विमल का यह आलेख उन नए लेखकों के लिए जितना ज़रूरी है, उतना ही समकालीन हिंदी आलोचना के लिए भी, क्योंकि एक तरफ जहाँ नए लेखक मंच और मठ से आकर्षित होते हैं वहीं आलोचक असालतन मंचस्थ होने और मठाधीश बनने को लेकर व्याकुल. विमल ने इस आलेख में उन प्रवृतियों की ओर ध्यान दिलाया है जो न सिर्फ़ नई रचनात्मकता को प्रभावित करती हैं बल्कि कई बार तो उनकी दिशा ही बदल देती है जहाँ से वे अपना रास्ता पकड़ने के लिए आलोचकों से अनान्योश्र्य संबंध बनाना लेखन की स्वाभाविक यात्रा मान लेते हैं. यह आलेख हिंदी चेतना के नए अंक से लिया गया है.
हालांकि मैं भी युवा पीढ़ी का एक रचनाकार
हूं लेकिन आप इस बात को भूल कर भी इस लेख को पढ़ सकते हैं क्योंकि यह लेख एक ऐसे
पाठक का है जिसने अपने साथ की पीढ़ी की कहानियों को सूक्ष्मदर्शी लगाकर पढ़ा है गो
इस मामले में उसे व्यवस्थित तरीके से अपनी बात कहने का मौका इसलिये नहीं मिला
क्योंकि वह अपने साथ के अन्य कहानीकारों की तरह खुद की कहानियों से जूझ रहा था। वह
हिंदी के बजाय गणित का विद्यार्थी था और बड़े लेखकों से बात करने में उसे बहुत
घबराहट महसूस होती थी। उसने कहानियां लिखने से पहले नाम मात्र की कहानियां पढ़ी
थीं और जब वह पाता था कि उसके समकालीन फलां कहानीकार ने बहुत से विदेशी और देसी
लेखकों को पढ़ रखा है तो उसके आत्मविश्वास में कमी आ जाती थी। जो अपने समकालीनों
की अच्छी कहानियां पढ़ कर पहले तो खूब खुश हो जाया करता था फिर यह सोच कर उदास हो
जाता था कि वह शायद कभी इतनी मेच्योर और अच्छी कहानियां कभी नहीं लिख पायेगा।
मुझे इस लेख में समकालीन आलोचना पर अपनी
राय देने के लिये कहा गया है लेकिन मैं अचानक नज़र घुमाता हूं तो पाता हूं कि मेरी
पहली कहानी छपे इस जुलाई पूरे दस साल हो जाएंगे। मैं जानता हूं कि साहित्य के
लिहाज़ से यह निहायत छोटा सा कालखण्ड है लेकिन मेरे लिये यह सीखने की एक पाठशाला
जैसा रहा है जिसमें मैंने कहानियां कम जि़ंदगी ज़्यादा सीखी है। इस मौके पर मैंने
अपनी बात कहने को सोचा था और अब कह रहा हूं। मेरी बातें मुख्य मुद्दे से जुड़ी
रहें, इसकी पूरी कोशिश करूंगा।
तो मैं उस लड़के की बात कर रहा था जिसने
जि़ंदगी के एक अंधे कुंए से निकलने की कोशिशों में कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं।
उसे नहीं पता था कि यह दिल में चुभे हुये कांटे को कांटे से निकालने की कोशिश है
जो उसकी जि़ंदगी बदल देगा। वह तो लिख रहा था क्योंकि बेचैन था। मंच पर अभिनय करने
की उसकी कोशिश को निष्फल कर दिया गया था और कहा गया था कि पढ़ने लिखने वाले लड़कों
का यह काम नहीं है। उसने नागरी नाटक मण्डली का एक गुप ज्वाइन किया था जो छुड़वा
दिया गया। इसके बाद भले उसने कहानियां कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था, बनना उसे कुछ और था। जब
लगान देखकर सिनेमाहॉल से निकलते हुये उसने अपने दोस्तों से कहा था कि वह भी फिल्म
