(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है छठवीं किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)
10.
दुर्गापूजा
की तैयारियों के बीच अंग्रेज़ी बोलने वाला कार्यक्रम कई दिन टल गया। किसी दिन कोई
नहीं होता तो किसी दिन कोई। आखिर एक हफ्ते के बाद दिन में दृढ़ निश्चय कर चारों
दोस्त रिंकू के कमरे पर शाम पांच बजे इकट्ठा हुये। राजू पहले से बैठा था और आनंद
और सुनील सिगरेट और नींबू लेकर पहुंचे। रिंकू के चेहरे पर गौतम बुद्ध जैसी शांति
थी और राजू के चेहरे पर रावण जैसी बेचैनी। माहौल में एक अजीब सी निष्कर्षता थी
मानो अब किसी चीज़ पर बहस करने की कोई गुंजाइश नहीं। दो-दो के दो ग्रुप बनाये गये।
राजू और रिंकू एक ओर और आनंद और सुनील एक ओर हुये, ग्रुप डिस्कशन का टॉपिक तय रहा- लव
मैरिज वर्सेज़ अरेंज मैरिज। रिंकू के ग्रुप ने ज़ाहिराना तौर पर लव मैरिज का टॉपिक
लिया और सुनील के ग्रुप ने अरेंज मैरिज का। आनंद ने भूमिका बनायी और मॉडरेटर के
तौर पर पहले रिंकू को बोलने का न्यौता दिया।
´´आय थिंक लव मैरिज इज बेटर बिकॉज यू नो
योर लाइफ पार्टनर ऑलरेडी। यू नो हर वीकनेसेस एक स्ट्रेंथ विच हेल्प यू टु बिहैव
अकार्डिंगली।´´
राजू ने सिर हिलाकर रिंकू की बात का
समर्थन किया। आनंद ने अपनी भूमिका निभायी।
´´बट इफ योर पैरेंट्स आर नॉट रेडी फॉर
योर लव मैरिज,
डोंट यू थिंक इट्स नॉट ए गुड आयडिया टु
डिसओबे योर पैरेंट्स ?´´
´´आय डोंट थिंक सो। दिस इज योर लाइफ एण्ड
यू हैव द राइट टु चूज योर लाइफपार्टनर।´´ रिंकू।
´´
बट हाउ कुड यू नो दैट योर च्वायस इज़
राइट ? डोण्ट यू थिंक यू कैन कमिट अ मिस्टेक
इन सच अ बिग डिसीजन लाइक दिस ?´´ आनंद।
´´दिस कैन बी रिपीटेड इन द डिसीजन्स
टेकेन बाय अवर पैरेण्ट्स टू। दे कैन ऑल्सो कमिट मिस्टेक। ऐट लीस्ट वी नो व्हाट वी
आर डुइंग।´´ रिंकू।
´´ही इज़ राइट। वी कैन ऑल्सो चैलेंज द
ओल्ड कास्ट सिस्टम इन लव मैरिज।´´ राजू
ने बहुत देर तक एक तड़तड़ाता वाक्य अनुवाद किया और जड़ दिया।
´´या, वी कैन चैलंज द ऑर्थोडॉक्स रिलीजन एण्ड
कास्ट मैचिंग ट्रेडिंशन थ्रू दिस वे।´´ रिंकू ने राजू के वाक्य में अपनी क्षमता के हिसाब से सुधार किया और
राजू को समझ में आया कि रिंकू की वोकाबलरी काफी अच्छी हो गयी है।
´´व्हाट ऑर्थोडॉक्स...अवर कल्चर हैज अ
मीनिंग एण्ड एवरीथिंग इन अवर कल्चर डज़ हैव अ मीनिंग। द रिलीजन एण्ड कास्ट सिस्टम
इज़ अ वेरी इम्पोर्टेंट पार्ट इन द बैलेंस ऑफ अवर सोसायटी।´´ आनंद ने दलील दी। रिंकू के चेहरे पर
अचानक ऐसे भाव आ गये जैसे उसे करंट लगा हो।
´´व्हाट ? आर
यू जोकिंग ? डू यू रियली बीलिव दैट दिस सिस्टम इज़ अ वेरी गुड पार्ट ऑफ द सोसायटी
?´´ रिंकू
की आवाज़ में अचानक तुर्शी आ
गयी।
´´ऑफकोर्स आय डू। आय बीलिव इन माय कल्चर
एण्ड इट्स ट्रेडीशन ऑल्सो।´´ आनंद
ने आत्मविश्वास के साथ कहा। ´´इजण्ट
