Wednesday, July 3, 2013

दीपाली सांगवान की कहानी : पेंडुलम

दीपाली ने जिस तरह से अपने रचनाकर्म को गंभीरता से लिया हैं, आने वाले समय में हम उनकी तरफ न सिर्फ़ उम्मीद से देख सकते हैं, बल्कि उनका सार्थक हस्तक्षेप भी देखेंगे. इस आशा के साथ प्रस्तुत है उनकी कहानी "पेंडुलम". दीपाली की यह कहानी जनपथ के ताजा अंक में भी प्रकाशित हैं. 

पेंडुलम 


                         
  
       


    भूल

‘‘ये क्या किया नरेन, भूतनी लग रही हूँ मैं’’, उसने तुनक कर मुझसे कहा था उस तस्वीर को देख कर। मुझे अचानक याद आया कि उस तस्वीर में कैमरे के फ्लैश की शैतानी से लाल चमकती उसकी दोनों आँखों की पुतलियों को फोटोशॉप से काला करते हुए मैं यूँ ही उठकर चला आया था, कंप्यूटर बंद किये बगैर। और तो और वह तस्वीर अब तक खुली है, डेस्कटॉप के साथ-साथ मेरे ज़हन में। मैं चौंककर उठा.. नहीं.. कंडक्टर ने मुझे उठाया। ओ भैया, सफर खतम हुआ.. कहाँ जाओगे?

निजामुद्दीन आ पहुँचा था। आगे बस को नहीं जाना था। मैं उतर गया। सपना देख रहा था ऐसा नहीं था। मैं सच में कम्प्यूटर ऑन ही छोड़ आया था और तस्वीर भी, वैसे ही। इसी तस्वीर को मिन्नतों से मांग कर लिया था मैंने उस से, ऐसा नहीं था कि अगर मैं न माँगता तो वो मुझे यह और इसके साथ ली गई बाकी की तस्वीरें नहीं भेजती, उस पल कुछ ऐसा हुआ कि मैं खुद को रोक ही नहीं पाया, ऐसा लगा जैसे ये आखिरी पल है, फिर मैं दोबारा उसे कभी देख-सुन नहीं पाउँगा।

घडी में छह बज चुके थे। हल्का केसरी रंग आकाश के नीलेपन को धकेल कर भगा रहा था। मुलायम ठंडी हवा चलने लगी थी। और कुछ देर में सूरज सर चढ जायेगा सोच कर मैं लौट आया। दरवाज़ा खोलते ही सीलन भरे कमरे ने मुझे दुत्कार दिया। सांस अटकने लगी। इस पल मुझे शिद्दत से एहसास हुआ कि उसे भीतर कदम रखते ही क्यों इन्हेलर की ज़रूरत पड़ती थी। मुझे याद आता है पिछली बार उसने ऐसा नहीं किया। कब तक अटकी सांसों को थामे खड़ी रही होगी।

ह कहानी का अंत नहीं है, यह एक दुविधा की शुरुआत है। कभी कभी हमें जब दो चीज़ों में से एक को चुनना होता है तो मन में हमेशा यही बात रहती है कि काश! हमें दोनों ही मिल जाएँ। जैसे उसे जब चुनना पडा तो उस रोज उसने किसी एक पर ऊँगली रखने के बजाये हम दोनों को चुनना चाहा। यही थी उसकी दुविधा की शुरुआत। बेहतर होता कि वो हम दोनों में से एक को चुनती और अपने रास्ते आगे बढ़ जाती, लेकिन उसने हम दोनों को चाहने की भयंकर भूल से अपने लिए रास्ते खुद रोक लिए। ऐसा मेरा मानना है। ज़रूरी नहीं कि वो भी ऐसा ही मानती हो। जहाँ तक मैं जान पाया उसने अजय को चुना भी और मुझे भी खोना गवारा न किया। वो चाहती थी कि मैं हमेशा उसके साथ रहूँ, या कि वो हमेशा मेरे साथ रहे। दोस्त बनकर।