निर्देशक बनेगा तो उसकी उम्र सिर्फ़ 21 साल थी फिर भी उसके
दोस्तों ने उसकी बात को गंभीरता से लिया था। उसे नहीं पता था कि उसके आसपास मां
बाप परिवार और समाज के बनाये हुये जो खांचे हैं, उसे तोड़ने में उसकी ज़िन्दगी
के दसियों साल गर्क होने हैं। उसे कंप्यूटर सीखने के लिये दिल्ली भेजा गया तो उसने
चुपके से दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर में हिंदी पत्रकारिता का फॉर्म भर
दिया जहां खराब लिखित और खराब साक्षात्कार के बावजूद उसका एडमिशन हो गया। पत्रकार
बनने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी। उसने चुपचाप एफटीआईआई का फॉर्म डाला घर पर बिना
बताये क्योंकि पत्रकारिता की पढ़ाई में प्रवेश लेने पर घर वाले नाराज़ हो गये थे
और पैसे आने बंद हो गये थे। रहने खाने का जुगाड़ करने के लिये वह एचडीएफसी बैंक की
योजनाएं बता-बता कर संगम विहार और मदनपुर खादर के इलाकों में इंश्योरेंस कर रहा था
और खाता खुलवा रहा था। एफटीआईआई में उसका नहीं होना था नहीं हुआ, वह विश्व सिनेमा क्या
बताता जब हिंदी सिनेमा के नाम पर बचपन से उसने अमिताभ और धर्मेंद्र की फिल्में
देखी थीं। वह कुरोसावा फेलिनी और गोदार्द की फिल्मों के बारे में
कैसे बताता जब उस समय वह पालिका से पागलों की तरह लाकर मण्डी, आक्रोश और द्रोहकाल देख
रहा था। अब तक की जि़ंदगी टीवी पर दीवार, नास्तिक और हॉल में करण अर्जुन और दिल तो
पागल है देखते हुये गुज़री थी। पसंद में बदलाव आ रहा था, अब ज़िन्दगी में बदलाव
होना था।
पहली कहानी जब ‘साहित्य अमृत’ के जुलाई 2004 अंक में आयी तो वह साल
भर पहले दिल्ली पहुंचा था। पता चला कि बनारस के पते के कारण पत्रिका घर पहुंच गयी
है। वह दरियागंज गया और प्रभात प्रकाशन की दुकान से जाकर उसने यह पत्रिका खरीदी
जिसके संपादक विद्यानिवास मिश्र थे। फोटो पत्रिका वालों ने बाद में मांगा था और उसने
भेजा भी था लेकिन शायद डाक में या कहीं और देर होने के कारण फोटो नहीं छपी थी।
सिर्फ नाम था और उसमें से उसने पहले ही पाण्डेय हटा दिया था। दरियागंज से कनॉट
प्लेस पैदल जाने में उसने कहानी की सारी लाइनें कई कई बार पढ़ीं। उसे पछतावा हो
रहा था कि उसने फोटो जल्दी क्यों नहीं भेजा था। कहानी के साथ फोटो छपती तो कितना
मज़ा आता। उस दिन वह लेखक हो गया था। चार साल से लगातार लिखते-लिखते और हर पत्रिका
से लौटते-लौटते उसकी कहानियां थक गयी थीं लेकिन वह नहीं थका था। वापसी के लिफाफे
पिता देख लेते तो नाराज़ होते। उनका कहना था कि लेखक पैदा होते हैं, बनते नहीं। उन्हें शायद
बेटे के चेहरे पर अस्वीकृति का दुख सालता होगा। उन्होंने एक दिन बाकायदा उसे समझा
कर कहा कि बेटा चाहने भर से लेखक नहीं बना जा सकता। वह भी थक जाता, उसे लगता पिता हैं, दुनिया देखी है ठीक ही कह
रहे होंगे। मां अलबत्ता थोड़ी आशा भरने की कोशिश करती, उसमें भरोसा कम स्नेह
ज़्यादा होता। वह फिर से नयी कहानी उठाता और लिखना शुरू कर देता।