इट सुनील ?´´ उसने सुनील की रज़ामंदी लेनी चाही जो
शुरू से अब तक सिर्फ़ मन
में अनुवाद ही करता रहा था। जैसे ही वह एक उपयुक्त वाक्य का ठीक ठाक अनुवाद कर
पाता, बहस आगे निकल जाती थी और वह झल्ला कर
रह जाता था।
´´या या, आइ एम एग्री विद आनंद।´´ सुनील ने कहा और पता नहीं क्यों उसके
माथे पर पसीना चुहचुहा आया।
´´आय अग्री विद आनंद।´´ आनंद ने उसका वाक्य सुधारा और वह
तिलमिला गया कि उसका पहला वाक्य भी सही नहीं था। कमरे में थोड़ी देर के लिये दीवार
घड़ी की टिक-टिक सुनायी दी।
´´आय´म शॉक्ड....।´´ रिंकू ने थोड़ी देर बाद चुप्पी तोड़ी और
उठकर बालकनी में टहलने लगा। राजू अपने ग्रुप के साथी का हालचाल लेने बालकंनी में
गया और रिंकू के मूड खराब होने का कारण जानने की कोशिश की।
´´क्या हुआ बे, झांट क्यों जल गयी तुम्हारी ?´´
´´भोसड़ी का चूतिया है अनंदवा।´´ रिंकू ने गुस्से भरे स्वर में कहा और
दूर पार्क में कॉलोनी के बच्चों को क्रिकेट खेलता देखने लगा जो क्रिकेट के साथ-साथ
आसपास के छतों पर ताकाझांकी भी कर रहे थे और उन्हें कॉलोनी की जवान होती लड़कियों
का अपूर्व समर्थन हासिल था।
11.
´भोजन करते वक़्त बोलना नहीं चाहिये’ और ´स्त्रियों का भोजन एकांत में होना
चाहिये´, इन दोनों विषयों को मिला कर भोजन के
दौरान अनु, मनु और सविता को एक संयुक्त व्याख्यान
देने के बाद शुक्ला जी ने कुछ देर आराम किया और उसके बाद कॉलेज जाने की तैयारी
करने लगे। पुत्रियों को भोजन करते हुये देखना उन्हें पता नहीं क्यों बड़ा अजीब सा
लगता था। उन्होंने उन्हें कई बार समझाया कि लड़कियों को एकांत में खाना चाहिये पर
लड़कियां कभी भी कहीं भी खाना लेकर बैठ जाती थीं और परिणामस्वरूप लेक्चर देने के
आदती शुक्ला जी को भोजन का स्वाद पता ही नहीं चल पाता था। कई बार तो वह पूरे भोजन
करने के दौरान ´खाते वक़्त बोलना नहीं चाहिये´ विषय पर व्याख्यान देते रहे थे।
आराम करते हुये उनके मन में कुछ महीने
पहले की वह घटना ताज़ा हो गयी जिसने उन्हें इस उम्र में भी शर्मिंदा कर दिया था।
शुक्ला जी पूरी तरह से सात्विक आदमी थे और एक के बाद एक ताबड़तोड़ कई बेटियां पैदा
होने की वजह से स्त्रियों के प्रति बहुत नरम हो गये थे। जब उनकी नरमाहट हद से
ज़्यादा बढ़ जाती तो वह एकाध बार उन पुरानी गलियों में निकल जाते जहां उन्हें बनारस
के एक लगभग लुप्त हो चुके स्वाद की थोड़ी सी झलक मिलती। शुक्ला जी के बचपन के मित्र
अमरमणि तिवारी रेलवे में थे और बनारस में पोस्टेड थे। शुक्लाजी हर दूसरे महीने के
पहले शनिवार को तिवारी जी के साथ दो दिन के लिये लखनऊ जाते थे। उनका लखनऊ बनारस से
मात्र आधे घण्टे की दूरी पर था और गोदौलिया के एक बहुत भीतरी मुहल्ले टेढ़ीनीम में
स्थित था। वहां वह तिवारी जी के साथ जम के पीते और चढ़ जाने के बाद इस बात पर बहुत खुश
