Tuesday, October 7, 2014

प्रेम गली अति सांकरी, कहानियों में तो और भी..

विमल का यह आलेख हिंदी चेतना के विशेषांक में प्रकाशित हुआ था. इस आलेख में विमल ने मंजुलिका पाण्डेय की कहानी " अति सूधो सनेह को..." के बहाने हिंदी के युवा कहानीकारों की प्रेम कहानियों को देखा हैं. जैसे विमल की कहानियों में एक खास किस्म की रोचकता हमें बाँधती है, कई चीजों के साथ इस आलेख में भी वो रोचकता है. 








(वर्ष २००० के बाद कुछ युवा कहानीकारों की प्रेम कहानियां)


(कृपया लेखक को लेखक-लेखिकाएं पढ़ें)

खालिस प्रेम कहानियों की उसी तरह कमी है जैसे जीवन में खालिस प्रेम की। प्रेम कहानियों के साथ अक्सर यह दिक्कत देखी गयी है कि वे प्रेम कहानियां होते हुये भी जीवन के किसी बड़े पक्ष को छूने की कोशिश करने लगती हैं. अच्छे लेखक इस बड़े पक्ष को साध लेते हैं और यह साधना कई बार ऐसा हो जाता है कि कहानी में पनप रहा एक मासूम सा खूबसूरत प्रेम छोटा पड़ जाता है और वह दूसरा पक्ष या दूसरा मुद्दा कहानी की मुख्य थीम बन जाता है। ऐसा होने के कई कारण होते हैं. जब लेखक इसे पूरी तरह जानते समझते कर रहा होता है तो वहां प्रेम एक टूल की तरह प्रयोग किया जाता है जहां जीवन से जुड़े किसी अन्य मुद्दे को उभारने और उसके महत्व को दिखाने के लिये इसका प्रयोग होता है। लेकिन कई बार लेखक को अपनी प्रेम कहानी पर विश्वास नहीं होता और वह इसके फलक को बड़ा बना देने की कोशिश करते हुये सायास इसमें कभी सांप्रदायिकता,जातिभेद, बेरोज़गारी या अपराध को लाता है या फिर किसी और समीचीन समस्या को इसमें पिरोने की कोशिश करता है। इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि ‘और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’ वाली बात भी तो आखि़रकार सच ही है, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि ‘और गमों’ की बात भी मुहब्बत से चोट खाने के बाद ही कही जा रही है, यह गीत में स्पष्ट नाराज़गी से साफ़ ज़ाहिर है जहाँ सामने वाला पहली सी मुहब्बत देने की मनःस्थिति से दूर आ चुका है.
कहानी लिखना कोई तकनीकी काम नहीं है कि इसमें निश्चित नियम या फिर तय फ़ॉर्मूले हों, कई बार कथाकार इस को बखूबी साध लेता है और कहानी शानदार हो जाती है लेकिन समस्या तब होती है और अक्सर होती है कि कहानीकार इसे साधने में असमर्थ हो जाता है। युवा कथाकार कुणाल सिंह की बहुचर्चित कहानी है ‘रोमियो जूलियेट और अंधेरा’ जिसमें असम में व्याप्त हिंसा का चित्रण है। अनुभा नाम की असमिया लड़की और मनोज नाम के हिंदीभाषी लड़के के बीच यह प्रेम कहानी सुन्दर ढंग से आगे बढ़ती है कि तभी एक लहर आती है और यह प्रेम हिंदीविरोधी उप्रदव की भेंट चढ़ जाता है। कुणाल ने इस कहानी की भूमिका लिखी है जिसमें स्पष्ट है कि इस कहानी को लिखने का उनका मुख्य मकसद असम की इस दुखद परिस्थिति का चित्रण करना ही है। कुणाल अपने मकसद में कामयाब हुये हैं और यह रचना एक खूबसूरत कहानी बन कर उभरी है। उन्होंने यहां प्रेम को पाठकों को जोड़ने और उन्हें संवेदित करने वाले एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया है जिसमें बाधा पड़ने पर पाठक असम की हिंसा को अधिक गहराई से देखने की कोशिश करता है। लेकिन यही क्षमतावान कथाकार जब ‘प्रेम कथा में मोजे़ की भूमिका का तुलनात्मक अध्ययन’ जैसी प्रेम कहानी लिखता है तो बुरी तरह मात खा जाता है क्योंकि वहां प्रेम के बरक्स कोई वैसी बड़ी समस्या नहीं है जिसे सामने खड़ा कर वह प्रेम की विडम्बना को दिखा सके। वह अपनी आर्थिक स्थिति को सामने लाकर मोजे़ के फटे होने की बात सामने रखता है जो इसके विद्रूप को दिखाने में नाकाम रहती है। लेखक को इस प्रेम कहानी पर विश्वास भी नहीं है, यह कहानी में दिये उद्धरणों और फुटनोटों से स्पष्ट भी हो जाता है।
खालिस प्रेम कहानियों के मामले में नयी पीढ़ी के ज़्यादातर कथाकार गरीब हैं क्योंकि हमारा समय इतना उपद्रवी हो चुका है, इतना विडम्बनात्मक हो चुका है कि प्रेम के रूप में भेस बदल कर कब क्या कहानी में घुस जाये, कहना मुश्किल है। मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘और हंसो लड़की’ का प्रेम संवेदित करता है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज का वही पुराना ढांचा उसे अपनी गिरफ्त में ले लेता है और इस प्रेम कहानी की असमय मौत हो जाती है। गांवों में ऐसी स्थितियां आज भी आम हैं और मनोज इसे दिखाने में कामयाब हुये हैं। चंदन पाण्डेय की कहानी ‘सुनो’ भी प्रेम की खूबसूरत गाथा कहती हुयी अपने बाद के हिस्से में पात्रों के साथ पाठकों को भी चौंकाती है। पत्नी को वेश्यावृत्ति में लिप्त बताये जाने का जो ट्विस्ट हैं उनके सामने कहानी का प्रेम छोटा होता दिखता है लेकिन पत्नी का इसके लिये मान जाता इसे एक बड़ी और बेहतरीन प्रेम कहानी का दर्ज़ा दिलाता है। राकेश मिश्र ने शुरुआत में कैम्पस और प्रेम की ही कहानियां लिखी हैं लेकिन उनकी कहानियों का प्रेम एकांगी है। वह शुरू में आकर्षित तो करता है लेकिन बाद में उन सभी का हश्र एक जैसा होता है। उनकी कहानियों का प्रेम चोट खाया हुआ प्रेम है और अपने समय को व्यंजित करता है। उनकी कहानियों का प्रेम बहुत रियलिस्टिक होने की वजह से याद रहता है मगर एक जैसा होने की वजह से देर तक उसका प्रभाव नहीं रहता। ए. असफल. ने ज़रूर कुछ अच्छी प्रेम कहानियां लिखी हैं लेकिन उनकी ‘पांच का सिक्का’ जैसी कहानियां स्मृति में अधिक बनी रहती हैं बनिस्पत उनकी प्रेम कहानियों के। पंकज सुबीर के कहानीकार की नज़र प्रेम के नंगे यथार्थ पर अधिक रहती है और वह अक्सर प्रेम के विद्रूप को सामने लाने में विश्वास करते हैं लेकिन ‘चौथामल मास्साब और पूस की रात’ में एक अल्पकालिक लेकिन निस्वार्थ प्रेम जुगनू की तरह टिमटिमाता हुआ दिखायी देता है। गौरव सोलंकी के पास ढेरों प्रेम कहानियां हैं और कई अच्छी भी। ‘पीले फूलों वाला सूरज’ या ‘रमेश पेण्टर और एक किलो प्यार’ ऐसी कहानियां हैं जिनपर लेखक को विश्वास है और वह किसी सामाजिक मुद्दे का मसाला डालने की ज़रूरत नहीं समझता।