क्या कभी ऐसा हुआ है कि रिश्ते के चेहरे बार बार बदले जा सकते हों? क्या ये मुमकिन है कि हम पीछे छूट गए वक्त को हाथ पकड़ कर वापस ला सकें और उसे बदल कर जी पाएं। मैं भी चाहता था कि वो हमेशा मेरे साथ रहे, कम से कम उस पल मैंने दिल से चाहा था उसका साथ, हमेशा के लिए। लेकिन वैसे नहीं जैसे वो चाहती थी। मैं अब उस पड़ाव से वक्त की ही मानिंद आगे निकल आया था। अब वापस लौटना मेरे बस में नहीं था। शायद इसी लिए मैंने उस से कहा था कि आना जब मेरी बन कर आओ।।

वो मेरी हर बात को बिना कहे समझ जाती थी शायद मेरे कहने समझने या सोचने से भी पहले ही, वो आई थी। मेरी बन कर। जब तक मेरे साथ थी मेरी ही बनी रही। मैं ही नहीं समझ पाया। और जब मैं समझा तब वक्त मेरे हाथ से फिसल चुका था। यही वक्त था, सुबह के कोई सात बजे थे। मैं नींद में था।

इस से पहले रोज सुबह वो फोन कर के मुझे जगाया करती थी। चूँकि इतनी सुबह किसी को फोन करने पर माँ के हज़ार सवाल पूछने की आशंका होती थी, सो फोन ज़रूर करती थी, पर कान से फोन लगाये हुए सिर्फ सुन सकती थी मुझे, कहती कुछ भी नहीं थी। और उसकी इसी ख़ामोशी के साथ मैं सुबह का स्वागत करता था। मेरे लिए यह दिन कि सबसे बेहतरीन शुरुआत होती थी। जीवन के सबसे सुखद पल, जब उसका नाम सुबह सकारे मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर फ्लैश होता था। जलती बुझती स्क्रीन की रौशनी में उसका नाम जलता बुझता मेरी उनींदी आँखों की पलकों को सहलाता हुआ कहता था..... क्या कहता था? .....कुछ भी तो नहीं... उसने कभी कुछ कहा ही नहीं मुझे जागते हुए। मुझे उसकी आवाज़ नहीं ख़ामोशी जगाया करती थी।


एक रोज मैंने उस से पूछा था कि जब वो सुबह फोन करती है तो कुछ भी कहती क्यों नहीं, और अगर कह नहीं सकती कुछ तो फोन कैसे करती है, कोई देखता नहीं क्या। इस पर उसने बताया था कि वो चादर सर पर ओढ़ कर चुपके से मेरा नम्बर मिला लेती है। माँ जाग चुकी होती हैं, सो आवाज़ करने पर उन्हें पता चल जायेगा कि वो फोन पर है इसी लिए कुछ नहीं कहती।


उस रोज उसने फोन नहीं किया, सीधा चली आई। रात चल रही बहस को बीच में ही छोड़ मैं कॉल कट कर के सो गया था। एक बार भी नहीं सोचा कि उसने दोबारा फोन किया होगा। वो नहीं सोई, अल्लसुबह जल्दी उठ कर जाने क्या बहाना घर में बना कर चली आई। दरवाज़े पर दस्तक हुई तो नींद खुली। इतनी सुबह या तो मकान मालिक हो सकता है या उसका शैतान बेटा, सोच कर मैं बिना कमीज़ पहने ही दरवाज़ा खोलने चला गया। देखा तो सामने वो खड़ी थी।


सुधा तुम? मैंने पूछा। अंदर आने दो, बाहर कोई खड़ा है, मुझी को देख रहा है। उसने कहा। मैं समझ गया था कि उसे आते हुए मकान मालिक ने देखा होगा और अब वह सौ सवाल करेगा। खैर उस समय चिंता उस बात की नहीं थी। चिंता यह थी कि वो इतनी सुबह कैसे आई।


मैं नाराज़ था, रात की बात से ही, जैसे ही मुझे यह याद आया मेरे भीतर से उसके लिए चिंता का भाव जाता रहा। तुम क्यों आई हो, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा तुम्हारा आना। चली जाओ... नहीं रुको... मैं तुम्हे छोड़ आता हूँ, मैं हडबडा गया। घबराहट में खूँटी पर टंगी कमीज़ उतारते हुए मेरे हाथ से छूट कर कमीज़ ज़मीन पर गिर गई, ज़मीन पर हल्की रेत की परत जमी थी। कई दिन से मैंने कमरे में झाड़ू भी नहीं लगाई थी। मैंने झटपट कमीज़ को झाड दिया, धूल कमरे में फ़ैल गई। उसे धूल से अलर्जी थी। वो खांसने लगी। मुझे और भी घबराहट हुई। तुम ठीक हो न?, इन्हेलर लाई हो?
नहीं मैं ठीक हूँ।
पक्का ?
हाँ खांसते हुए उसने कहा। चलो फिर तुम्हे छोड़ आता हूँ। कह कर मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे बाहर ले आया।


