Tuesday, January 13, 2015

अशक्त आत्मस्वीकृतियाँ


विमल की कविताओं में समकाल के स्केच बहुतेरे मिलते हैं.  इन स्केचों का आयाम  समय के बहु कोणों से टकराते हुए ज़िंदगी की तल्ख सच्चाईयों में अपनी बुनावट करते हैं. यहीं वजह है कि विमल की कविताएँ अपने समकाल के यथार्थ से जब परिचित कराती हैं तो लगता है कि वे सिर्फ़ परिचय ही नहीं कराती, एक इतिहास सृजित करती हैं. विमल यह इतिहास भविष्य के लिए नहीं वर्तमान के लिए लिखते हैं. यहाँ ये कहना अजीब लगता है लेकिन विमल की संवेदानाएँ यथार्थ और निज से इतनी भिड़ती है कि सुबह और शाम के बीच सैकड़ों साल का अंतर दिखने लगता है. इसलिए विमल के स्केच अपने कहन में समय की कुरूपताओं का जितना बयान करे, जीवन की तलाश और उसकी प्यास को पाने की चाह  से उनमें एक अलग तेवर नज़र आता है और विमल इन्हीं खासियतों से अपने पास ठहरा लेते हैं. प्रस्तुत है विमल की नई लम्बी कविता  "अशक्त आत्मस्वीकृतियाँ". आशा है आप अपनी राय से अवगत कराएंगे. 




अशक्त आत्मस्वीकृतियाँ

सड़कों पर घमासान है
मन में ट्रैफिक जाम
बहुत सारे काम हैं
बिना रोज़गार व्यस्त हूं
कहने को मस्त हूं

ÛÛ

कंकड़ों से बचने के लिये पहनता हूं जूते
ठंडी हवाओं से बचाता हूं खुद को शाल ओढ़कर
मच्छरों से बचने के लिये लगाता हूं मच्छरदानी
दुखों से बचने के लिये नहीं खोज पाया कोई कवच अब तक
जिसके झूठे आश्वासन लगातार देता आ रहा हूं पत्नी और बच्चों को
मैं फूटने के कगार पर पहुंचे घाव से इस समय में
उस घाव के भीतर की पीब हूं
स्वाद कलिकाओं के मरने के बाद
आग उगलती हुयी जीभ हूं

ÛÛ

हर इच्छा को रोक रहा हूं एक रेशमी दिन के लिये
नहीं पता उसका अस्तित्व है या नहीं
पर उस दिन बिना किसी चिंता के खर्च कर सकूंगा
बिना किसी बहाने के ख़ुश हो सकूंगा
बेटी के लिये ख़रीद सकूंगा मनचाहे शौक
अभी तो उसकी इच्छाएं उसी अनिश्चित दिन के लिये टाल रहा हूं
जीजिविषा को मुफ़लिसी की चलनी से चाल रहा हूं

ÛÛ

महीने के आखिरी दिनों में उधार ले रहा हूं
शुरूआती दिनों में चुका रहा हूं ताकि फिर से मांग सकूं
इन दोनों के बीच मैं एक अनुशासित कर्ज़दार
उम्मीदों का सरौता ले भीगी सुपारी से दिन काट रहा हूं
समंदर सी प्यास है और ओस चाट रहा हूं
ÛÛ

कोई किताबें लिखने में व्यस्त है
कोई उन्हें न पढ़ कर
कोई बना रहा है उपलब्धियों के पहाड़
कोई उन्हें न चढ़ कर
कोई फोन पर लगातार लोन देने को व्यग्र
किताबें, पुरस्कार, लोकार्पण, रचनावलियां, समग्र
मैं एक लालची समय का गुमनाम लेखक
पैंतीस की उम्र में पैंसठ सा अशक्त हूं
मैं एनीमिया के दिनों में अपनी शिराओं में दौड़ता हुआ रक्त हूं

ÛÛ

पूरब से चल रही है हवा
मेरे जोड़ों में दर्द वृद्धों सा
शरीर कमज़ोर है मगर रीढ़ की हड्डी सीधी है बिना किसी प्रयास
इस बात से हर्ष होता है अनायास
इस समझौतापूर्ण समय का जहां दिन का रात से और चुप्पी का बात से समझौता है
मैं एक भीषण प्रतिवाद हूं
कवियों में अपवाद हूं

ÛÛ

कब्ज़ की समस्या विकराल है देश में
घृणा आ रही है वैरागी वेष में
मैं नास्तिक होकर महसूस रहा हूं नदियों पहाड़ों और चहचहाती चिडि़यों का सौंदर्य
कोई आस्तिक लगातार उगल रहा है नफ़रत का ज़हर
उसकी भंगिमाओं से आभास हो रहा है भयानक कब्ज़ का
देश की डूबती नब्ज़ का
वह धीरे-धीरे मनुष्य से सूखे मल में परिवर्तित हो रहा है
पेट एक बार पूरी तरह साफ हो जाये, सबसे बड़ी हसरत है
देश को एनीमा की सख्त ज़रूरत है