प्रेम कहानी लिखना आत्मविश्वास का और खतरे उठाने का काम है। कोई भी लेखक बेरोज़गारी और अपराध पर कहानी अपेक्षाकृत अधिक आसानी से लिख सकता है क्योंकि इस माहौल में वह रह रहा है और इससे उसका रोज़ का लेना देना है.सांप्रदायिकता और जातिवाद भी ऐसे मुद्दे हैं जिनसे हम रोज़ दो चार होते हैं। प्रेम की सूरत एक तो देखने को मिलती नहीं और जो तस्वीरें मिलती हैं उनमें बहुत सी समस्याएं हैं, बहुत भटकाने और भ्रमित करने वाली चीज़ें हैं। किसी एक सामाजिक मुद्दे को उठा कर उस पर अख़बारी शोधों और कल्पनाओं की मदद से कहानी लिखना एक सहज प्रेम कहानी लिखने की तुलना में आसान है। ध्यान रहे कि मैं अच्छे और बुरे पर कोई फैसला नहीं दे रहा सिर्फ़ प्रक्रिया पर बात कर रहा हूं। कई नये लेखकों ने अपने कहानी लेखन की शुरुआत में ही सांप्रदायिकता जैसे नाजु़क मुद्दे पर कहानी लिखी है और उसे अच्छी तरह निभाया भी है। नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘परिंदे के इंतज़ार सा कुछ’ उनके पहले संग्रह में शामिल है और इसमें उन्होंने दोस्ती और प्रेम का प्रयोग सांप्रदायिकता के ज़हर के रंग और अधिक चटक दिखाने के लिये किया है। ज़ाहिर है उनकी कहानी में प्रेम है तो ज़रूर लेकिन उनका ध्यान धर्म के अश्लील प्रदर्शन को रेखांकित करने में थोड़ा अधिक है इसलिये कुछ दिल को छू लेने वाले प्रसंगों के बावजूद यह कहानी प्रेम के नाजुक पक्ष से न्याय नहीं कर पाती और एक फ़ॉर्मूले का शिकार नज़र आने लगती है।
प्रेम का उपयोग अपने पक्ष में करने और उसे ठगने के जितने तरीके जि़ंदगी में प्रचलित हैं उससे कहीं ज़्यादा कहानी में होते हैं। कहानी लिखने का सबसे आसान फ़ॉर्मूला हमेशा से यही है कि एक-एक नायक नायिका चुने जाएं जिनके बीच में वर्ग,नस्ल, आर्थिक या धार्मिक असमानताएं हों, पहले एकाध मासूम घटनाओं से उनके बीच प्यार पैदा किया जाये फिर थोड़ी देर बाद धार्मिक उन्माद, जातिगत भेदभाव या आर्थिक असमानता (या किसी अन्य कारण से भी) के कारण इस प्रेम की अकाल मौत कर दी जाय, ऐसी कहानियां पाठकों को अपील भी करती हैं और कहानीकार को जागरुक और समय के प्रति सजग कहानीकार की संज्ञा भी दिलवाती हैं। मगर मेरी नज़र में यह कहानीकार की एक कमी भी है कि वह अपने नायक नायिकाओं को ऐसी समस्याओं से लड़ते हुये दिखाता तो है मगर कभी उसके नायक नायिकाएं इससे जीत नहीं पाते। ठीक है, हो सकता है जीवन में ऐसा न होता हो लेकिन कहानी में भी वैसा न हो जो जीवन में नहीं होता तो फिर वह काहे की कहानी। मैं खुद बतौर कहानीकार इन समस्याओं से अब तक नहीं उबर पाया हूं और ज़रूर कहूंगा कि बहुत इच्छा होने के बावजूद ऐसी प्रेम कहानी अब तक नहीं लिख पाया हूं जिसमें सिर्फ़ प्रेम हो। हालांकि यह भी सच है कि जब आप प्रेम में होते हैं तो उस पर न तो कहानी लिख सकते हैं और न कविता. मैं जब प्रेम में था तो मेरे भीतर उतना आत्मविश्वास नहीं था लेकिन प्रेम ने ही मुझे यह आत्मविश्वास दिया है कि शायद मैं जल्दी ही कोई प्रेम कहानी लिख पांऊं जिसमें सिर्फ़ प्रेम हो।
