अनघ शर्मा ने होटल मैनेजमेंट में मास्टर किया है. गाजियाबाद में रहते है और असिस्टेंट प्रोफेसर है. अपनी अभिव्यक्ति के लिए इनको नज़्में भाती है. इनकी नज़्मों में हमारे समय का मोह-विछोह है जिसे बयाँ करने के लिए वे जितने इतिहास में जाते है उतने ही मुहावरे तलाशते है. इनके लिए भाव सबसे ज्यादा जरूरी है और भाव के साथ साझेदारी करने में भाषा इनकी हम साया खुद ब खुद हो जाती है. इनकी नज्में चुभते सवालों के साथ पनाह लेती है और संवेदना की प्रवाह में बहती है. प्रस्तुत है इनकी तेरह नज़्में. अनघ से 08447159927 संपर्क किया जा सकता है.
ताजमहल
कहने भर को तो नाम शाहजहाँ का था
असल मेँ वो काशाना तो किसी संगतराश का था
वो जिसकी मीनारोँ पर उसकी उंगलियोँ के लम्स थे
वो जिसकी गुम्बदोँ पर जमी गर्द उसकी साँसोँ से उड़ी थी
वो जिसके चबूतरोँ ने उसके पसीने से ग़ुस्ल किया था
वो जिसे कहीँ समन की घनी छाँव नहीँ मिली थी
वो जिसकी शामेँ साल-हा-साल वहीँ ढ़लीँ थीँ
वो जिसकी उँगलियोँ मेँ गुल-ए-संग तराशने मेँ काँटे चुभे थे
वो जिसकी मेहनत के नक़्श पत्थरोँ पर खुदे थे
वो बता रही थी जिसकी हर डूबती नफ़स
कि बादशाह ने चाहा मिले उसे उम्र भर का कफ़स
कि वहाँ जहाँ इक परीजमाल शहजादी ख़ामोशी की कब्र मेँ सो रही थी
सुना है वहीँ कहीँ क़ायनात उसकी कटी उँगलियोँ पर चुपचाप रो रही थी.
मैं तो जुगनू हूँ
मैं तो जुगनू हूँ घड़ी भर चमकूँगा फिर बुझ जाऊँगा
तुम तो खुर्शीद हो नकाबों में ख़ुद को छुपाओगे कब तक
तुम तो खुर्शीद हो नकाबों में ख़ुद को छुपाओगे कब तक
चमन है ये खिंज़ाअफज़ाई पुराना दस्तूर है इसका
तुम इस गुलाब को ज़र्द होने से बचाओगे कब तक
तुम इस गुलाब को ज़र्द होने से बचाओगे कब तक
जिधर देखिये यहाँ रंज-ओ -मुसीबत है उस ओर
तुम मीर-ओ -ग़ालिब के दीवान से ख़ुद को बहलाओगे कब तक
तुम मीर-ओ -ग़ालिब के दीवान से ख़ुद को बहलाओगे कब तक
वो तो ख़ुदापरस्त है अंधेरों में भी सब को पहचान लेता है
तुम उजालों में उससे खुद को छुपओगे कब तक
तुम उजालों में उससे खुद को छुपओगे कब तक
ज़रा-ज़रा सी बात पर उसकी आँख भर आती है
तुम नाराज़गी में उससे नज़र मिलाओगे कब तक
तुम नाराज़गी में उससे नज़र मिलाओगे कब तक
उठाये ले जाते हो मुझे दर-ए-तन्हाई से
देखना हमपे अगला ज़माना यहाँ बड़ा सर्द गुज़रेगा
देखना हमपे अगला ज़माना यहाँ बड़ा सर्द गुज़रेगा
किसी के पाँव का एक भी निशाँ नहीँ यहाँ
देखना कोई आबला पा इसी शहर से लिये दर्द गुज़रेगा
देखना कोई आबला पा इसी शहर से लिये दर्द गुज़रेगा
खिज़ाँ के तौर-तरीके कभी बदलते नहीँ
देखना इस बार भी हवा के साथ बड़ा गर्द गुज़रेगा
देखना इस बार भी हवा के साथ बड़ा गर्द गुज़रेगा
सजाये रह जाओगे तुम इधर महफ़िल-ए-अंजुम
देखना उधर नज्मे-साक़िब आसमाँ से बड़ा फ़र्द गुज़रेगा
देखना उधर नज्मे-साक़िब आसमाँ से बड़ा फ़र्द गुज़रेगा
पानी की आक़बत ठहरने मेँ नहीँ है
जो दरिया मिजाज़ है तो रवानी बनाये रख
दौर कैसा भी हो वक़्त भुला देता है यहाँ
जो याद मेँ रहना है तो कोई कहानी बनाये रख
जो याद मेँ रहना है तो कोई कहानी बनाये रख
ज़ईफ़ पत्तोँ को शाख़ेँ खुद जुदा कर देती हैँ
जो कुर्ब चाहे तो जवानी बनाये रख
जो कुर्ब चाहे तो जवानी बनाये रख
मील का पत्थर राहरौ को मंज़िल पे ले जाता है
जो सबाब चाहे तो राहपैमा के लिये कोई निशानी बनाये रख
जो सबाब चाहे तो राहपैमा के लिये कोई निशानी बनाये रख
मामला ये है कि ख़ुदा से ताज़ा-ताज़ा बँटवारा हुआ है मेरा...