ÛÛ

मैंने घर बनवायेगाडि़यां खरीदीं
देह को सजाया दुनिया के सबसे महंगे वस्त्रों से
कंधों को सुसज्जित किया आग्नेय अस्त्रों से
व्यस्त रहा
अपने ही वैभव पर आसक्त रहा
मैंने जीवन के खेत में स्वयं का एक बिजूका खड़ा किया
खुद निकल पड़ा अनश्चित यात्राओं पर
लौटा तो बिजूका मेरी पत्नी से सहवास कर रहा था
उसने मुझे देखते ही बत्तियां बुझा दीं
जिन भी रास्तों पर चला उनका गंतव्य अस्पष्ट था
इस धोखेबाज समय में
जीवन को किसी भी तरह से जीना कष्ट था

ÛÛ

सब बंधे थे नियमों से
इतने ज़्यादा कि मैं नियम तोड़ नहीं लगा सकता था किसी को रंग
खुश होने के लिये एक अदद त्योहार की ज़रूरत थी
प्रेम करने के लिये एक खास दिन की
मुझे उन दिनों में न प्रेम करने की इच्छा हुई न पटाके छुड़ाने की
सब गले मिल रहे थे और कर रहे थे प्रकाश
रंगों से जब धुल रही थी दसों दिशाएं
मैं अंधेरे में बैठा अपनी आत्मा पर लगे मैल छुड़ा रहा था
मुझे बाहर निराशावादी कहा गया
घर में फसादी पहले से कहा ही जाता था

ÛÛ

जब मैंने जाना कि जीवन सबसे मूल्यवान चीज़ है
और इसकी सार्थकता इसे एकमात्र समझते हुये जीने में हैं
मैं भागता हुआ सबके पास एक ही बात कहने गया
वही बात जो इतनी ज़रूरी है कि बिना किसी तर्क
कविता में बिल्कुल एक ही तरह लगातार दो बार कही जा सकती है
जीवन सबसे मूल्यवान चीज़ है    
जीवन सबसे मूल्यवान चीज़ है
नौकरी से ज़्यादा, द्रव्य से ज़्यादा, द्रव्यमान से ज़्यादा
देश से ज़्यादा, धर्म से ज़्यादा, भगवान से ज़्यादा
आश्चर्य मुझे इस बात का नहीं कि लोग मेरी बात सुनते नहीं थे
आश्चर्य यह कि मेरी बात सुन कर आंखें झपकाते वह कहते
“यह बात तो हम जानते ही हैं”

ÛÛ

एक निर्दयी युद्धक्षेत्र में लेकर पुराने पड़ चुके हथियार उतरा हूं
आत्मविश्वास ऐसा जैसे पहले भी कई बार उतरा हूं
जीतने की जि़द है मेरी और आत्मसमर्पण में विश्वास नहीं करता
नये और अब नैतिक बन चुके हथियारों को न थामने की प्रतिज्ञा तो नहीं पर इरादा है
उस जीत तक के सफ़र में हंसता हुआ सारे संघर्ष जी रहा हूं
किस्मत को नहीं मानता पर उस पर थिगलियां सी रहा हूं
रोज़ कुंआं खोद रहा हूं और पानी पी रहा हूं

ÛÛ

प्रेम के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा थी मुद्राएं
मुद्राएं कमाने की दौड़ में प्रेम कहीं पीछे छूट जाता था
दोनों को संभालने में उम्र का संतुलन गड़बड़ा जाता था
एक किशोर अचानक खुद को पैंतीस का पाता था और हड़बड़ा जाता था
समय हमेशा से 24 घंटो के मात्रक में चलता था
रात को इसमें से कुछ कम घंटे मिले थे लेकिन उसमें गाढ़ापन ज़्यादा था
रात दिन धरती आसमान समुद्र आम चुम्बन
कई असबाब बिना किसी अविष्कार की जद्दोजहद के हमें यूं ही मिल गये थे
सिर्फ़ एक कलम आंगन में रोप देने पर एक सुबह गुलाब के जखीरे खिल गये थे
आती जाती सांसों पर कोई ध्यान नहीं देता था जैसे यह खैरात में मिली चीज़ हो
कुछ इसे उधार में मांग कर लाये गये जीवन की तरह
जी जाते थे बिना कोशिश बिना मोह
कुछ इससे इतना प्रेम करते थे कि मर जाते थे

ÛÛ

“दुनिया के तेल पर अमेरिका की नज़र है”
दुनिया के प्रेम पर जाने किसकी
भयावह यह नहीं कि प्रेम के नाम पर उसकी परछाइयां ही नज़र आ रही हैं
भयावह यह है कि हम परछाइयों के साथ जीने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं

ÛÛ

हम लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं
यानि अपने वक्त की सटीक पुकार हैं
मगर हमारी कलमों से इधर बहुत ज़्यादा घास पैदा हो रही है
नस्लें बहुत खुश पैदा हो रही हैं   
या फिर बहुत उदास पैदा हो रही हैं


-विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लॉट नं0 130-131
मिसिरपुरा, लहरतारा
वाराणसी -221002 (उ0 प्र0)
फोन - 9820813904

ईमेल आईडी – vimalpandey1981@gmail.com

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।सार्थक और जीवंत कवितायेँ मन में उतरती हुई।आज का दिन पूरा हुआ इन्हें पढ़कर।
    अनुप्रिया

    ReplyDelete
  2. बड़ी रचनाओं और ज़रूरी रचना में बस काल का फर्क होता है। Vimal जी की कविताएं, सिर्फ कविताएं ही क्यों कहानी भी, हमारे समय की बड़ी रचना है या नहीं यह तो आने वाला समय बताएगा। जब इन रचनाओं को समकालीनता की कसौटी पर कसा और परखा जाएगा। लेकिन, बिना शक यह कहा जा सकता है कि विमल हर उस ज़रूरी बात को कोट कर रहे हैं जिससे हमारे समय की जिंदा क़ौमें प्रभावित हैं। सिधी-सादी पंक्तियों में रोज़मर्रा के बिंबों का सरल प्रयोग इन कविताओं को विराट मध्यम वर्ग की जन कविता बनाता है। “दुखों से बचने के लिये नहीं खोज पाया कोई कवच अब तक/ जिसके झूठे आश्वासन लगातार देता आ रहा हूं पत्नी और बच्चों को” । एक कवच की तलाश, और छोटी छोटी ख्वाहिशें। ‘रेशमी दिनों की ख़्वाहिशों में’ लिपटा एक ‘एनीमिक’। दुष्यंत कुमार के जमाने से हम काफी आगे निकल चुके हैं और अब भारत की तस्वीर यही है। “महीने के आखिरी दिनों में उधार ले रहा हूं/ शुरूआती दिनों में चुका रहा हूं ताकि फिर से मांग सकूं / इन दोनों के बीच मैं एक अनुशासित कर्ज़दार/ उम्मीदों का सरौता ले भीगी सुपारी से दिन काट रहा हूं/ समंदर सी प्यास है और ओस चाट रहा हूं’। विकास-विकास के नारों के बीच एक चीर याचक है, जिसकी ख्वाहिशें हर दम कुलाचें मार रही हैं और हर छूटती सांस के साथ वह उन ख़्वाहिशों को किसी धनतेरस, किसी ईद, किसी क्रिसमस के लिए मुल्तवी कर रहा है।
    ‘इस समझौतापूर्ण समय का जहां दिन का रात से और चुप्पी का बात से समझौता है/ मैं एक भीषण प्रतिवाद हूं / कवियों में अपवाद हूं’। हबीब जालिब की मशहूर नज़्म है “दस्तूर” जिसमें वो कहते हैं : ‘ऐसे दस्तूर को, सुबह-ए-बेनूर को, मैं नहीं मानता, मैं नहीं जनता’। समझौते का जो प्रतिवाद हबीब जालिब का है, वही प्रतिवाद विमल भी अपनी कविताओं में, अपने लहजे में कर रहे हैं। निर्मल वर्मा ने अपने लेख ‘अंधेरे में एक चीख’ में लिखा है “…. और कलात्मक सौंदर्य? हमारे समय के सब से सुंदर और कलात्मक लैंपशेड हैं, जिन्हें यहूदियों की खाल से बनाया गया है। उन्हें देख कर कौन एस्थीट आह्लादित नहीं होगा?
    यह टोटल टेरर की स्थिति है… ऐसी स्थिति में अगर नई कहानी कुछ हो सकती है तो सिर्फ – अंधेरे में एक चीख! मदद मांगने के लिए नहीं- बल्कि मदद की हर संभावना को, हर गिलगिले समझौते को झुठलाने के लिए। अपने को पूर्ण रूप से इस टेरर से संपृक्त कर पाना- यहाँ से लेखक का कामिटमेंट आरंभ होता है”।
    ‘मैंने जीवन के खेत में स्वयं का एक बिजूका खड़ा किया’ निर्मल जिस ‘टोटल टेरर’ की बात कर रहे हैं विमल इस और इस तरह की कई पंक्तियों में इस ‘टोटल टेरर’ को हमारे सामने खड़ा कर देते हैं।
    ‘“दुनिया के तेल पर अमेरिका की नज़र है”/ दुनिया के प्रेम पर जाने किसकी/ भयावह यह नहीं कि प्रेम के नाम पर उसकी परछाइयां ही नज़र आ रही हैं/ भयावह यह है कि हम परछाइयों के साथ जीने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं’। कोई याचना कोई ख़्वाहिश नहीं है। बस स्थिति निर्मम वर्णन है। शुक्रिया विमल भाई, इतनी सहजता से हमारी बात कहने के लिए। शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया।

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छा लगा पढ़कर. आज के जीवन की विषमताओं पर सटीक प्रहार हैं .

    ReplyDelete
  4. Really feel nice After reading this

    ReplyDelete