होते कि वह शराब के गुलाम नहीं हैं और उन्हें इसकी तलब नहीं सताती। वह सिर्फ़ दो महीने में एक बार पीते हैं। उस दिन शुक्ला जी अपने परम मित्र के
साथ एक ऐसा नृत्य देखते जिसमें कई भारतीय शास्त्रीय नृत्यकलाओं के साथ पाश्चात्य
नृत्यकलाओं की छौंक होती और नृत्यांगना का पूरा ध्यान अपने कुछ विशेष अंगों को
अपने कदरदानों के सामने जाकर पूरी ताकत से हिलाने में होता था। आंइस्टीन के
सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार शुक्ला जी को हर बार नृत्य की अवधि बहुत कम लगती
और वह एक घंटे लगातार नृत्य देखने के बाद शुक्ला जी उस नृत्यांगना के साथ आयी मोटी
महिला, जो खुद को नृत्यांगना का मैनेजर कहती
थी और फि़ल्मी चित्रण के विपरीत पान नहीं खाती थी, से इस बात पर भिड़ जाते कि अभी और होना
चाहिये, मज़ा नहीं आया।
उन दिन जब शुक्ला जी और तिवारी जी
दोनों ही एक पूरी बोतल खत्म करने के कगार पर थे, तिवारी जी ने नृत्यांगना के एक अंग को, जिसका उस दिन नृत्य में वह हर बार से
अधिक और बहुत लाउड प्रयोग कर रही थी, पकड़ कर मसल दिया। नृत्यांगना गैरतमंद थी और इस तरह वह भले शुक्ला जी
और तिवारी जी दोनों की सेवा करती थी, असमय और छीनाझपटी वाली स्टाइल में धरपकड़ से नाराज़ हो गयी और नाचने
से मना कर दिया। नृत्यांगना की मैनेजर ने उन दोनों को दिया गया कमरा बंद कर दिया
और उनका सामान बाहर सड़क पर फेंक दिया। दोनों मित्र अब रात गुज़ारने के लिये कुछ
जुगत लगाते हुये कैण्ट की तरफ पैदल ही बढ़े जा रहे थे। रात के करीब तीन बजे थे और
मलदहिया चौराहा बिल्कुल सुनसान था। अचानक उन्हें किसी गाड़ी की धीमी आवाज़ सुनाई
दी। उन्होंने देखा यह एक पुलिस जीप थी जो मलदहिया चौराहे का चक्कर लगाने के बाद
वहीं आसपास घूमने लगी। वे लोग अपनी जगह जड़ हो गये और अपने-अपने कुलदेवताओं को याद
करने लगे। चौराहे के पास के एक छोटे कटरे की आड़ में दोनों मित्र खड़े हो गये और
सोचने लगे कि आज अगर बच गये तो पूरी ज़िंदगी सत्तू खाकर और पत्नी की पूजा कर निकाल
देंगे।
´´दुख की बात तो यह है कि वास्तव में तो
हम लोग बहुते सीधे आदमी हैं शुक्लाजी। दू महीना में एक बार जीवन का आनंद लेने की
कोसिस की अउर देखिये पुलिस पीछे पड़ी है।´´ तिवारी जी ने लड़खड़ाते शब्दों में कहा।
´´बिल्कुल सही कह रहे हैं तिवारी जी। गलत
काम नहीं करना चाहिये इसीलिये न कहा जाता है भाई। बस आज बच जाएं महादेव जी...।´´ शुक्ला जी की आवाज़ भी लड़खड़ा रही थी।
´´जो भोसड़ी के रोज रंडी दारू करते हैं
उनको कोई ख़तरा नहीं है अउर हम लोग देखिये इतने सरीफ आदमी होकर भी छिपे हैं हिंया।
साले जीप से उतर के नहीं खोज रहे हैं नहीं तो हम लोग अब तक पकड़ा चुके होते।´´ तिवारी जी ने बाहर की ओर झांकते हुये
कहा।
शुक्लाजी ने भी धीरे से बाहर झांका।
पुलिस की गाड़ी में हेडलाइट नहीं जली थी और न ही सायरन बज रहा था। चौराहे पर जली
