जनराह की आज पहली वर्षगांठ है. गत साल आज ही के दिन गांधी जयंती पर विमल चंद्र पाण्डेय के
उपन्यास अंश "नादिर शाह के जूते" से इस ब्लाग की शुरूआत हुई थी.
यह उपन्यास दस किश्तों तक यहां प्रकाशित हुआ.  हमें इस बात की खुशी है कि यह
उपन्यास अब नए नाम "भले दिनों की बात थी" से आधार प्रकाशन से आ रहा
है. विमल के लेखन की सबसे खास प्रवृत्ति उनकी विविधता है. यद्यपि विमल के यहां
व्यंग्य बहुत सधा हुआ और सूक्ष्म तरीके से आता है लेकिन आज यहां दो ताज़ी कहानियां
प्रस्तुत करते हुए लग रहा हैं कि विमल फ़ुल फ्लेज में पहली बार व्यंग्य को अपना रहे
हैं. हमारे लिए यह दोहरी खुशी कि बात है कि जनराह की पहली वर्षगांठ पर हम विमल की
दो व्यंग्य कहानियां प्रस्तुत कर रहे हैं. 
  
नन्हा सा सुख
युवा लेखक परेशान था। यह उसका अपना शहर था जहां पांच दिवसीय नाट्य समारोह
में वह लगातार तीसरी शाम आया था। उसके साथ उसका वह बचपन का दोस्त था जो नाटकों से
बहुत प्यार करता था और एक अध्यापक था। लेखक हिंदी में लिखता था इसलिये पेट पालने
के लिये पास के ही शहर में मौसम विभाग में काम करता था। उस शहर का मौसम अक्सर
नियमशुदा तरीके से बदला करता था इसलिये उसके और उसके विभाग के पास करने को कुछ खास
काम नहीं हुआ करता था। उसका दोस्त एक इण्टर कॉलेज में हिंदी का अध्यापक था और
हिंदी की किताबें सिर्फ उतनी देर ही हाथ में लेता था जितनी देर उसे कक्षा में लेना
मजबूरी थी। लेखक हिंदी में लिखता था और उसका कहना था कि वह लेखन पैसे के लिये नहीं
करता बल्कि इसे वह समाज की भलाई के लिये करता है। वह जिस गति से लिखता जा रहा था
उससे कहीं अधिक गति से समाज की हालत बिगड़ती जा रही थी जिसे देखकर उसका दोस्त उसने
लेखन को कुछ खास भाव नहीं देता था। लेखन के दस सालों में तीन किताबें प्रकाशित हो
चुकी थीं और उसे दो-तीन पुरस्कार भी मिल चुके थे। पुरस्कारों को ग्रहण करने के बाद
उसने कहा था कि पुरस्कारों की राजनीति में उसका कोई विश्वास नहीं है और वह सिर्फ
अपने पाठकों की संतुष्टि के लिये लिखा करता है। पाठकों के नाम पर उसे अपनी किताबों
के लोकार्पण में ज़रूर दस बीस ऐसे लोग मिल जाया करते थे जिनसे वह पहली बार मिला
होता था और वे उसे शुरू से अंत तक पढ़ चुके होते थे। उन पाठकों की बदौलत वह खुद को
सेलेब्रिटी मानने की गुस्ताखी अक्सर कर बैठता था। जिस शहर में वह नौकरी करता था
वहां उसकी सरकारी नौकरी और उसका लेखक मिल कर उसकी एक मुकम्मल छवि बनाते थे और शहर
के बुद्धिजीवियों में उसे खासी पहचान हासिल थी। अपने शहर वह सप्ताहांत में आया
करता था और यहां के बुद्धिजीवियों से यह सोचकर नहीं मिलता था कि अब वह इतना बड़ा
लेखक हो चुका है कि खुद जाकर किसी से मिलने की पहल करना उसके लिये ठीक काम नहीं
है।
बीच का रास्ता
युवा लेखक जब प्रकाशक के यहां पहुंचा तो प्रकाशक दो-तीन बड़े सरकारी
अधिकारियों से घिरा हुआ था जो अपनी किताबें छपवाने के लिये उसके पास आये थे। लेखक
को आधे घण्टे इंतज़ार करना पड़ा। इस प्रकाशक से उसे उसके एक मित्र और वरिष्ठ लेखक
ने मिलवाया था जो उसे किसी गैर-साहित्यिक कारण से पसंद करते थे। लेखक की कहानियां
देश की कई ऐसी पत्रिकाओं में छप चुकी थीं जो खुद को प्रतिष्ठित बताती थीं। आधे
घण्टे के इंतज़ार के बाद लेखक को भीतर बुलाया गया।
विमल चंद्र पाण्डेय से यहां संपर्क किया जा सकता है -  https://www.facebook.com/thesilentjunoon
vimalpandey1981@gmail.com
+91 9820813904
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