साहित्य अमृत में छपी कहानी पर कुछ
चिट्ठियां मिलीं जिनमें कहानी की तारीफ थी। वह बार-बार उन पोस्टकार्डों को पढ़ता, लिखने वालों के चेहरे
बनाता, उनसे बातें करता, उनका शुक्रिया अदा करता।
उनके जवाब लिखने में उसने बहुत मीठी भाषा का प्रयोग किया। साहित्य अमृत का अगला
अंक भी उसने खरीदा। उसमें पिछले अंक में छपी सामग्री के बारे में चिट्ठियां थीं, जहां जहां उसकी पहली
कहानी की तारीफ की गयी थी, उसने उन्हें काली कलम से अंडरलाइन किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता में एडमिशन के लिये लिखित निकालने के बाद
बताया गया कि अगर पहले कुछ छपा हो तो लेकर आया जाय। वह साहित्य अमृत का अंक लेकर
इंटरव्यू देने गया जहां उसका परिचय उन लोगों से हुआ जिनमें से कई उसके प्यारे दोस्त
बनने थे। बेदिका, विभव, सुंदर, शशि और आनंद के चेहरे और
वह दिन एकदम दिमाग में छपा हुआ सा है। उसने अपनी कहानी के एक बड़ी साहित्यिक
पत्रिका में छपने की बात कही और अचानक से आम से खास हो गया। वह कहानी तो इंटरव्यू
में खैर किसी ने नहीं देखी लेकिन उसका एडमिशन हो गया। वहां उसे हीरे जैसे दोस्त
मिले जिन्होंने उसे खूब प्यार दिया और एक कहानीकार होने के कारण उसका अपने अंदाज़
में ही सही, सम्मान भी किया।
पहली कहानी छपने के बाद वह और तेज़ गति से
लिखने लगा। खूब सारे प्लॉट दिमाग में नाचते रहते। कई कहानियां लिख कर यहां वहां
पत्रिकाओं में भेज दीं। इसी बीच उसने वागर्थ का एक अंक देखा जिसमें अगले किसी अंक
के नवलेखन विशेषांक होने की बात कहते हुये कहानियां मांगी गयी थीं। वह एक कहानी पर
काम कर रहा था जिसका नाम डर था। उसने कहानी पूरी कर अपने एक रूममेट को सुनायी जो
अक्सर उसके दबाव में आ जाया करता था और ना नुकुर करते हुये भी पूरी कहानी सुन ही
लेता था। सुनकर दोस्त ने एक राय दी कि सरपंच की बेटी और अजगर वाला प्रसंग हटा दिया
जाय। उसने नहीं माना और कहानी छपने को भेज दी। कहानी छपी और उसके पास चिट्ठियों और
फोनों का तांता लग गया। कहानीकारों की अचूक निशानदेही करने वाले विट और ह्यूमर के
वज़ीर उस पारखी संपादक ने उस अंक से कई नये कहानीकारों को खोज निकाला और अचानक ही
एक नयी पीढ़ी का शोर सा फिज़ा में गूंजने लगा। वागर्थ के अगले कई अंकों में जिन दो
चार कहानियों की तारीफ होती रही, उनमें से उसकी कहानी एक थी। वह दुगुने जोश
के साथ लिखने लगा। कई सारे आलोचक थे जो इस पीढ़ी के बारे में प्रचुरता से लिख रहे
थे। वह खूब सारी पत्रिकाएं खरीदता था और संघर्ष के दिनों में यह खर्चा उसे ख़ासा
महंगा पड़ रहा था।
लेकिन वह एक आश्चर्य देख रहा था। उसके
समकालीनों में से कुछ हिंदी साहित्य से प्रकारांतर से जुड़े थे तो कुछ
साहित्यकारों से। लगभग हर कोई ऐसा था जो किसी न किसी वरिष्ठ या अपने से थोड़े
पुराने कहानीकार कवि का दोस्त या परिचित था। वे आपस में मिलते और साहित्य की