रोडलाइटों से पता चलता था कि यह पुलिस की गाड़ी है। गाड़ी में एक दारोगा और दो से
तीन तक कांस्टेबल थे। वे लोग दुकानों और घरों के आसपास से जीप गुज़ार कर शायद किसी
की तलाश कर रहे थे। सब कुछ तलाश करने के बाद जीप चौराहे पर थोड़ी देर के लिये
बेआवाज़ रूकी। दो सिपाही बाहर निकले और जीप से कोई चीज़ बाहर गिरी। जीप रोशनी के
दायरे से थोड़ी दूर थी इसलिये कुछ साफ दिखायी भी नहीं दिया और डर में सिर से पांव
तक डूबे दोनों दोस्तों का दिमाग इस दृश्य पर ठहरा भी नहीं।
´´लगता है जा रहे हैं सब।´´ शुक्ला जी की दबी सी आवाज़ आयी तो
तिवारी जी ने भी सिर निकाल कर देखा। उनका नशा अब तक पूरी तरह उतर चुका था और पुलिस
की जीप इंग्लिशिया लाइन की तरफ जाती देख उनका दिमाग तेज़ गति से काम करने लगा।
´´चलिये जल्दी भागा जाय।´´ शुक्ला जी ने प्रस्ताव दिया।
´´रुकिये महाराज जल्दिआइये मत। पुलिस अब
यहां से हम लोगों को खोजते हुये कैण्ट की तरफ गयी है। उस रंडी की औलाद ने उनको बता
दिया होगा कि आपका घर कॉलोनी में है और मेरा भोजूबीर। वो लोग अब उधर ही तलाश
करेंगे थोड़ी देर और हो सकता है कि एकाध हवलदार कैण्ट के आसपास छोड़ जायं हमारी तलाश
करने के लिये।´´
तिवारी जी के शब्दों में जोश और
व्यामकेश बख्शी वाली चतुराई थी जिसमें पुलिस को मूर्ख बनाने का उत्साह झलक रहा था।
´´तो का किया जाय ?´´ चिंतित
शुक्लाजी ने पूछा।
´´कुछ देर यहीं इंतज़ार किया जाय। एकाध
घण्टे बाद जब लगेगा कि सब ठीक है तो निकला जायेगा।´´
´´ठीक है।´´
दोनों दोस्त दीवार की टेक लगा कर बैठ
गये। मुश्किल से दस मिनट ही बीते होंगे कि पुलिस की गाड़ी का सायरन बजा, बहुज ज़ोर से। जीप ज़ोर से हॉर्न बजाती
हुयी आयी और चौराहे पर पहुंचने से पहले ही दो फायर हुये। दोनों दोस्तों की आत्मा
शरीर का साथ छोड़ने को अग्रसर हो गयी। शुक्ला जी के सामने अपनी प्यारी अनपढ़ लेकिन
आज्ञाकारी पत्नी और बेटियां घूम गयीं। चक्कर आने से पहले उन्हें शेर सिंह का भी
चेहरा दिखायी दिया था। तिवारी जी ने उन्हें संभाला। उनका दिमाग भय में लिपटे होने के
बावजूद अब भी काम कर रहा था। उन्होंने बाहर देखा। पुलिस की जीप जहां पहले रूकी थी
और जीप से कोई चीज़ बाहर गिरी थी वहां कई पुलिस वाले खड़े थे। जीप थोड़ी दूरी पर खड़ी
थी और कुछ दुकानदार गोली की आवाज़ सुनकर नींद से जाग गये थे और मौके पर पहुंच गये
थे। तिवारी जी सिर्फ़ एक कदम आगे बढ़े और जीप की हेडलाइट की रोशनी में दृश्य बिल्कुल
साफ़ हो गया।
सामने
एक युवक की लाश पड़ी थी।
रिंकू ने गुस्से भरे स्वर में कहा और दूर पार्क में कॉलोनी के बच्चों को क्रिकेट खेलता देखने लगा जो क्रिकेट के साथ-साथ आसपास के छतों पर ताकाझांकी भी कर रहे थे और उन्हें कॉलोनी की जवान होती लड़कियों का अपूर्व समर्थन हासिल था।
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