Friday, November 16, 2012

विमल चंद्र पाण्डेय का उपन्यास : आठवीं किश्त




(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है सातवीं  किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)





14.

रिंकू ने एक कहानी लिखी थी जिसमें एक बहुत ज़िम्मेदार लड़का था जो अपने से अधिक उम्र की एक लड़की से प्रेम करने लगता है। लड़की बहुत भोली होती है और उसे पता नहीं होता कि उसका प्रेमी दूसरे धर्म का है। लड़का बहुत चिंतित होता है कि अपने प्रेम को कैसे प्राप्त करे और इस कोशिश में वह लड़की को अपने धर्म की अच्छी बातें बहाने से बताने लगता है ताकि लड़की उसके धर्म को पसंद करने लगे और उसका राज़ खुलने पर उससे नफ़रत न करे। आखिरकार लड़का अंत में लड़की को अपने दूसरे धर्म का होने का राज़ बताता है तो लड़की कहती है कि वह किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करती और पूरी तरह नास्तिक है। दोनों का सुखद मिलन होता है। रिंकू न चाहते हुये भी लिखने के बाद यह कहानी पारस को दिखाने ले गया। पारस उसे दुनिया संसार की बातें राज़ की तरह बताता था और वह अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े रहस्य की तरह सुनता था। पारस के ज्ञान देने की आदत को वह पूरा सम्मान देता था और जिन तथ्यों और बातों से पहले से परिचित रहता था, उन्हें भी सिर हिला-हिला कर सुनता था। मगर उसे लगने लगा था कि यह किसी काम का नहीं है क्योंकि पारस एक बार भी नाज़ुक मौक़ों पर उसका पक्ष नहीं लेता।
´´ये कहानी पूरी तरह ग़लत है।´´ पारस ने सिर्फ़ सरसरी नज़र से पढ़ कर कहानी अपने पलंग पर एक ओर फेंकते हुये कहा। रिंकू का दिल बैठ गया। पारस ने अब इस राज़ से पर्दा उठाने से पहले कि कहानी क्यों ग़लत है, अपने चारों ओर देखा कि क्या कहीं कोई पत्रकार उसकी बात को नोट करने बैठा है। लेकिन चूंकि यह उसका घर था और चूंकि पत्रकारों को पहले से आमंत्रण नहीं दिया गया था, कमरे में राजू, रिंकू और पारस के अलावा कोई चौथा नहीं था।
´´साहित्य की दुनिया में किसी धर्म का पक्ष लेना सरासर बेवकूफी है रिंकू बाबू। और दूसरी बात यह है कि कहानी वास्तविक लगनी चाहिये। जैसा मध्यमवर्गीय लड़की के बारे में तुमने लिखा है, वैसा कहीं वास्तविक जीवन में सुना है ? यह गंभीर साहित्य है और यहां खुशफहमियां नहीं चलेंगी। यह कहानी नहीं चलेगी। इसको छोड़ दो या फिर अंत बदल दो।´´
´´क्या करूं अंत...?´´ रिंकू ने बैठे स्वर में पूछा।
´´यह दिखा दो कि लड़की अंत में उसको छोड़ कर चली जाती है।´´ पारस ने आराम से कहा मगर रिंकू के मुंह से हल्की सी चीख निकल गयी।
´´नहीं.............।´´
´´क्या हुआ भाई ? पहली ही कहानी से इतना मोह ? तुम्हें पता है मैं अपनी चौथी कहानी लिख रहा हूं और चौथी बार फेयर करने के बाद आज फिर उसका अंत का हिस्सा बदलना पड़ा। यह कहते हुये उसके चेहरे पर जो भाव आया वह चीख-चीख कर कह रहा था कि ´´है कोई जो मेरे इतना सीरीयस है साहित्य को लेकर ?´´ या ´´देखा मेरी शानदार कहानियों का राज़, कोई तुक्का नहीं खालिस मेहनत।´´
रिंकू अपना सा मुंह, जो ऐसी प्रतिक्रिया पाकर अब उसे और अपना सा लग रहा था, लेकर चला आया।


15.