रात गए उसने बताया था कि पिछले हफ्ते जो लोग उसे देखने आये थे, वे उसे पसंद कर गए हैं। जल्द ही उसके घर वाले लड़का देखने जायेंगे। कुछ रोज पहले जब यह बात उसने मुझे बताई थी कि उसे देखने कुछ लोग आने वाले हैं तो मैं मजाक में टाल गया था। सच कहूँ तो तब तक मैं उसके बारे में गंभीरता से सोच भी नहीं पाया था।



छह महीने के हमारे इस रिश्ते में प्रेम कितना गहरा हुआ है इस बात पर मैंने कभी गौर नहीं किया। मैं अब तक अपने सुखद संसार से बाहर झाँक भी न पाया था कि पिछली रात उसने कहा कि उसे मेरे संसार से अब बाहर जाना होगा। या तो मैं उसका हाथ थाम कर उसे रोक लूँ या कि उसे जाने दूँ। मैं बिना कुछ सोचे समझे बिगड गया था उस पर कि तुम खुद तो कहती हो कि प्रेम पर इच्छाओं की ऊँगली रख कर उसे मैला न करो, यह धूप सा निश्छल है, फिर क्यों इसे मैला कर रही हो, क्या तुम्हे इस बात की खुशी नहीं कि हम खुश हैं साथ में।
इसे साथ कह सकते हो, लेकिन इस तरह से आखिर कब तक साथ रह पाएंगे, एक न एक दिन तो हमें भविष्य के बारे में सोचना ही होगा न
हाँ, पर मैंने अभी तक सोचा ही नहीं इस बारे में। मैं यूँ ही खुश हूँ
लेकिन मेरे लिए अब ज़रूरी हो चुका है कि मैं कोई फैसला लूँ, मेरे पास वक्त नहीं है नरेन, तुम समझते क्यों नहीं
तो ले लो न फैसला, तुम क्या चाहती हो?
तुम्हारा साथ
मैं तो हूँ तुम्हारे साथ
तो फिर आके मेरे घरवालों से बात करो, इस से पहले कि देर हो जाये।
फिर वही बात, मैंने कहा न, कि अभी मैं तैयार नहीं हूँ
तो फिर ये बताओ कि तुम कब तैयार होगे? मैं कब तक इन्तज़ार करूँ
पता नहीं, मुमकिन है कि तुम वही हो जिसके साथ मैं पूरी जिंदगी बिताना चाहूँ, पर अब तक मैंने इस बारे में सोचा नहीं।
तो कब सोचोगे? कभी सोचोगे या नहीं?
पता नहीं
तो ये बता दो कि मैं क्या करूँ
जो तुम्हारे मन में आये। कह कर मैंने कॉल काट दिया था। और फोन बंद कर मैं सो गया था। उसी अधूरी बात को पूरा करने वो आई थी। पर मैंने कोई भी बात न कर, उसे ऑटो में बिठा घर भेज दिया, यह सोचे बिना कि वो कहाँ गयी होगी, क्या कह कर आई होगी।


