रीना पारीक नवभारत टाइम्स मुंबई में कार्यरत हैं. लंबे अरसे तक साहित्य से गहरा जुड़ाव रखने के बाद अब उन्होंने इसे रचना शुरू किया हैं. हम जनराह के माध्यम से हिंदी साहित्य में उनका स्वागत करते हैं और उनकी कविताओं पर खुद कुछ कहने के वजाय पाठकों के लिए स्पेस छोड़ते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएँ -
रोमांस
रोमांस को हम कहीं पीछे छोड़ आये हैं
अब बचा है तो बस, रिश्ता।
एक मशीनी युग में जी रहे है हम
जहां मेरे सिंदूर का रंग हरा हो गया है
तुम्हारी फाइलों के रंग की तरह
कांच की इमारतों में मोबाइल गेम के किरदार की
तरह दिखते हो तुम
इन शीशों के आर-पार मेरी साँसों की आवाज़ नहीं
पहुँच सकती
मेरी चूड़ियों, पायल और झुमकों
की अठखेलियों को तुम्हारे कम्प्यूटर के की-बोर्ड की आवाज़ निगल जाती है
रोमांस तो अब यश राज की फिल्मों में भी नहीं
रहा…
जिन्हें देखकर सीखा था हमने अपने इश्क की दुनिया को रंगना
अब गिटार बजाती हुई मीरा बहुत रूखी और बनावटी
लगती है
उसी मुस्कराहट की तरह, जो मुझे खुश
करने के लिए अपने होटों पर चिपका लेते हो तुम कभी कभी
तुम्हारे हमारे बीच का रोमांस तो हथेली से रेत की तरह फिसल रहा है
चाहकर भी न तुम पकड़ पाते हो न मैं
ज़रूरत बन गए है हम एक दूसरे की
उससे भी अधिक आदत
जो अवचेतन में भी बनी रहती है
वरना सीख तो हम आज भी नहीं पाए हैं रिश्ते निभाना
कभी कभी सोचती हूँ-
एक कविता हो सकती थी ज़िंदगी,
एक सपना भी
जो नींद में इस कृत्रिम दुनिया से अलग होने पर महसूस होता है
मगर नींद के टूटते ही यथार्थ के धरातल पर
ऐसा बाज़ार बन जाती है
कि जहां न सपनों का मूल्य है न कविता का
गरीब
तुम्हे शर्म आती है
मैले कुचेले चिथड़ों में लिपटे
कचरे के ढेर से अपनी ज़िन्दगी चुनते बच्चों पर
तुम्हे शर्म आती है
सड़क पर आधी साड़ी में लिपटी
अपने अधपसली बच्चे को दूध पिलाती माँ पर
तुम्हे शर्म आती है
तुम्हारे फेके गए रोटी के टुकड़े से
अपनी साँस जोड़ते बुढ्ढों पर
कभी सोचा है गरीबी क्या है?
गरीब तो तुम हो
जो अपने शीशमहल की छत से झुग्गियों को देखकर
मुंह फेर लेते हो
गरीब तो तुम हो
जो सिग्नल पर खड़े भिखारी पर नाक -मुंह सिकोड़
अपनी गाड़ी आगे बढ़ा देते हो
गरीब ही नहीं बेशर्म भी हो तुम!
क्योंकि गरीब होकर भी गरीबी पर शर्म करते हो.
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रीना पारीक से यहाँ
संपर्क किया जा सकता हैं - reenapareek15@gmail.com https://www.facebook.com/reena.pareek.7
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