बाकी सारे दोस्तों और उनके परिवार कॉलोनी में ही रहते थे राजू को छोड़कर। उसका घर लहरतारा के एक छोटे से मुहल्ले मिसिरपुरा में था इसलिये उसे कॉलोनी पहुंचने में सबसे ज़्यादा देर लगा करती थी। उसे इसीलिये वक़्त से थोड़ा पहले बुलाया जाता था। रिंकू का फोन उसे आया तो वह खाना खाकर पापा और मम्मी की झिड़की और डांट की एक किश्त ग्रहण कर आराम से लेटा भारत और ऑस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच देख रहा था जिसमें कोई रोमांच नहीं था क्योंकि उसका परिणाम पूरी दुनिया को पता था। राजू के घरवालों की सबसे बड़ी समस्या थी कि उन्हें पता चल गया था कि उनके बेटे की बैठकी आजकल जिस दोस्त के घर हो रही है वह मुसलमान है और वे सब स्वाभाविक रूप से अपने बेटे के धर्म और इस रास्ते उसकी ज़िंदगी बचाने के लिये कटिबद्ध हो गये थे। राजू के पिता और माता दोनों हिंदू थे और ब्राह्मण थे क्योंकि उनके माता पिता और फिर उनके भी माता पिता भी हिंदुओं में सबसे श्रेष्ठ यानि ब्राह्मण थे। यूं देखा जाय तो राजू के माता और पिता दोनों ही ब्राह्मण थे और दोनों ही का इस होने में अपना कोई हाथ नहीं था। चूंकि ये ब्राह्मण के घर में किसी ब्राह्मण के प्रयास से (कुछ अपवादों को छोड़कर) ब्राहमणी की कोख से पैदा हुये थे इसलिये इन्हें बिना किसी प्रयास के ब्राह्मण होने और इस हक़ से किसी भी जाति को नीची नज़र से देखने का सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकार मिल गया था। ये जब चाहे किसी का नाम लेकर कह सकता थे, ´´∙∙∙∙ सरवा तेलिया या फिर हऊ ससुरा चमरा...।´´
            राजू इन चीज़ों से इत्तेफ़ाक नहीं रखता था और वह मान कर चलता था कि इसमें किसी पिछले जन्म के पुण्य प्रताप का फल नहीं है। वह सभी धर्मों को एक नज़र से देखता था क्योंकि उसका मानना था कि लड़की का और प्रेम का कोई धर्म नहीं होता। उसने जब अपनी मां को उसको अपने ब्राह्मण होने पर गर्व न होने पर कलपते सुना तो उससे रहा नहीं गया। मां टीवी के पास बैठ कर बड़बड़ा रही थी और साथ में टीवी भी देख रही थी जिसका सम्मलित सारांश यह था कि बड़ा बेटा ही धर्म को बचाने वाला नहीं होगा तो आगे का तो भगवान मालिक है और अम्मा जी की बड़ी बहू का भी। छोटे भाई पर इसका बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और घर का धर्म ही नष्ट हो जाएगा, साथ ही आज छोटी बहू का घमण्ड भी टूटेगा क्योंकि उसका पुराना प्रेमी उसकी ससुराल में उसे ब्लैकमेल करने आ रहा है। थोड़ी देर कोसने के बाद जब वह पूरी तरह सीरियल में रम गयीं तो राजू धीरे से घर से निकल लिया और कमरे की ओर चल पड़ा।
            वह उम्र ऐसी थी कि राजू अपने अलावा पूरी कायनात को कमअक्ल और खुद को असीम क्षमता वाला इंसान मानता था। उसकी उम्र के साथ-साथ उसके दोस्तों ने भी उसे यह झूठा विश्वास दिलाया था और बदले में उसने भी अपने दोस्तों के साथ यही किया था। वे सब एक साथ मिलकर एक दूसरे को असीम क्षमताओं वाला इंसान सिद्ध किया करते थे और इस तरह उनकी दोस्ती परवान चढ़ती जाती थी। मगर एक दिन ऐसी घटना हुयी जिससे लगा कि इनकी दोस्ती जैसे परवान चढ़ी है वैसे परवान उतर भी सकती है।
