Thursday, August 1, 2013

अमित उपमन्यु की कविताएं



अमित की कविताओं में प्रकृति का आना सिर्फ़ सौंदर्य पर आश्रित नहीं हैं, इनकी कविताओं में विज्ञान के निष्कर्ष और उससे सामाजिक अंत:क्रिया से उपजता भाव बोध हैं, जहाँ आदमी खुद की तलाश में एक जगह बनाता हैं. इनकी कविताएं अनुनाद, असुविधा, सिताब दियारा सहित कई ब्लाग और कुछेक पत्रिकाओं में साया हुई हैं. इंजीनियरिंग में स्नातक अमित कविताओं के अलावा गीत संगीत के लिए भी काम करते हैं. आजकल मुंबई में रहकर एक क्रिएटिव स्कूल में पढ़ाते हैं. जनराह पर हम उनका स्वागत करते हैं.

   




धूप का धर्म

ओस की बूँद सी झर जाती है रात सुबह की घास पर

चिड़ियों में चहचहाने लगता है भोर का पवित्र रंग

रात की सारी खुशबुएँ घुल जाती हैं सिरहाने पड़े बालों में

बिस्तर छोड़ देते हैं उनींदे सपने मेरी आँख खुलने से पहले

सलवटों में उलझा छोड़ देते हैं प्रेम

खिड़की में बैठी रातरानी पहनकर आती है धूप की एक लकीर

चूमती है मेरे पैरों को अपनी गर्म साँसों से कुछ पल

फिर मुस्कुराती, समा जाती है वापस सलवटों में

होंठों पर जमी पपड़ियाँ ओस का दस्तखत हैं प्रेम के संविधान पर

रातरानी की देह पर इठला रहा है नदियों का संगीत

मैं महसूसता हूँ फ़िज़ा में लौटती खुशबुएँ

और अपनी बाँहों में लौटती धूप का धर्म


दो दुनियाँ

तपती धूप में खड़ा बीचोंबीच विशाल भ्रमस्वर्ण साम्राज्य के

देखता रहा बदलते स्थान रेत के टीलों को लगातार;

सूखी नारकीय लपटों के बीच बिंधे

ललचाते  रहे मृगमरीचिकाओं के रंगीन चित्र मेरी श्याम-श्वेत प्यास को

इच्छाएं करती रहीं दोलन वासना और वैराग्य के बीच

खोजता रहा लड़खड़ाता, गूंजती हवाओं  के मध्य

नींद के नीचे छुप सोती अपनी जागृति को टीले-टीले.

फूट पड़े तभी अकस्मात पिरामिडों की चोटियों से

हज़ारों सालों से कैद नींद के सोते

विचारधाराओं के भग्नावशेषों में बाकी था बस मृतसागर सा विवेक

दौड़ते जाते निर्भय, असंख्य घोड़ों से सजे महारथ जिसके ऊपर चारों दिशाओं को

अपनी-अपनी ध्वजाओं और राज चिह्नों से सजे

अकेला छोड़ केन्द्र में ऊर्ध्वाधर खड़ी पीली नदी को

जो अब हो चुकी है पूरी पृथ्वी का शोक.

ऐक्य सदा से ही सबसे महान भ्रम है

गर्भ में रक्तपिपासु जलपरियां छिपाए बैठे रुमानियत के फिरोजी समंदर सा

यहाँ तो हमेशा से ही घूर्णन करती रही हैं दो सहोदर दुनियाँ

विपरीत दिशाओं में

और एक में एक
                 प्रश्नों के अर्थ पर

  तुम अपना अर्थ बूँद-बूँद गिराना / धरती पर
 धारा तो खाली कर देती / क्षण भर
 मेरा आधा अर्थ है / मिट्टी में
                                   आधा किसी बादल के / अंदर
वो बरसेगा / सावन-भादों
                                      
                                          और फूटेगा

    फूल-पत्ती, अंगूर, सेव, अनार में
                                     रंग, महक, रस, शिल्प में
    और लेगा नया अर्थ / रक्त बन कहीं
    कहीं तय करेगा सागर की दूरी
     जहाँ और भी अर्थ आते होंगे / और फिर
     वे सब मिल रचेंगे एक नया अर्थ
                                      पर प्रश्न / रहते हैं शाश्वत
                                           रहेंगे शाश्वत 
                                               बस
                                         बदलते रहेंगे उत्तर


4 comments:

  1. amit ko padhna achcha lagta hai. hamesha ki trah sundar kavitaen. in kavitaon mein gady sangeet ki trah aata hai.

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  2. विचारधाराओं के भग्नावशेषों में बाकी था बस मृतसागर सा विवेक .......
    सुन्दर और अर्थ भरे बिम्बों से कही गयी सार्थक बात !...

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  3. Sesh Bhai Jan rah ki rah ka ham rahi hame bhi bana lo

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