प्रेम कहानियां लिखना जिसमें और कोई समस्या न हो,सिर्फ प्रेम से जुड़ी समस्या हो, काफी कठिन है। बिना किसी बाज़ारू फ़ॉर्मूले के प्रेम कहानी वही कथाकार लिख सकता है जिसे अपनी कहानी और उस कहानी में चल रहे प्रेम पर भरोसा हो। नीलाक्षी सिंह की बहुचर्चित कहानी ‘परिंदे....’ से बेहतर मगर कम चर्चित कहानी है ‘आदमी औरत और घर’ क्योंकि यह कहानी अधिक ईमानदार है। लेकिन हमारे समय की समस्या यही है कि कहानियां ज़्यादातर वे अधिक चर्चित होती हैं जो हमारी आंख में उंगली डालकर हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती हैं, सहज कहानियां कम। हमारा अभ्यास भी धीरे धीरे ऐसा हो गया है कि ऐसी कहानियां ही हमें देर तक याद रह जाती हैं जो अपनी बात थोड़ा लाउड होकर कहती हैं या फिर अपने शिल्प में कुछ खास होती हैं। सोनाली सिंह की कहानी ‘सात फेरे’ इस मामले में एक मानीखेज़ कहानी है जिसकी जितनी चर्चा होनी चाहिये थी, नहीं हुयी। इस कहानी में एक पत्नी को लगता है कि काफी देर से नहीं लौटा उसका पति शायद मर चुका है। कहानी इसके बाद है जब पत्नी खुद को इसके लिये तैयार करने लगती है और एहसास होता है कि इस तरह जि़ंदगी शायद कुछ ज़्यादा आसान होगी और वह अपने पति की मौत से उतनी दुखी नहीं है जितना खुद के आज़ाद होने से खुश है। आखिरकार देर रात गये उसका पति लौट आता है और वह उसे देख कर रोने लगती है। इसी रोने में सारी कहानी है लेकिन अगर लेखिका इस सहज और खूबसूरत कहानी को कुछ शैल्यिक प्रपंचों के सहारे आगे बढ़ातीं और चैंकाने के कुछ प्रयास करतीं तो शायद कहानी को अधिक चर्चा मिलती। इस लिहाज़ से कविता की कहानी ‘मेरी नाप के कपड़े’ भी ईमानदार और सहज कहानी है। किसी कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने के बावजूद मुझे लगता है कि कविता की अन्य कहानियां जो अपनी शैलीगत विशेषताओं या चुभते विषयों के लिये अधिक लोकप्रिय हैंके आगे इस कहानी की चर्चा कम हुयी है। वंदना राग की कहानी ‘शहादत और अतिक्रमण’ एक बेहतरीन प्रेम कहानी है, हालांकि स्त्री मुक्ति की आकांक्षा और आज़ादी की इच्छा कहानी में कई बार प्रेम पर हावी दिखते हैं लेकिन यह कहानी फिर भी सहज बनी रहती है क्योंकि आखिरकार ये सब प्रेम के ही बाइप्रोडक्ट हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘खरपतवार’में भी प्रेम का सहज और एक अलग रूप सामने आता है और वह याद रह जाती है। मनीषा कई बार ऐसे क्षेत्रों में भी सेंध लगाती हैं जहाँ का अनुभव उनका अपना नहीं बल्कि आयातित है लेकिन अक्सर इसे वह अपनी ईमानदारी की ताकत से संभाल ले जाती हैं.
प्रेम कहानियों को हमारे समय की फिल्मों ने बहुत प्रभावित किया है। ‘उसने कहा था’, ‘गुंडा’ और ‘पुरस्कार’ जैसी कहानियां बीते दिनों की बात हो गयी हैं तो इसमें एक बात यह भी है कि हमारी फिल्मों में प्रेम का स्वरूप बदल चुका है। यही बात पूरी तरह से समाज के बारे में नहीं कही जा सकती क्योंकि छोटे शहरों और गांवों में प्रेम का स्वरूप आज भी कमोबेश वैसा ही है। प्रेम करना आज भी सबसे बड़ा अपराध है और खाप जैसी कुप्रथाओं ने इसे और बड़ा अपराध बनाया है। ऐसे में कोई प्रेम कहानी सिर्फ़ अपने प्रेम की वजह से याद रह जाये तो यह उस कहानीकार की विशेषता कही जायेगी।