दुनिया की बातें करते और बीच-बीच में उसे भी याद करते। कुछ समकालीनों से उसकी भी
दोस्ती हुयी जो बतौर कहानीकार ही नहीं बतौर दोस्त बहुत कमाल के इंसान थे। लेकिन वह
थोड़ा अंतर्मुखी टाइप का था और अपनी ओर से लोगों से मिलने की पहल करने में सकुचाता
था। इस बीच उसने एक आश्चर्य देखा कि उसके समकालीनों की कहानियों की चर्चा अन्य पत्र
पत्रिकाओं में तो होती थी लेकिन उसकी कहानियों की कोई बात नहीं होती थी। उसकी
कहानियां जिन भी पत्रिकाओं में छपती, अगले कई अंकों में उसकी पाठकों द्वारा
तारीफें होतीं लेकिन अन्य पत्रिकाओं में जहां वह नवागंतुकोचित उत्साह से अपने नाम
खोजता, वह नदारत रहता। उसके समकालीनों
की यहां वहां छपी पत्रिकाओं की तारीफें होतीं लेकिन उसका नाम कहीं नहीं होता। उसे
आश्चर्य हुआ। वह खुद क्रो साहित्य में बुरी तरह से आउटसाइडर महसूस करता। उसके कुछ
समकालीनों को भी इस बात पर आश्चर्य होता, बाद में कुछ ने कहा भी कि आप ज़रा फलां सर
से को फोन कर लीजियेगा, वह आपकी चिलां कहानी की
बहुत तारीफ कर रहे थे। उसे माजरा समझ में आने लगा, उसने घर लौटते हुये सोचा
कि क्या बात करेगा उस टिप्पणीकार से कि अगले अंक में वह उसकी कहानी पर भी बात करे।
रास्ते में वह सोचता कि पहले उनकी सेहत के बारे में पूछेगा, फिर उसे लगता कि उनके
पिछले लेख की तारीफ से बात करना ठीक होगा। घर पहुंचते पहुंचते यह निर्णय डगमगाने
लगता, लगता जैसे कहानी लिखने के
बाद किसी को फोन कर उससे कहना कितना गंदा साउंड करेगा कि सर मेरी कहानी पढि़ये और
इस पर अपनी बहुमूल्य राय दीजिये यानि पत्रिका में इसकी तारीफ कीजिये। वह नहीं करता
और यह धीरे-धीरे उसकी आदत बनता गया। दोस्त कई बार कहते कि तुम्हें थोड़ा मिलना
जुलना चाहिये लेकिन उसने सोच लिया था कि आसान रास्ता तो यही है कि जो आलोचक उसे
इसलिये इग्नोर कर रहे हैं कि वह मिलने जुलने में ख़ास विश्वास नहीं रखता, उनकी परवाह किये बिना
कहानियां ही ऐसी लिखने की कोशिश करे कि उन्हें इग्नोर करना मुश्किल हो। उसने अपनी
उर्जा उस ओर लगाने की कोशिश की। वह कहानियां लिखता रहा, उसके समकालीनों में से
कइयों ने एक से बढ़कर एक बेहतरीन और नैचुरल है कि काफी बदतरीन भी कहानियां लिखीं।
वह भी अच्छी बुरी कहानियां लिखता रहा, सीखता रहा और दस साल की यात्रा के बाद
उसने पाया कि शुरू में भले उसे असमंजस था, लेकिन उसका रास्ता सही था। अब वह दस साल
की यात्रा के बाद देख रहा है कि साहित्य की दुनिया और साहित्य के पुरोधाओं से दूर
रह कर कुछ बेहतरीन हस्तियों से करीब होने, उनका दोस्त होने का मौका खो तो ज़रूर दिया
लेकिन उस समय को उसने लिखने और मिटाने में लगाया, खूब लिखा और अच्छे बुरे
की परवाह किये बिना वह लिखने की कोशिश की जो उसे अच्छा लगा। दस साल में तीन कहानी
संग्रह, एक संस्मरण और एक उपन्यास
संख्या के हिसाब से अच्छा प्रयास है, गुणवत्ता के बारे में मतभेद हो सकता है।
आलोचकों की जि़म्मेदारी लेखक की