                 साउथ एक्स पहुँच कर मैंने ऑटो छोड़ दिया, अभी साढ़े सात भी नहीं बजे थे और मेरे पास कोई ठिकाना नहीं था। घर से कह कर निकली थी कि इंटरव्यू है। इतनी जल्दी लौट कर जाऊं भी तो कैसे। मैं सब-वे के पास बस स्टैंड पर बैठ गई। लोगों की आवाजाही कायम थी। साउथ एक्स की एक अच्छी बात यह है कि यहाँ हमेशा चहल पहल रहती है। बस स्टैंड पर बैठी ज़रूर थी पर मुझे किसी का इंतज़ार नहीं था, अपना भी नहीं। मुझे कोई बस पकड़ कर आगे या पीछे कहीं नहीं जाना था। सामने कोई भी रास्ता नहीं था, नरेन के भरोसे मैं इतनी दूर चली आई, नहीं.. तिलक नगर से आश्रम की बात नहीं कर रही, बात कर रही हूँ अपनी जिंदगी की।। उसके भरोसे मैंने क्या कुछ नहीं सोच डाला, और अब अगर वो ही मुकर जायेगा तो मैं आगे क्या करुँगी। अब तक तो मैंने उसके बिना जीने का विचार भी नहीं किया है, इन छह महीनों में वो मेरे जीवन का अटूट हिस्सा बन गया है। यूँ तो नरेन पहले भी कई बार नाराज़ हुआ है। लेकिन इस तरह से उसने कभी नहीं किया। छोटी छोटी बातों में रूठ जाना उसकी आदत है, और उसकी इस आदत की आदत मैं डाल चुकी थी। उसे मनाने का सबसे अच्छा तरीका यही था, उसे मिल कर मनाना लेकिन इस दफा यह भी कारगर नहीं हुआ। पिछली बार भी जब यूँ ही बात करते-करते रूठ गया था तब मैं उसके ऑफिस चली गई थी। बिना मान मनोवल के मान भी गया था वह। परन्तु इस बार शायद वह बहुत नाराज़ है, मुझे धैर्य से काम लेना होगा। अपनी सोच में गुम ढाई घंटे तक मैं वहीँ बस स्टैंड पर बैठी रही। जब नरेन से पहली बार मिली थी, यही इसी सब-वे पर लेने आया था वह मुझे। यही समय था, कोई दस साढ़े दस बजे थे।


दस बज रहे हैं, मुझे उसके घर से आये दो घंटे से ज्यादा समय हुआ, उसने एक बार पूछा भी नहीं सुधा तुम कहाँ हो? जब नाराज़ होता है तो इस कदर कि एक पल में पराया कर देता है, लेकिन जब नाराज़ नहीं होता तो उस से ज्यादा प्यार भी कोई नहीं करता। मैंने उस पल यही सोचा था। और सोच कर मैं घर चली आई थी। मुझे उम्मीद थी कि आज नहीं तो कल वह मान जायेगा। और फिर सब कुछ ठीक हो जायेगा। लेकिन अंत में सब ठीक हो जाता है, और अगर सब सही तो यह अंत नहीं है।। वगैरह वगैरह ये बातें केवल कहानियों या फिल्मों में ही सही होती है, असल में जीवन में इनका कोई धरातल नहीं होता।
                  

कहानी के पीछे कहानी
      

               नौ अगस्त, मेरा 31वां जन्मदिन। और मेरे जन्मदिन के तोहफे में वह लौट आई थी। मैं इसे लौट आना ही कहूँगा। इसलिए नहीं की साल भर के बाद उसका सन्देश मुझ तक पहुँचा। यूँ साल भर बातचीत न करने से कोई जिंदगी से चला भी नहीं जाता। बल्कि इसलिए कि जब वह गई थी तो अपने पीछे सारी उमीदों को क़त्ल कर गई थी। यहाँ तक कि उनके अवशेष भी दफ़न कर गई थी। मेरे कई सन्देश उस तक घुटनों के बल पहुंचे थे। वे सन्देश जो उस तक पहुँचने से पहले।। बल्कि मुझसे छूटने से पहले अपाहिज हो जाते थे, उस तक रेंगते हुए भी पहुँचते थे तो मुझमें कहीं से कोई आस बंध जाये ऐसी दुआ पैदा हो जाती थी। पर इस साल भर में उसका कोई जवाब नहीं आया। और जब आया तो एक ख्वाहिश ने दिल में करवट ली और पहली सांस भरी। मैं इसे लौट आना ही कहूँगा।


                कहानियाँ जिंदगी की तरह होती है, धडकती हुई, सांसें लेती हुई।। वक्त अपनी रफ़्तार से गुजर जाता है, लेकिन कहानियाँ कभी नहीं गुज़रती, चाह कर भी नहीं.. कहानियाँ हमेशा जिंदा रहती हैं।। सांसें लेना मजबूरी हो या आदत, एक के बाद एक लयबद्ध चलती रहती है। कुछ लोंग बेशक जिंदगी से नफरत करें, खास बात यह है कि वही लोग जीवन से उतना ही प्रेम भी करते हैं जितना नफरत।