            राजू जब कॉलोनी में पहुंचा तो वहां कुछ बवंडर मचा हुआ था। किसी स्वघोशित सुंदर लड़की को किसी तथाकथित जवान लड़के ने छेड़ दिया था और कॉलोनी में हर दो दिन बाद होने वाला उत्सव एक विराम के साथ फिर शुरू हो गया था। राजू ने कॉलोनी में घुसते ही सिगरेट फेंक दी और बेपरवाह क़दमों से रिंकू के घर की ओर चलने लगा। उसने एक बार नज़र उठा कर चतुर्वेदी के घर की ओर ताका था जिसके आस-पास कई झगड़ा प्रेमी परिवार रहते थे जो हर दूसरे तीसरे दिन पेट साफ़ न होने पर एलोपैथ या होमियोपैथ की शरण में जाने की बजाय झगड़ा छेड़ने का आयुर्वेदिक नुस्खा अपनाते थे। इससे उन्हें अपने कष्टों में तुरंत आराम मिलता था। औरतें हंकड़-हंकड़ कर अपनी ज़बान साफ़ करती थीं और हाथ नचा-नचा कर अपना ब्लड सर्कुलेशन सुचारु करतीं थी और इस प्रकार अगले दिन के लिये तरोताज़ा हो उठती थीं। उनके पति भी उसे दिन आराम महसूस करते थे क्योंकि बाहर लड़ के आने के बाद औरतें अपने पतियों को बख़्श देती थीं और पतियों की कई हरमजदगियों को अनदेखा कर देती थीं।
            झगड़े कई प्रकार के होते थे। जो झगड़ा सबसे जल्दी और बगैर मेहनत बिना किसी पूंजी लगाये शुरू होता था वह था अतिक्रमण का। अगर एक घर का कूड़ा फेंकते वक़्त कोई सूखा पत्ता या किसी बोतल का कोई ढक्कन ही ऐसी जगह आ गिरता था जहां से दूसरे घर की परिधि शुरू हो जाती थी (या कम से कम घर का मालिक मान लेता था कि उसके घर की परिधि यहीं से शुरू होती है जो अक्सर आम सड़क ही हुआ करती थी) तो यह झगड़ा सबसे सहज और आसानी से शुरू होता था। इस झगड़े के लिये न तो किसी तैयारी की ज़रूरत हुआ करती थी न ही अच्छे सामान्य ज्ञान की। इसमें शुरूआत सलामी बल्लेबाजों की तरह दो औरतें ही करती थीं लेकिन कुछ ही देर बाद क्रिकेट की तरह दिखने वाला यह खेल फुटबॉल में परिवर्तित हो जाता था। दोनों तरफ से कई खिलाड़ी आ जाते थे और स्टेडियम शोर से भर जाता था। इस झगड़े में हावी होने के लिये अच्छी याद्दाश्त की ज़रूरत होती थी और कहना न होगा कि झगड़े का परिणाम अच्छी याद्दाश्त वाली के पक्ष में ही जाता था जो इसका उपयोग कुछ इस तरह करती थी।
´´हमको याद है तूं पिछले शनिवार को भी अइसे ही कूड़ा फेंकी थी कि पूरा हमारे गेट के पास आकर गिरा था।´´
´´अरे हम देखे थे तुमको हमारे साहब की मोटरसायकिल के पास जूठा फेंक के भागते पिछले मंगल को...।´´
´´हमसे बतिअइबू तूं ? तहार मूंह हौ ? पिछले वाले क्वार्टर में से तोहके एही बदे निकालल गयल रहल कि तूं उहौं एही तरे केहू के दुआरी पर कूड़ा फेंक देत रहलू।´´
            कुल मिलाकर इस तरह के झगड़ों में मासेस को कोई खास दिलचस्पी नहीं रहती थी। लोग साबुन खरीदने पास वाली दुकान पर जाते तो जितनी देर में दुकानदार साबुन निकाले उतनी ही देर आनंद उठा कर नहाने के वक़्त तक चले आते थे। राजू और रिंकू के ग्रुप के लोग इधर से गुज़रते तो तभी रुकते जब कोई लड़की अपनी बालकनी से इस झगड़े का आनंद ले रही हो वरना वे मुंह झुका कर कुछ आवाज़ें निकालते आगे बढ़ जाते।
´´मार सारे के∙∙∙∙∙....।´´
´´मार इसकी ब∙∙∙हिन की........।´´