संवेद के जुलाई २०१० के अंक में छपी युवा लेखिका मंजुलिका पाण्डेय की कहानी ‘अति सूधो सनेह को....’ में एक ऐसा प्रेम है जो दिये की लौ सा कुछ देर टिमटिमाता है और फिर बुझ जाता है। लेकिन नहीं, यह बुझता नहीं है, हमारी अधिकतर उपमाएं ऐसे ही गलत साबित होती हैं क्योंकि जो बुझ गया वह प्रेम कहां था। कहानी शुरू ही इस सवाल से होती है कि क्या थे वे दोनों एक दूसरे के थे,  किस लोक से थे,  एक बावन बरस की प्रौढ़ स्त्री अपनी चौदह बरस की उम्र में जाती है और हम देखते हैं कि उसकी जि़ंदगी में एक समवय लड़का आता है। इस लड़के का आना उस समय में है जब अनारकली फिल्म रिलीज हो रही है जिसमें गीत है ‘ये ज़िंदगी उसी की है जो किसी का हो गया,प्यार ही में खो गया।‘ फिल्म का प्रयोग लेखिका ने बड़ी कुशलता से उस वक़्त को उकेरने के लिये किया है और इस गीत के साथ ही उस वक्त की अधिक फौलादी बेडि़यां भी साकार होने लगती हैं। चौदह साल की लड़की की मां उसके पिता से बात करते हुये कहती है कि इसकी दोनों बहनों का इसकी उम्र में गौना हो चुका था, पिता कहते हैं कि समय थोड़ा बदला है। चौदह साल की लड़की मनोरमा अपने ललटेन कक्का से दुनिया जहान की बातें करती है जो अचानक कुछ दिनों के लिये गायब हो जाते हैं। वह जब आते थे मनोरमा को मीठी गोलियां दिया करते थे। उनकी जगह एक लड़का लालटेन जलाने आता है जो मनोरमा को घमण्डी लगता है। मनोरमा उससे चिढ़ने लगती है। यह चिढ़ना ही अपनेपन की शुरुआत है। किसी पराये से कहां कोई चिढ़ता है,कोई शिकायत करता है। लालटेन कक्का बाद में उससे पूछते हैं कि क्या वह उनकी अनुपस्थिति में मनोरमा को मीठी गोलियां दे रहा था। मनोरमा इनकार करती है और उसे लगता है कि लड़का कितना बदमाश है कि उसे कक्का ने उसके लिये गोलियां दीं और उसने उसे नहीं दिया। उसकी आंखें मनोरमा को शंकर भगवान की आंखों जैसी लगती हैं। वह धीरे-धीरे मनोरमा के घर में दाखिल हो जाता है और चुपके से उसकी ज़िन्दगी में भी। वह किताबें पढ़ता है और किताबों के जरिये ही उससे संवाद करता है। वह धीरे-धीरे उसे पसंद करने लगती है। टू मिनट नूडल वाले ज़माने में प्रेम होने की यह गति थोड़ी धीमी लगती है लेकिन यही प्रेम की असली गति है, पहली नज़र वाले प्रेम के प्रति पूरा सम्मान रखते हुये भी यह कहना ज़रूरी है कि पहली नज़र के प्रेम की अवधारणा पूरी तरह सामंती अवधारणा है। लड़के का नाम उत्पल मनोरमा के पिता जी द्वारा ही रखा गया है जिसे वह उपला, गोबर समझती है। उत्पल उसके पुस्तकालय में आकर बैठता और किताबें पढ़ता है, किताबें ही दोनों के बीच आत्मीय संवाद का पहला माध्यम बनती हैं और लड़का किताब में एक दिन लिख कर चला जाता है कि आपके बाल बहुत खूबसूरत हैं। किशोर लड़की हवा में उड़ती है और जिस दिन वह पाती है कि लड़के ने एक किताब में उसका नाम बार-बार उकेर कर लिखा है,वह प्रेम के नशे को महसूस करती है। लड़की अपनी अम्मा से कहती है कि वह उसे उसके पूरे नाम मनोरमा से पुकारा करें, रमा नाम उसे बचकाना लगता है। प्यार की यह वही अवस्था है जिसमें दुनिया को ऐसा प्रेम बचकाना लगता है और प्रेमियों को पूरी दुनिया बचकानी लगती है।
लड़की की शादी तय हो जाती है और लड़का उसकी हथेली में मीठी गोलियां देते हुये कहता है, “मैं हमेशा तुम्हारा कर्ज़दार रहना चाहता था। पर उसके लिये अब इसकी ज़रूरत नहीं है,इसलिये लौटा रहा हूं।“