जि़म्मेदारी से कहीं से कम नहीं होती बल्कि कई बार ज़्यादा ही होती है। आलोचकों की
नज़र एक्सरे मशीन की नज़र होती है जो बाहर से स्वस्थ दिखते हिस्से की अंदरूनी
समस्या को सामने ले आती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिंदी साहित्य में आज 2014 में कुछ ही आलोचक हैं
जिनसे उम्मीद जागती है लेकिन यह कोई बुरी बात नहीं है। ऐसे आलोचक हमेशा से कम रहे
हैं और कम ही रहेंगे। हां यह ज़रूर कहा जा सकता है कि अगर किसी ने ठान लिया है कि
उसे लिखते हुये सीखना है और सीखते हुये लिखना है तो वह यह ज़रूर कर लेगा। इसमें
आलोचकों की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं होती अगर लिखने वाली की महत्वाकांक्षा सिर्फ़
अच्छा और ऐसा लिखना है जिससे उसे संतुष्टि मिले। कोई भी नया लेखक अगर लिखना शुरू
कर रहा है तो हो सकता है उसे उस स्वाद के बारे में पता न हो जो अच्छा लिखने पर
मिलता है, हो सकता है उसने नाम पाने
के लिये लिखना शुरू किया हो, हो सकता है उसने अपनी गर्लफ्रेण्ड अपने
दोस्तों पर धाक जमाने के लिये लिखना शुरू किया हो, हो सकता है उसने इसलिये
लिखना शुरू किया हो कि वह अपने मां बाप को बताना चाहता हो कि वह वैसा नहीं है जैसा
वे उसे समझते रहे हैं, उसने चाहे जिस भी वजह से
लिखना शुरू किया हो, वह उस स्वाद उस सुख तक
ज़रूर पहुंचेगा अगर उसे अपनी कहानियों से दो चीज़ें नहीं चाहिये। अपनी कहानियों से
अगर आपको हिंदी साहित्य का कोई पुरस्कार नहीं चाहिये और किसी कॉलेज में हिंदी
पढ़ाने की नौकरी नहीं चाहिये तो फिर आप देर-सबेर ज़रूर उस सुख तक ज़रूर पहुंचेंगे
जो रचने का सुख होता है। इन दोनों तत्वों को दूरगामी प्रभाव होते हैं। ज़्यादातर
पुरस्कारों के लिये हिंदी साहित्य में जो चलन है वह बतौर लेखक आपको कमज़ोर करता है, आपके आत्मसम्मान को कम
करता है जो बतौर लेखक आपके विकास के लिये बहुत ज़रूरी है। आप जिस दिन न किसी आलोचक
की परवाह करेंगे और न किसी ज्यूरी की तो आप अपने मन का लिखेंगे। वह अच्छा होगा या
बुरा होगा, इन सबसे ऊपर वह आपके
आज़ाद दिमाग से निकला होगा। किसी आलोचक के करीब आप रहें तो हो सकता है वह आपको
लिखने के बारे में कुछ अच्छी और काम की बातें बता दे लेकिन तय मानिये आपको लिखने
के बारे में जो जि़ंदगी बतायेगी वह दुनिया का कोई भी आलोचक नहीं बता सकता।
आलोचक दोस्तों जितने ज़रूरी होते हैं
लेकिन आज की तारीख में जिस तरह सच्चा और खरा-खरा बोलने वाले दोस्तों की जीवन में
कमी है, साहित्य में वैसे आलोचकों
की भी कमी है। समाज में ऐसे लोग, जीवन में ऐसे दोस्त और साहित्य में ऐसे
आलोचक कम होते जा रहे हैं, यह बाघों के कम होते जाने से कहीं अधिक
गंभीर विषय है। यह लेख भले ही पढ़ने पर ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ जैसा फील दे रहा हो, यह आत्ममुग्धता की परवाह
किये बिना सिर्फ़ इसीलिये लिखा जा सका है कि इससे किसी के नाराज़, आहत या खुश होने की परवाह
नहीं जुड़ी।
-विमल चन्द्र पाण्डेय