                वह निर्मल की कहानियों जैसी थी। संवेदनशील, भावनात्मक और सहज दिल में घर कर लेने वाली। जीवन से भरपूर। कुछ लोग जीवन को ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं जैसा वो उनकी झोली में आ गिरे। गो कि वो जीवन को इस तरह पहचानते और समझते है कि किसी खुशी और तकलीफ का उन पर असर ना हो। ऐसे शख्स को पत्थर दिल कहा जा सकता है तब जब कोई उन्हें जानता ना हो, उन्हें जानने और समझने के बाद कोई कह सकता है कि ऐसा शख्स भीतर से कितना दलदला है।


                 उन दिनों मैं एक अखबार में पत्रकार था। ख़बरों को तलाशना, तराशना और उन्हें तडका लगा कर चटखारे लायक बनाना मेरा पेशा था। शब्दों से खेलते हुए मैं कब कवि बना मुझे एहसास नहीं हुआ, और इन्हीं शब्दों के प्रेम ने मुझे इस पेशे को चुनने में खास भूमिका निभाई। मेरी मुलाकात उस से एक कविता गोष्ठी में हुई। मैं मानता हूँ कि अगर मैं कवि ना होता तो शायद मेरी उस से कभी मुलाकात ना होती। जिस तरह का एकाकी जीवन वह जीती थी। उसके दायरे में बिना कवि हुए मैं प्रवेश कभी नहीं कर पाता। मेरी कवितायेँ यहाँ पहली दफा.. उहुं.. पहली दफा नहीं.. पर हाँ, बहुत काम आई। संभावनाओं की तलाश में जहाँ मुझे उम्मीद दिखती थी वहाँ मैं अपनी कविताओं को हथियार बनाया करता था। यही कोशिश मैंने यहाँ भी की थी।


                 जहाँ तक याद पड़ता है सर्दियों के दिन थे। महीना याद नहीं। दिन भी याद नहीं। कुछ एक उर्दू के सो कॉल्ड सिरफिरे शायरों के बीच मैं खुद को दबा कुचला महसूस कर रहा था और अपनी इसी नर्वसनेस को छुपाने के लिए उनके बेकार के शेरों पर बेवजह दाद दिए जा रहा था। एन इसी वक्त दो लड़कियों ने प्रवेश किया। लगभग सबकी नज़र एक साथ उन पर उठी। इरशाद भाई शेर कहते कहते रुक गए। उनमें से एक को मैं जानता था, वह मनु थी। दूसरी को मैं जानना चाहता था, ऐसा बड़ी शिद्दत से मुझे महसूस हुआ। कमरा लगभग भरा हुआ था। जैसे तैसे जगह बनाकर वे दोनों विनीत के बगल में बैठ गईं। रिवाज़ के मुताबिक पवन ने उन दोनों की तरफ एक परचा पकड़ा दिया जिस पर अपना नाम और फोन नम्बर लिखना था। मनु, (पहली वाली) ने अपना नंबर लिख कर परचा उसकी और बढ़ाया तो उसने हाथ और आँखों के संयुक्त इशारे से रोक कर उसके कान में कुछ कहा और परचा वापस पवन तक पहुँच गया।