            दूसरी तरह का झगड़ा अपेक्षाकृत अधिक भीड़ बटोरता था क्योंकि इसमें थोड़ी हिंसा होती थी और जनता के लिये हिंसा से अच्छा मनोरंजन कोई नहीं होता। कोई बालक अपने किसी साथी को बुरी तरह पीट देता और बच्चों की लड़ाई में बड़े लोग कूद पड़ते। देखते-देखते कॉलोनी के लोग इस बात की भर्त्सना करते अपने-अपने कैंडिडेट के समर्थन में कूद पड़ते। कॉलोनी में लोगों के दो ग्रुप बन जाते और दोनों एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में अपनी उस दिन की पूरी ऊर्जा लगा देते। कई बार बड़े बच्चों की लड़ाई में इतने हिंसक हो जाते की अगली पार्टी को पीटने पर उतारू हो जाते और कई बार तो बाक़ायदा पीट देते। यह ताज़ा-ताज़ा कुछ साल पहले बाप बने वे लोग होते जिन्होंने पहले फौज में जाने की तैयारी की होती थी और असफल होने पर अध्यापक या पत्रकार बन गये होते थे। कई बार तो ऐसा होता था कि बच्चों से ज़्यादा मारपीट बच्चों के बाप कर लेते और तभी उन्हें पता चलता कि वे दोनों बच्चे जिनके कारण लड़ाई शुरू हुयी थी, वे फिर से खेलने चले गये हैं। रिंकू के ग्रुप का कोई अगर उधर से गुज़र रहा हो तो लड़ाई में हिस्सा तब लेता जब उस बच्चे की कोई बड़ी बहन होती थी। ज़ाहिर है जिधर लड़की होती थी, ये लोग उसी के छोटे भाई की ओर से झगड़े में भाग लेते थे ओर ऐसा न होने पर वहां से चुपके से भाग लेते थे।
            तीसरी तरह के झगड़े में पूरी कॉलोनी पूरे उत्साह से भाग लेती थी और अपना मनोरंजन करती थी। ये झगड़े सबसे लोकप्रिय थे। क्या बच्चे, क्या युवक, क्या बूढ़े और क्या महिलाएं, सब किसी महाउत्सव की तरह इस लड़ाई में भाग लेना, पीड़ित परिवार को सांत्वना देना और बिगड़ते जा रहे ज़माने को कोसना अपना फ़र्ज़ समझते थे। 14 साल के बिट्टू से लेकर 74 साल के जगेसर तक, सभी को ये झगड़े समान रूप से आकर्षित करते थे। कॉलोनी में लड़कियों और लड़कों के बीच कुछ भी होना दुख और झगड़े का कभी भी सबब बन सकता था। भारत युवाओं का देश था जिसकी साठ प्रतिशत आबादी युवा थी और कॉलोनी युवाओं की कॉलोनी थी जिसमें सौ प्रतिशत लोग युवा थे या कम से कम खुद को समझते थे। कभी कोई 25 साल का युवा किसी लड़की से अपने प्रेम का इज़हार कर देता था तो झगड़ा और कभी कोई 65 साल का युवा किसी छोटी बच्ची के नाज़ुक अंगों पर हाथ फिरा देता था तो झगड़ा। इस झगड़े में भाग लेने के लिये अच्छे सामान्य ज्ञान की ज़रूरत पड़ती थी मसलन पीड़क पक्ष के परिवार में बदज़ाती के पिछले साल भर में कितने मामले हुये हैं या उसके घर के कितने लड़कों ने कॉलोनी की कितनी लड़कियों को  भद्दे इशारे किये या रास्ता रोक कर बात करने की कोशिश की है।
 कॉलोनी की लड़कियां बहुत शरीफ़ थीं और वे कभी किसी पुरुष या लड़के को नज़र उठा कर नहीं देखती थीं। वे फिल्में भी हम साथ-साथ हैं टाइप की देखती थीं और टीवी पर सिर्फ़ जय हनुमान और टॉम एण्ड जेरी उनके पसंदीदा प्रोग्राम थे। वे आपस में जब फुसफुसा कर हंस रही होती थीं तो उस समय वे जय संतोषी मां फिल्म के दृश्यों पर चर्चा कर रही होती थीं। जब वे कॉलोनी से बाहर कोई शादी देखती थीं तो उन्हें समाज पर बहुत गुस्सा आता था और दुल्हन के सुदंर कपड़े और शादी के भावुक गीत उन्हें बोर कर देते थे। शादी ब्याह का खयाल उनके दिमाग में कभी भूले से भी नहीं आता था। वे बहुत संवेदनशील टाइप की लड़कियां थीं जिनके लिये अपने पिता के लिये खाना बनाने और मां की सेवा करने के अलावा कोई काम पसंद था तो वह था घर की सफ़ाई। वे दुनिया में सिर्फ़ अपने मां बाप को प्रेम करती थीं और उपरोक्त सारी बकवास सोचने और इनमें विश्वास रखने वाले उनके अंधे मां बापों को यह पसंद भी नहीं था कि लड़कियां उनके अलावा किसी और के बारे में सोचें