ख़ुल्द से निकल आया हूँ मैँ और यह तय किया है उसने
कि.......
कहकशाँ सब उसकी
अश्कबार मिज़गाँ मेरी
आसमाँ तमाम उसके
ज़मीनेँ कुछ मेरी...
ज़मीनोँ पै भी ये शर्त
कि....
दश्त सब उसके
सहरा तमाम मेरे
वादियाँ सब उसकी
कोहसार मेरे
दरिया सब उसके
साहिल मेरे
सीपियाँ-ओ-मोती उसके
ख़ाली समंदर मेरा
सनम सब उसके
बस बुतख़ाना मेरा...
ये ख़ाकानवीस बड़ा चालाक निकला...
इस दिल की नगरी मेँ हमने कैसे-कैसे काशाने बनाये
कुछ वक़्त की गर्द मेँ डूबे,कुछ तोड़े ख़ुद और बहाने बनाये
आसमाँ तो तमाम है उड़ने के वास्ते खुला हुआ
वापसी को फिर भी हमने दरख़्तोँ पै आशियाने बनाये
वापसी को फिर भी हमने दरख़्तोँ पै आशियाने बनाये
हाल-ए-अहबाब यूँ निभाया समंदर से हमने
तूफ़ानोँ मेँ भी साहिल पै घरोँदे बनाये
तूफ़ानोँ मेँ भी साहिल पै घरोँदे बनाये
सब रौशनी ले गया अपने साथ अमीर-ए-कारवाँ
हमने उजाले मेँ सितारोँ के अपने रास्ते बनाये
ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख...
ऐ बशर....
अपने होठोँ पे इक दुआ रख
तन्हाई मेँ इक हमनवा रख
दर्दमंदोँ से रिफ़ाकत का रवा रख
गुलोँ सी महके जो ऐसी हवा रख
क्यूँकि.....
टिक के कुछ कभी रहता नहीँ....
न छत...
न बाम...
न दर...
न दीवार...
न रिश्ता...
न रिफ़ाकत...
न राब्ता...
वक़्त के चनाब मेँ सब रवाँ दवाँ
और...
ऐसे मौसम मेँ सर झुका सके सामने जिसके
पास अपने वो ख़ुदा रख
ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख....
वक़्त
वक़्त
ये अज़ल से पलों में बँटा, घड़ियों में तकसीम
हर तरफ़, हर ओर, हर सूँ तन्हा ही है
जबकि इसके हाथों में कितनी नन्ही नन्ही हथेलियाँ हैं
इनमें से कुछ में तकदीरें हैं, कुछ में शमशीरें हैं, कुछ में फसलें हैं
इसकी तंग गिरफ़्त में कितनी आँखें पलकें बंद किये पड़ी हैं
जिनमें से कुछ में आबज़ू-ए-गिर्या है, कुछ में ख़्वाब हैं, कुछ में उजाले हैं
कितने लब काँपते रहते हैं इसकी गिरफ़्त में
इन होठों पर सदा भी है, नग्मा भी है, फुगाँ भी है
वक़्त
कितने ही सूरज, कितने ही चाँद निगल चुका है
चमकता है फिर भी शमओं की लौ में, जुगनूओं की रौ में
इसका एक एक लम्हा नदी की रवानी सा
बहता हुआ गुजर जाता है
ये मुसलसल घूमता वक़्त
मंजिलों पर आ कर भी तन्हा रह जाता है
गूँजता रहता है ख़लाओं में खामोशियों सा
नज़दीक ही रहता है जागी हुई बेहोशियों सा
वक़्त
कि ये कल भी तन्हा था, कल भी तन्हा ही रहेगा
ये अज़ल से पलों में बँटा, घड़ियों में तकसीम
हर तरफ़, हर ओर, हर सूँ तन्हा ही है
जबकि इसके हाथों में कितनी नन्ही नन्ही हथेलियाँ हैं
इनमें से कुछ में तकदीरें हैं, कुछ में शमशीरें हैं, कुछ में फसलें हैं
इसकी तंग गिरफ़्त में कितनी आँखें पलकें बंद किये पड़ी हैं
जिनमें से कुछ में आबज़ू-ए-गिर्या है, कुछ में ख़्वाब हैं, कुछ में उजाले हैं
कितने लब काँपते रहते हैं इसकी गिरफ़्त में
इन होठों पर सदा भी है, नग्मा भी है, फुगाँ भी है
वक़्त