                   शायरी पर चर्चा शुरू हुई, सबकी अपनी अपनी राय थी, सब बता रहे थे कि शायरी उनकी नज़र में क्या है। अक्सर ऐसे वक्त पर जहाँ इस तरह से कोई सवाल पूछ कर सबकी उस पर राय पूछी जाती है तो मुझे बचपन में परीक्षा भवन की न चाहते हुए भी बेतरह याद आ जाती है, वह ऐसा वक्त था जिसे मैं कभी याद नहीं करना चाहता था। पास होऊ या फेल परीक्षा दे कर बाहर आते वक्त मेरी दोनों आँखों से गंगा जमुना बहती आती थी। मुझे परीक्षा से सख्त नफरत थी शुरू से ही। और इस तरह की किसी भी गोष्टी में जब इस तरह के सवाल उठते हैं तो मेरे भीतर सारे ख्याल चूहे बिल्ली की तरह कुश्ती करने लगते हैं, कभी कभी सोचता हूँ कुछ ऐसा कहूँ कि लोग मेरे दीवाने हो जाएँ, पर बद्किस्मती यह कि मैं जितना बड़ा जीनियस खुद को समझता हूँ दुनिया नहीं समझती। सो हुआ यह कि ख्यालों की इस धींगा मस्ती के बावजूद मैंने सोचा कि मैं कहूँगा कि मेरे लिए शायरी वो अल्फाज़ हैं जो सीधा मेरे दिल तक पहुंचे, मैं बहर, काफिया, रदीफ के चक्कर में न पड़ कर भावनाओं को प्रार्थमिकता देता हूँ। ऐसा कहने के पीछे मेरा स्वार्थ यह भी था कि मैं गज़ल के मामले में बहुत कच्चा था। सो अपनी कमजोरी छुपाने का इस से बेहतर तरीका नहीं था मेरे पास। लेकिन इस से पहले कि मैं यह बात कहता, ठीक यही शब्द एक मुलायम आवाज़ में मुझ तक पहुंचे और मेरी इतनी मशक्कत के बाद की हुई मेहनत पानी-पानी हो गई। उसने ठीक ठीक उन्ही शब्दों में वही बात कही जो अभी अभी मैं सोच रहा था। मैं हैरान। हैरान, इस बात पर कि मेरे मन की बात उसने कैसे पढ़ी। उफ्फ... इतनी शातिर कि जिसे जानती भी नहीं उसके मन की बात जान कर उसे चोरी कर बिना कुछ बदले अपने नाम का टैग लगा डाला उसने। ये भी क्या कम था कि लोग वाह- वाह किये जा रहे थे, यही बात अगर मैंने कही होती तो कोई वाह-वाह न करता, हाँ लेकिन यही बात एक लड़की ने कह दी तो, वाह सुधा जी क्या बात कही कहते नहीं अघा रहे थे।


                   गोष्ठी के बाद जलपान के लिए सब अलग थलग दो चार के छोटे छोटे झुण्ड बना कर बैठ गए, कुछ बाहर खड़े हो कर बात करने लगे, मैं भी बाहर चला आया। छज्जे पर खड़ा मैं सिगरेट के धुएँ से अलग अलग आकृतियाँ बना रहा था कि उसे मैंने सीढ़ियों से उतरते हुए देखा। तुरंत ही भीतर कमरे में देखा तो मनु भीतर ही बैठी विनीत और राज से गप्पे लगा रही थी। अच्छा मौका है सोच कर मैं फटाफट उसके पीछे सीढियां उतर गया। पर इस से पहले कि मैं उसे आवाज़ दे कर रोकता या कुछ कह ही पाता, उसे लेने कोई आया था जिसे देख कर मेरी आवाज़ यूँ ही गले में दब कर रह गई, उसे मैं जानता था। वह नरेन्द्र था। जमशेदपुर में हम दोनों एक ही एक ही कक्षा में साथ पढते थे। फिर अचानक वह अपने घरवालों के साथ कहीं चला गया। कुछ सालों बाद जब मैं दिल्ली आया तो एक पत्रिका में उसका इंटरव्यू पढ़ा। पता चला कि इन सालों वह कोलकाता में रहा और पिछले दो साल से दिल्ली में है। टाइम्स में नौकरी करता है। कॉलम वगैरह लिखता है। मैंने उसे फोन किया तो महसूस हुआ कि उसमें काफी अहम आ गया है। एक दो बार के बाद मैंने उसे संपर्क करने की कोशिश नहीं की। एक दो बार उस से मुलाकात हुई पर औपचारिक अभिवादन के सिवा कुछ नहीं। इस बात को भी कोई साल हो चुका। उन दोनों में से किसी ने मुझे पीछे आते नहीं देखा था। उन्हें आवाज़ दे कर रोकने का मन नहीं हुआ। मैं नरेन्द्र से मिलना नहीं चाहता था। मैं यह भी नहीं चाहता था कि उस से मेरा पहला परिचय नरेन्द्र कराये।


