हालत के लिए शर्मिंदा होना चाहिए। वह लोक जमीन और आसमान के बीच खड़ा एक ऐसी जगह है जहां मनजत्व के पौधे अंकुरित होते हैं।

मेरे लिए कविता से लोक का रिश्ता कविता से मनुष्यता के रिश्ते की तरह है जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत  है। कविता ज्यों-ज्यों वैश्विक होती जाएगी, आदमी से उसका रिश्ता कम होता जाएगा। कविता का आदमी से संबंध क्या और क्यों है, यह बताने की जरूरत नहीं।  लोक संपृक्त कविता का अर्थ जमीन की कविता है जो आसमान को संबोधित है।

मेरी तो यही समझ है। बाकी समझदार लोगों की समझ से  कविता का कितना भला होगा, यह तो समझदार लोग ही जानें। अपन तो बस जो लिख रहे हैं, वह जाहिर है।  


मैंने सोचा एक दिन कि इस लड़की को टटोला जाय कि आखिर यह कुछ समझती भी है या यूं ही टपला मार रही है। मैंने पूछा कि मुक्तिबोध को कैसे समझती हो। उसका जावाब था कि मुक्तिबोध को समझने के लिए तुम्हारे अंदर आम आदमी के प्रति सच्ची सहनुभूति और कुछ करने की हिम्मत चाहिए। बेचारगी ओढ़े हुए और अपना काम निकालने की फिराक में रहने वाले लोगों को मुक्तिबोध कभी समझ में नहीं आएंगे। मुक्तिबोध को यह सोचकर पढ़ोगे कि वे तुम्हारे सिलेबस में हैं तो वे कभी समझ में नहीं आएंगे। तुम्हे मुक्तिबोध को पढ़ने के पहले उनको समझना होगा जिनके लिए वे लिख रहे थे, लिख ही नहीं रहे थे - अंदर तक बेचैन भी थे। फिर उसने कई कविताएं पढ़कर सुनाई और कहा कि इसमें क्या है जो तुम्हारी समझ में नहीं आता।


बाद में मैंने मुक्तिबोध को  उसी तरह पढ़ना शुरू किया और अब मुक्तिबोध उतने कठिन नहीं लगते।  मुक्तिबोध की ताकत उनकी कविताएं नहीं वह शक्शियत है, जो अपाद-मस्तक इमानदार थी और आम आदमी के लिए प्रतिबद्ध भी। एक मध्यवर्गीय आदमी कलाकार होकर, ट्रू कलाकार होकर जिन बिडंबनाओं से गुजरता  है, मुक्तिबोध भी उससे गुजर रहे थे। वे सिर्फ कविता नहीं लिख रहे थे कविता को जी भी रहे थे। यही कारण है कि मुक्तिबोध कभी-कभी बेतरह और शिद्दत से याद आते हैं - और हमारी लेखनी पर फिर-फिर सोचने के लिए मजबूर कर जाते हैं...।


छः

11 सितंबर, 2012, मंगलवार

आज  मुक्तिबोध की याद रह-रह आ रही है। दिन भर सोचता रहा कि ऐसा क्या खास है मुक्तिबोध में कि वे गाहे-बगाहे बेतरह याद आ जाते हैं। 

निश्चय ही निराला मेरे प्रिय कवि रहे हैं लेकिन निराला की याद उतनी नहीं आती, जितनी मुक्तिबोध की। निराला को  पहले जाना मैंने। मुक्तिबोध को बहुत बाद में। निराला की कुछ कविताएं स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। स्कूल के माट साहेब उनके बारे में कुछ दिलचस्प कहानियां बताते, तब वह बड़ी रूचिकर होतीं और लगता कि एक कवि ऐसा ही होता है, जैसे कि निराला थे। 

पहली बार कविता लिखने के बारे में सोचा तो सामने निराला ही चुनौती की तरह खड़े थे। तब कई उनकी बातें समझ के परे थीं। उनके मुकाबले दिनकर और गुप्त जी ज्यादा समझ में आते थे, लेकिन निराला का व्यक्तित्व अपनी ओर खींचता था, एक तरह का जादुई आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। तब सरोज समृति के कुछ अंश मैंने पढ़ डाले थे। मुक्तिबोध नाम का उपन्यास जरूर मैने पढ़ लिया था लेकिन मुक्तिबोध नाम का कोई कवि भी है, यह क्लास के हिंदी मास्टर साहब ने कभी नहीं बताया. 