कितने ही सूरज, कितने ही चाँद निगल चुका है
चमकता है फिर भी शमओं की लौ में, जुगनूओं की रौ में
इसका एक एक लम्हा नदी की रवानी सा
बहता हुआ गुजर जाता है
ये मुसलसल घूमता वक़्त
मंजिलों पर आ कर भी तन्हा रह जाता है
गूँजता रहता है ख़लाओं में खामोशियों सा
नज़दीक ही रहता है जागी हुई बेहोशियों सा
वक़्त
कि ये कल भी तन्हा था, कल भी तन्हा ही रहेगा
ठुकरा दिया जब दरख़्तोँ ने उसको
उसने इस तरह मेरी गवाही दी
अपने उसूलोँ से जैसे कोई बेवफ़ाई की
अपने उसूलोँ से जैसे कोई बेवफ़ाई की
ठुकरा दिया जब दरख़्तोँ ने उसको
गुलोँ ने परिँदे की दिल से हौसला अफ़ज़ाई की
गुलोँ ने परिँदे की दिल से हौसला अफ़ज़ाई की
वो सादा दिल सह सका न जब ज़माने की हिकारत
ऊब कर फिर उसने कूचा-कूचा अपनी रुसवाई की
ऊब कर फिर उसने कूचा-कूचा अपनी रुसवाई की
ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
जबकि अब भी वो खुदा सा है
जबकि अब भी वो खुदा सा है
सुनते है उनकी बातों में कोई असर नहीं
अब भी जिनका हर लफ्ज़ दुआ सा है
देखिये ले जाएँ अबके बदगुमानियां कहाँ
इस राह पर हर सिम्त धुँआ सा है
इस राह पर हर सिम्त धुँआ सा है
आलम-ए- शौक, तमन्ना और नर्गिस के फूल
यकीं मनो उनका घर अब भी आग्रा सा है
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
कि इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे
कि इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे
बर्ग-ए- आवारा सा सफ़र न वापस लाया तुम्हें
कि अब तो इन लचकती शाख़ों से जलन होती है मुझे
कि अब तो इन लचकती शाख़ों से जलन होती है मुझे
दम घुटता है, मुश्किल है साँस लेना अब
कि इन महकती फ़िज़ाओं से घुटन होती है मुझे
कि इन महकती फ़िज़ाओं से घुटन होती है मुझे
इन झीलों, सहराओं, औ शादाब बागीचों में भी कुछ नहीं
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे
वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा
वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा इस फ़रारी में मेरा सर धुनता है
करेगा इक रोज़ ये चाँद भी ख़ुदकुशी जो आज आसमाँ पर बैठ कर ख्वाब बुनता है
सब निगल जायेगा साहिलों से अबके कोई इस समन्दर का शोर सुनता है
समझता हूँ सिर्फ उसे मैं, कि ग़म या कि वो ख़ुदा
जो गली के मोड़ पर बैठा फ़कीर गुनता है
जो गली के मोड़ पर बैठा फ़कीर गुनता है
दिल तो नाशाद ओ तन्हा ही रहा उसका
दिल तो नाशाद ओ तन्हा ही रहा उसका
के जो घूमता रहा चमन मेँ बन के बागबाँ
के जो घूमता रहा चमन मेँ बन के बागबाँ
लबे साहिल ड़ूब गयीँ कुछ किश्तियाँ
के दस्तबस्ता माँझी खोल ही न पाये बादबाँ
के दस्तबस्ता माँझी खोल ही न पाये बादबाँ
हवा अपनी रवानी मेँ उड़ा ले गयी एक ज़माना
आखिरी हर्फ़ लिखा था रेत पे उसे भी ले चला ये आबे रवाँ
आखिरी हर्फ़ लिखा था रेत पे उसे भी ले चला ये आबे रवाँ
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