                   अपना परिचय उस से मैंने खुद ही कराया। अक्सर गोष्ठियों में जो नए लोग मिलते हैं उन्हें फेसबुक पर ढूँढ कर जान पहचान का सिलसिला आगे बढ़ाया करते थे हम लोग। मैंने उसे फेसबुक पर ढूँढ निकाला। नरेन्द्र के साथ उसे देख कर यह बात पुख्ता हो चुकी थी कि वह नरेन्द्र की दोस्त है, सो नरेन्द्र की मित्र सूची में ही वह मिल भी गई। लेकिन उस तक पहुंचना जितना आसान मैंने समझा था उतना था नहीं, पहला आवेदन अस्वीकार कर दिया गया। मैं ठहरा ढीठ। दोबारा रिक्वेस्ट भेजा। जिसे नज़र अंदाज़ कर दिया गया। दिन बीते। हफ्ते बीते। महीना होने को आया। मैं रोज सुबह शाम इंतज़ार कर थक गया तो मैंने उसे सन्देश भेजा। आपसे पवन के घर गोष्ठी में मुलाकात हुई थी, यदि मित्र निमंत्रण स्वीकार कर लें तो मुझे खुशी होगी। तिस पर उसने केवल निमंत्रण स्वीकार कर ऊपरी औपचारिकता निभा दी। फिर मुझे याद आया कि मेरा तुरुप का इक्का अब भी मेरा पास ही था। जिसे मैंने अब तक नहीं खोला था। मेरी कवितायेँ। धीरे धीरे मैंने अपने स्टेटस में अपनी कवितायेँ डालनी शुरू की। और हुआ वही जो होना था। उसे कवितायेँ पसंद आई। और यहाँ से शुरू हुआ पहचान का सिलसिला। फेसबुक वॉल से चैट। और चैट से उसका फोन नंबर मिला। ये सब भी इतना आसान नहीं था। अच्छी मशक्कत करनी पड़ी मुझे फोन नम्बर के लिए। खैर। अंत भला तो सब भला।
                        
यह क्या हुआ?

      

                  हम सबकी अपनी अपनी जिल्द होती है। जिसके बाहर हम कभी नहीं निकलते। कभी कभार बाहर झाँक भार लेते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था, उसके सामने मैं शायद ही कभी अपनी जिल्द से बाहर आया होऊं, फिर वह मुझे कैसे पढ़ पाई मैं नहीं जानता, मेरी जिल्द के भीतर वह कभी प्रवेश नहीं कर पाई प्रत्यक्ष तौर पर, हाँ लेकिन किसी भूले भटके पल में अगर वह अदृश्य रूप में मेरी जिल्द में समा गई हो तो मैं कह नहीं सकता।


                 मेरी पसंद-न पसंद, मैं कब किस बात पर नाराज़ हूँगा, किस बात से मान जाऊँगा, कब किस बात पर क्या बात कहूँगा, कैसे प्रतिक्रिया करूँगा। सब जान चुकी थी वो। उसने तसल्ली से मुझे पढ़ा था। जाना था और समझा था। मैंने उसे कभी मौका नहीं दिया कि वो मेरे इतने करीब आये। लेकिन वो आ गई थी। वो बस गई थी मेरे भीतर जिसका एहसास मुझे बहुत देर से हुआ।


                 उस रोज उसके जाने के बाद मैं फिर से अपने जीवन में व्यस्त हो गया। ऑफिस, दोस्त, कहानियाँ, किताबें और नाराज़गी। कुछ एक दिन तो नाराज़गी में गुजर गए। उसने कुछ फोन किये पर मैं अपनी अकड में था, कोई भी कॉल रिसीव नहीं किया। लेकिन आखिर कब तक नाराज़ हुआ जा सकता है। धीरे धीरे नाराज़गी जाती रही। और शुरू हुआ इंतज़ार। कि वो अपनी तरफ से हमेशा की तरह पहल करे और मनाये मुझे। कुछ रोज इंतज़ार भी किया। फिर नाराज़गी और बढ़ गई कि ऐसा भी क्या अहम कि मनाने भी न आए। दो महीने बीत गए। फिर एक शाम उकता कर मैंने खुद उसे फोन किया। हुआ वही जिसका अंदाज़ा था, उसने फोन रिसीव नहीं किया। आठ दस कॉल कर चुकने के बाद मैं सो गया। सुबह उठा तो उसका कोई जवाब नहीं था। न कोई कॉल न मैसेज। मैंने उसे फोन किया तो फोन ऑफ था। मुझे ऑफिस भी जाना था। सो मैंने सोचा कि दिन में बात करूँगा। तो क्या हुआ थोडा नाराज़ ही तो होगी। और फिर उसे मनाना कौन सी बड़ी बात है। सोच कर मैंने लंच में फिर फोन किया। किसी लड़के ने फोन उठाया। जो कि संभवत: उसका भाई होगा। मैंने पूछा, सुधा?” “वो तो अभी बीजी है, बताइए मैं मैसेज दे दूँगा। उसने कहा। बिजी? कहाँ? बहाव में मैंने पूछा। तो उसने बताया, आज सगाई है न उसकी, आप बोल कौन रहे हैं?