भी। इस कारण से लड़कियां प्राइवेसी चाहती थीं। जो समझदार लड़के गोपनीयता बरकरार रखते हुये लड़कियों को प्रपोज करते थे वे अक्सर कामयाब होते थे और लड़कियों को आराम से झूठ बोलकर बाहर घुमाया करते थे। जो लड़के इस महीन बात को नहीं समझ पाते थे, वह लड़की को लाइन मारने की प्रक्रिया में हरी झंडी पाकर उन्हें कॉलोनी के ही किसी रोड पर प्रपोज़ करने की ग़लती करते थे और लात खाते थे। बाद में दारू पीकर रोते समय ये लड़के इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते थे कि लड़की ने मेरी दी हुयी लाइन ली थी और मुझे इशारा भी किया था तो मेरा प्रेम प्रस्ताव ठुकरा कैसे दिया, और तो और पिटवा भी दिया।
            आज का झगड़ा कुछ अलग तरह का था इसलिये राजू को उसमें रुचि पैदा हुयी। उसने थोड़ी देर रुक कर मामले का जायज़ा लिया तो उसे पता चला कि बात चतुर्वेदी के आसपास की नहीं उसी की है। 56 साल के चतुर्वेदी ने अपने बगल वाले टी.सी. श्रीवास्तव जी की लड़की को अचार मांगने के बहाने घर में बुलाया था और उसकी सलवार का नाड़ा खींचने की कोशिश की थी। लड़की बहादुर थी और उसने चतुर्वेदी को एक लात मारी थी। इसके बाद वह शोर मचाती हुयी बाहर निकली थी और पूरी कॉलोनी को इकट्ठा कर लिया था।
            राजू ने चतुर्वेदी के चेहरे की तरफ़ देखा और पाया कि वहां लेशमात्र शर्म या संकोच नहीं है बल्कि अपने खिलाफ छेड़े गये युद्ध में अपनी पत्नी को वह खुद गाइड कर रहा था। उसकी पत्नी ने लड़की के बारे में कुछ ऐसे आपत्तिजनक शब्द कहे कि लड़की का बाप चतुर्वेदी की बीवी को मारने चढ़ पड़ा।
´´जाने दीजिए भाई साहब, औरतों के मुंह क्या लगना। ई साले तो पहिले से पूरी कालोनी में बदनाम हैं। छोड़िये।´´
            चतुर्वेदी चिल्ला-चिल्ला कर इल्ज़ाम लगा रहा था कि लड़की बदनाम है और वह इसका पूरा चिट्ठा खोल सकता है लेकिन वह किसी की बेटी को बदनाम नहीं करना चाहता क्योंकि वह उसकी बेटी की उम्र की है। किसी ने पुलिस को फोन कर दिया था और पुलिस दनदनाती हुयी पहुंच गयी थी। पुलिस चोरी होने, डाका पड़ने और लाश मिलने की सूचना पर बहुत देर में आती थी क्योंकि चोरी डाके में छानबीन करने की मगज़मारी होती थी और लाश कोई पैसा नहीं देती थी। पुलिस के दोरागा ने पहले चतुर्वेदी को एक थप्पड़ मारा फिर लड़की के बाप को। इसके बाद दारोगा चतुर्वेदी को बांह से पकड़ कर अंदर ले गया और पांच मिनट बाद लौटा। जब वह लौटा तो लड़की का बाप चतुर्वेदी के खिलाफ मामला दर्ज कराने के लिये छरिया रहा था। वह उसकी बांह पकड़ कर उसके घर में ले गया और पांच मिनट बाद वापस लौटा। जब दारोगा दोनों पार्टियों से पांच-पांच हज़ार लेकर जीप में चढ़ रहा था, उसके इशारे पर दोनों पार्टियां वापस अपने घरों की ओर जा रही थीं। युद्ध विराम की घोषणा हो चुकी थी।
´´कमवा दिये साले पुलिस को पइसा। इसी लिये सालों की कीरी थी। पइसा निकला जेब से कि सारा जोश ठंडा हो गया...।´´ राजू बुदबुदाता हुआ वहां से चल पड़ा। पूरे मामले में उसके लिये गौर करने वाली बात यह थी कि चतुर्वेदी को वे लोग जैसा समझ रहे थे वह वैसा नहीं है। वह तो लड़कियों में रुचि लेता है।