लड़की गोलियां गिनती है। उसे बीस गोलियां मिलती हैं। ललटेन कक्का उन्नीस दिनों तक लालटेन जलाने नहीं आये थे और बीसवीं गोली लड़के की ओर से उपहार है। यह मिठास प्रेम की मिठास है जो लड़के ने लड़की की हथेलियों में भरी है। उसकी गोलियां खत्म हो जाएंगी लेकिन यह मिठास उसकी पूरी जि़ंदगी में रहेगी। लड़का गोलियां देने के बाद उससे कहता है, “आप बहुत अच्छा गाती हैं, इसे बनाये रखियेगा।“
       देखा जाय तो कहानी में कहीं मुखर प्रेम नहीं है, दो किशोरों के प्रेम को समाज तो समाज, साहित्य ने भी थोड़ा कम ही भाव दिया है। लेकिन मुख्य बात है कि प्रेम के भाव का स्थायित्व जो पूरी जि़ंदगी साथ रहता है।
“आंखों की इस भाषा को, इस भाषा में लिखी कहानी को कौन पढ़ पाया। कोई भी तो नहीं।“
ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि यह कौन सा प्रेम है जिसके लिये लेखिका कभी गलदश्रु भावुकता वाले भाव में नहीं आती है जबकि दो किशोरों की इस प्रेम कहानी में इसकी गुंजाइश और संभावना बहुत थी। यह लेखिका का संतुलन है कि वह इस तत्व को कहानी में भलीभांति स्थापित करती है है कि प्रेम की ताकत यही है कि यह आपको आज़ाद करे। शादी के बाद मनोरमा बहुत खुश है, उसका पति जयेन्द्र भी बहुत खुश है। इस समय लेखिका ने कहीं किसी हूक के उठने का इशारा नहीं किया है। बेटी के जन्म पर वह बहुत खुश है मगर प्रेम उसकी जि़ंदगी में हवा की तरह उपस्थित है। पति के बहुत कहने पर भी वह अपने बाल छोटे नहीं करवाती और गाने का अभ्यास हमेशा करती रहती है। इन्हीं दो बातों में पूरी प्रेम कहानी समाहित है। उसकी बेटी कहती है, “मां! मैंने सिर्फ़ दो चीज़ों के लिये आपको कांशस देखा है। एक आपके बाल, दूसरा आपका संगीत अभ्यास।“लड़की ने अभी तक अपने प्रेम को अपने भीतर जीवित रखा है।
आज की वाचाल प्रेम कहानियों के बीच यह प्रेम कहानी इसलिये खास है क्योंकि कितनी भी आधुनिकता के बाद भी आज हमारे समाज का बड़ा हिस्सा प्रेम को लेकर तालिबानी मानसिकता से ग्रस्त है मगर हमारी प्रेम कहानियां इनके चित्रण में कमोबेश नाकाम रही हैं। हमारे पास जो प्रेम कहानियां हैं वह ज़्यादातर शहरों और महानगरों से हैं जिनमें प्रेम और देह के समीकरण एक दूसरे में गहरे तक समाए हुये हैं। यहां समस्याएं दूसरी हैं, प्रेम के रंग यहां भी है और बहुत सारे रंग हैं लेकिन दूसरी समस्याएं इतनी हावी हैं कि प्रेम ज़्यादा देर तक कायम नहीं रह पाता। छोटे कस्बों और गांवों में भी पहले से बहुत अधिक परिवर्तन आये हैं लेकिन वहां ये परिवर्तन भौतिक अधिक हैं, मानसिक रूप से आज़ादी के लक्षण अधिक दिखायी नहीं पड़े हैं। लेखिका ने जानबूझ कर कहानी में फ्लैश बैक का प्रयोग किया है और कहानी को छत्तीस साल पहले के माहौल में ले गयी हैं जिससे उस समय की बंदिशों के साये में इस प्रेम को देखा जा सके।