माध्यमिक पास करने के बाद हम एच.एस में आये। उस समय कुछ और कवियों से परिचय हुआ जिनमें नागार्जुन का नाम याद है। मुक्तिबोध से जब परिचय हुआ तब मैं कॉलेज में नहीं गया था। मेरे अंदर आइएएस बनने का भूत सवार था, यह हमारे घर और रिश्तेदारों का असर था कि यह सबसे बड़ी नौकरी है और इसे पास करने के बाद सीधा कलेक्टर बना जा सकता है। जब सोच लिया कि सिविल की तैयारी करनी ही है तो सबसे पहले मैंने हिन्दी साहित्य का ही सिलेबस देखा। उसमें 'चांद का मुंह टेढ़ा है'  {सिर्फ अंधेरे में}-गजानन माधव मुक्तिबोध - लिखा हुआ मिला। 

और लेखक लगभग परिचित थे, सबको हमने पहले की कक्षाओं में पढ़ा था, लेकिन मुक्तिबोध का नाम नया और अटपटा सा लगा। तो एच.एस. में पढ़ते हुए मैंने जो तीन किताबें  खरीदीं उनमें 'शेखरः एक जीवनी' और 'कामयानी' के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है' भी शामिल था। पहली बार नाम और बीड़ी पीता हुआ पिचके गालों वाला एक कवि सामने आया। किताब के पन्ने उलटे तो कविताओं के लय और शब्दों ने आकर्षित किया लेकिन बातें बहुत कम समझ में आईं। 

चूंकि 'अंधेरे' में कविता सिलेबस में थी इसलिए सबसे पहले उसे ही पढ़ना शुरू किया। सांकल अंधेरा और पता नहीं कितने ही शब्द ऐसे आए जिनसे पहले का परिचय नहीं था। लेकिन मैंने उस कविता को बार-बार पढ़ा। बोर हो-हो कर भी उसे पढ़ा। कविता तो समझ में नहीं आई लेकिन यह कवि एक चुनौती की तरह मेरे सामने खड़ा हो गया। यह दुबला-पतला पिचके गालों वाला आदमी, क्या है इसके मन में - कविता कहां से आती है - इसके यहां। मैं पढ़ते हुए हर बार सोच में पड़ जाता।

उस समय कोलकाता में मेरे परिचय का कोई मित्र ऐसा नहीं था जिससे मैं अपनी परेशानी बताता, पिता जी के लिए कविता रामचरितमानस और रश्मिरथी से ज्यादा न थी। मां तो अछर चिन्हना भी भूल चुकी थी। मुझे लग रहा था कि हिन्दी में लिखी हुई कविता अगर मैं नहीं समझ पा रहा हूं तो और चीजें मेरी समझ में कैसे आएंगी, फिर तो सिविल गया काम से और जो सपने और आस मेरे घर वाले मुझसे लगाए बैठे हैं, उनका टूटना मेरे सामने प्रकट हो जाता और फिर से उस कविता को समझने का प्रयास शुरू कर देता था। लेकिन कविता तो समझ में नहीं आई कविता का एक अंश मुझे याद हो आया जो अपेछाकृत आसान था - अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। मैं यह सवाल अपने आप से पूछता कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया - इस मुरियल-से बीड़ी पीते हुए कवि की कविता तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रही है।