राजू ने अपने कदमों की रफ़तार तेज़ कर ली। वह जल्दी से जल्दी रिंकू को चतुर्वेदी के बारे में बताना चाहता था। रिंकू का कमरा चतुर्वेदी के क्षेत्र से काफ़ी आगे था और इस कारण राजू आश्वस्त था कि अभी उस तक इस झगड़े की खबर नहीं पहुंची होगी। मगर आज रास्ते में उसे कई तरह के आकर्षण मिल रहे थे। रिंकू के कमरे से थोड़ी दूरी पर उसे टुन्नू मिल गया जो तेज़ क़दमों से कहीं भागा जा रहा था।
´´कहां बे, कुत्ता दउड़ा रहा है क्या ?´´ राजू ने आवाज़ लगायी तो टुन्नू रुक गया।
´´अरे यार चलो तुमको भी मिलवाते हैं।´´ टुन्नू ने उसका हाथ पकड़ लिया और दूसरी दिशा में खींचने लगा।
´´हम रिंकुआ के यहां जा रहे हैं यार।´´ राजू ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की।
´´अबे चलो मिल तो लो, एक बहुत बेजोड़ आदमी से तुमको मिलवाते हैं।´´ राजू ने थोड़ी ना-नुकर और की लेकिन टुन्नू ने जब कहा कि उस आदमी से मिलने के बाद वह भी रिंकू के कमरे पर चलेगा और वहीं चाय चूय किया जाएगा तो वह मान गया। टुन्नू राजू को जहां घुमा कर ले जा रहा था वह जगर रिंकू के कमरे से पास ही थी और रिंकू की बालकंनी वहां से दिखायी देती थी।
            कॉलोनी के गोल पार्क कहे जाने वाले मैदान में एक नेतानुमा आदमी सफ़ेद कुर्ता पाजामा और केसरिया साफा धारण किये कुछ नौजवानों से मुखातिब था। वह एक कुर्सी पर बैठा था और उसके सामने लगी क़रीब पचास कुर्सियों में से 30 से अधिक भरी हुयी थीं। सब पर कॉलोनी के युवा लड़के बैठे थे और पूरी गम्भीरता से उस नेता की बात सुन रहे थे। यह मैदान एक तरह से कॉलोनी के बीचोंबीच था और यहां से कुछ नहीं तो कम से कम 10 घरों की बालकनियां पूरी और बीस की झलक दिखायी देती थीं। प्रायिकता के नियम पर पूरा भरोसा करने वाले लड़के कभी उसे नेता की बातों को सुन रहे थे और कभी अपनी किस्मत आज़माने के लिये कुछ बालकनियों पर नज़र दौड़ा लेते। रिंकू की बालकनी पर सन्नाटा था जिसका अर्थ राजू ने यह निकाला की वह दोपहर की नींद लेने में मस्त होगा। उसने लगे हाथ सामने शुक्ला जी की बालकनी पर भी डाली जहां कभी-कभी अनु शुक्ला जी का तम्बू बराबर धारीदार जांघिया फैलाने आती थी। ´लेकिन इतनी दोपहर में क्यों आयेगी वह...?´ राजू ने सोचा और सभी देवी देवताओं से प्रार्थना करने लगा कि किसी भी तरह अनु एक बार के लिये बालकनी पर आ जाय तो वह इशारे से उसे अपना नम्बर फिर से बता दे। एक ही मुलाकात ने राजू को अनु का दीवाना बना दिया था पर अपना नम्बर देने के बावजूद अनु ने उस पर कॉल नहीं किया था और दुबारा मुलाक़ात का कोई शगुन नहीं बन पाया था।
´´नौजवान, आपका ध्यान शायद कहीं और है।´´ उस नेतानुमा आदमी ने कहा तो राजू एक पल को झेंप गया और फिर उसकी बातें सुनने लगा। अपनी ग़लती का प्रायिश्चत करने के लिये वह एकटम उस आदमी को देखने लगा और औरों से अधिक समझने का अभिनय करते हुये सहमति में सिर भी हिलाने लगा।
´´देश खतरे में है और जितना खतरा बाहर से है उससे कहीं ज़्यादा अंदर से है। बाहर के खतरों से निपटने के लिये सेना अपना काम कर रही है और अंदर के खतरों से हमें निपटना होगा। अपने देश की रक्षा के लिये.....।´´
नेतानुमा आदमी जो बार-बार कह रहा था कि वह नेता नहीं है, सिर्फ़ जनता का सेवक हैबोलता जा रहा था और राजू सिर हिला कर पूरे समूह में सबसे गंभीर श्रोता की तरह सुनता जा रहा था। उसने एकाध बार बालकनी की तरफ़ देखा भी तो कनखियों से पर अनु की एक बार झलक भी दिखायी नहीं दी।

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