ऐसी कहानियों पर अक्सर अतिभावुकता के इल्ज़ाम लगते रहे हैं और लगाने वालों ने तो ‘उसने कहा था’ तक को कई बार ख़ारिज़ करने की कोशिश की है। उत्तर राजेन्द्र यादवीय कहानियों के दौर में, जहां प्रेम के नाम पर सिर्फ़ दैहिक आकर्षणों की गाथा और एक रात के स्टैण्ड हैं, यह कहानी अविश्वसनीय रूप से प्रेम के एक ऐसे अर्थ पर बात करती है जहां बिना रोये धोये, बिना देने पाने की चिंता किये और बिना किसी कमिटमेंट अपनी जि़ंदगी पूरे मन से जीनी है लेकिन अपने मन के किसी कोने में उस प्रेम को संजोते और बचाते हुये। प्रेम का इससे बेहतर और निस्वार्थ अर्थ नहीं हो सकता। कहानी की शुरुआत में ही इस संबंध के बारे में लेखिका कहती हैं, “ऐसे ही इस लोक में हुआ है जिसपर अपरिपक्व रूमानियत का इल्ज़ाम लगाकर, फ्रायडीय मनोविज्ञान के निशाने साधकर खूब हंसी तो उड़ायी जा सकती है लेकिन भीतर ही भीतर एक मिठास भरी टीस से भरने से नहीं बचा जा सकता। वे दोनों एक दूसरे के साथ न होकर भी साथ रहे,  हर समय और यह साथ होना इतना आत्मस्थ था कि उन्हें पता तक नहीं चल पाया। भरते रहे दोनों एक दूसरे को बिना जाने कि भर रहे हैं, कुछ दे रहे हैं, ऐसे जैसे यह देय नहीं प्राप्य हो।“
इस कहानी की सबसे खूबसूरत बात यह है कि नायिका अपने परिवार के साथ खुश है, अपने पति को प्रेम करती है,अपने जीवन से खुश नज़र आती है लेकिन वह जो प्रेम पा रही थी, अपने भीतर समा रही थी, वह किसी और के एहसास में लिपटा हुआ आता था। सुनने में रुमानियत भरी लगती है लेकिन यह बात कितनी सच्ची है जब हम सब अपने भीतर झांकते हैं और पाते हैं कि मन के किसी कोने में हमने बरसों से किसी का दिया कुछ छिपा कर रखा हुआ है। हम अपनी जि़ंदगियों को जी रहे हैं, पूरी ताकत से लड़ रहे हैं अपनी परेशानियों से लेकिन अक्सर जो कुछ अच्छा है, उसका स्रोत हमारे जीवन से दूर जा चुका हैदूर जाने वाले स्रोत को अपने भीतर जि़ंदा रखना ही तो प्रेम है।
लालटेन जलाने वाली परंपरा हमारे लिये एलियन की तरह है जिसे पढ़कर याद आता है कि कितनी ही ऐसी परंपराएं समय की भेंट चढ़ गयी हैं जिनमें सामूहिकता का भाव था जो पूरे गांव को, पूरे समुदाय को एक परिवार की तरह एक सूत्र में बांधता था। मनोरमा का उत्पल के लिये खाना बनाना सीखना, खाने में कम मिर्च डालने की बात सोचना, उसकी लाल आंखें देखकर सोचना कि कहीं उसे बुखार तो नहीं हो गया, ये सब उस प्रेम की बातें हैं जो पढ़ने सुनने में पुरानी लगे लेकिन कस्बों और गांवों में जिनका रूप ठीक उसी तरह बरकरार है जिस तरह यह कहानी हमें बताती है। मनोरमा अपनी बेटी के होने पर उसका नाम मनोत्पला रखती है, उसकी पति कहता है कि एक विदुषी महिला ऐसा ही नाम रख सकती थी। यह एक ऐसी गीली मिठास वाला प्रेम है जिसकी मिठास जीवन भर महसूस होती है। प्रेम के बहुत से रूप निश्चित रूप से होते होंगे लेकिन यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें प्रेम सबसे सहज और आत्मीय रूप से आता है। आता है और छा जाता है, हमें डुबो लेता है, भिगो देता है और हमसे कहता है - मैं क्या जानूं क्या जादू है, इन दो मतवारे नैनों में।

-विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट नं. 130-131
मिसिरपुरा, लहरतारा
वाराणसी-221002 (उ.प्र.)
फोन- 9820813904

1 comment:

  1. बढ़िया लेख...मुझे फिर से प्रेम कहानियाँ पढ़ने को प्रेरित करता..
    सुनीता सनाढ्य पाण्डेय

    ReplyDelete