तो मुक्तिबोध की कविताएं मेरे सामने एक आतंक की तरह आईं और यह कवि अपने साधारण (?) व्यक्तित्व से डराता हुआ।  कॉलेज में गया। वहां  मुक्तिबोध बकायदा सिलेबस में शामिल थे। एक प्रोफेसर साहब का कहना था कि मुक्तिबोध को पढ़ाने के लिए लोग अपने सिनियर से उनकी कविताएं पढ़ कर जाते हैं। जैसे केशव को लोग कठिन काव्य का प्रेत कहते थे - कुछ-कुछ उसी तरह का इंप्रेशन मुक्तिबोध को लेकर हमारे अद्यापकों में था। मैं पहले से ही डरा हुआ था- कॉलेज और युनिवर्सिटि में लोगों ने और डराया। 

मैंने मान लिया कि यह कवि मेरे समझ के बाहर है। क्योंकि मुक्तिबोध को पढ़ाते हुए अद्यापकों के चेहरों पर भी एक अजीब तरह का तनाव मैं देखता और वे जल्दी-जल्दी अपनी बातें कहते हुए आगे बढ़ते - हमारे मन में सैकड़ों सवाल सुलगते रह जाते और पिरियड समाप्त हो जाती।

मेरी एक दोस्त थी सीमा। मुक्तिबोध उसके प्रिय कवि थे। वह ऐसा ही कहती। मैं संकोचवश नहीं कह पाता था कि वे मेरी समझ में नहीं आते क्योंकि मैं एक अच्छा विद्यार्थी समझा जाता था और आनर्स में मैंने यूनिवर्सिटी टॉप किया था। 



सात

24 सितंबर, 2012, सोमवार

कभी-कभी शून्य सा घिर आता है। सबके साथ रहते हुए भी आप किसी के साथ नहीं होते। मन किसी अथाह समय में जाकर ठहर जाता है। आप बोलते-चालते रहते हैं, हूं, हां करते रहते हैं। 
समाने वाला समझ भी नहीं पाता कि आप कहीं और हैं।

क्या हर लेखक को इस तरह की शून्यता से गुजरना होता है।  और जब जबरदस्ती वहां से कोई खींचकर लाता है तो आपके अंदर एक अजीब सी खीझ उभरती है। उस खीझ का रहस्य क्या आपके आस-पास के लोग कभी समझ पाएंगे। उन्हें लगता है कि आप किसी निश्चित बात या घटना के उपर खीझे हुए हैं, लेकिन दरअसल ऐसा होता नहीं। आपकी खीझ एक ऐसी अनजान चीज पर होती है, जिसका ठाक-ठीक आपको भी पता नहीं होता।

क्या ऐसे समय में एक लेखक को कहीं दूर एक ऐसी जगह पर नहीं चले जाना चाहिए जहां वह एकदम अकेले उस अथाह समय के साथ रह सके। यह रहना एक रचनाकार और कलाकार के लिए भी कितना जरूरी होता है, इस बात को कितने कम लोग समझ पाते हैं।

क्या कभी कोई ऐसा समय आएगा जब मैं अपने उस अथाह समय के साथ जितनी देर चाहूं रह सकूं। और लौटूं तो मेरे जेहन में शब्दों की एक भारी गठरी हो। वह गठरी जो अब धीरे-धीरे खाली हो रही है। 

उसे भरने का कोई और उपाय भी है क्या...?

समझ में नहीं आता......।
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विमलेश त्रिपाठी
·        बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में 7 अप्रैल 1979 को जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·        प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·        देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·        हम बचे रहेंगे कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से प्रकाशित।
·        कहानी संग्रह अधूरे अंत की शुरूआत पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार
·        सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
·         कविता के लिए सूत्र सम्मान, 2011
·        कविता कहानी का भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद।
·        कोलकाता में रहनवारी।
·        परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
·        संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·        ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·        Email: bimleshm2001@yahoo.com
·        Mobile: 09748800649


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