अच्छा मैं बाद में फोन करता हूँ, कह कर मैंने काल कट कर दिया और अपनी सीट पर वापस लौट आया। ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। सीट पर लौटा, तो देर तक कुछ कर न पाया। कुछ सोच न पाया, कह न पाया। कोई आधे घंटे बाद मेरी सीट पर रखा इंटरकॉम बज उठा। एडिटर साहब थे।
                                    

समझौता



                  खुशी और सुख दो अलग चीज़ें हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि जो इंसान सुखी हो वह खुश भी हो। और जो खुश हो वह सुखी भी। उसने अपने लिए सुख चुना था। उसकी आँखों में ताज़े ज़ख्म पर उभर आया पानी था। उसे आँसू कहना अपमान होगा। एक दर्द था जो बेइंतिहा उदास था। उसने सोचा वो खुद को कभी माफ नहीं कर पाएगी। खुद को माफ कर देना यूँ कोई खास बात नहीं थी। और ना करना उस से भी ज्यादा मामूली। खुद को माफ करने या ना करने से उसका जुर्म कम होने वाला नहीं था और ना ही कम होने वाला था उसका एहसास। अगर होता तो यह ज़ख्म ना होता जो उसने खुद को दिया था।। जो तमाम उम्र उसके साथ रहने वाला था। उसने पलक झपकी तो एक आँसू उसके कान तक लुढक कर पूरी शिद्दत से पसर गया। सुधा, तुम्हारा फोन है, भाभी ने आवाज़ दी। कौन है भाभी, जवाब नहीं आया। उसने आ कर रिसीवर उठाया। हेल्लो
कैसी हो सुधा अजय की आवाज़ थी।
मैं अच्छी हूँ, कहिये
माँ पूछ रही थी जोड़े का रंग कौन सा लें।
कोई भी, जो उन्हें पसंद आये
वो तुम्हारी पसंद जानना चाहती हैं
मुझे कोई रंग पसंद नहीं
क्या?
माँ, बुला रही हैं अजय जी, मैं फोन रखती हूँ, आप अपनी पसंद का ले लीजिए
ठीक है, हम लोंग कल जायेंगे, चाहो तो बता देना
जी, गुड नाईट
गुड नाईट
सगाई को मुश्किल से हफ्ता भी न हुआ था कि शादी की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। दो हफ्ते बाद शादी थी। सब कुछ इतनी बेचैनी से हो रहा था कि बैठ कर सोचने का किसी के पास वक्त नहीं था। और इस सब के बीच उसके भीतर कहीं कुछ थम गया था। वह कुछ क्या था वो समझ पाने में असमर्थ थी।


                   यह कुछ था उलझन जो उस रोज उसके भीतर जन्मी थी जब नरेन से बात हुई। सगाई की शाम, सब अपने आप में मग्न थे। सुधा का फोन जो कि सारा दिन चहल पहल में उसकी पहुँच से दूर रहा, जब उसके हाथ में आया तो उस पर नरेन की कॉल डिटेल देख कर उस से रहा न गया।
सुधा: फोन किया था
नरेन्द्र: कांग्रेट्स।।सुना आज तुम्हारी सगाई थी।
तुमने पी है क्या?
हाँ तो?? तुमसे मतलब
तुम ठीक हो न
ओ यू, गेट लोस्ट, आई बड़ी ठीक हो न
ओके बाय, टेक केयर
बाई
फोन कट जाने के बाद सुधा ने उसे एस एम् एस किया, please apna dhyaan rakho Take care जिसके बदले में नरेन्द्र ने पलट कर फोन किया। सुधा तुम सच में शादी कर रही हो?
हाँ, तो और मैं क्या करूँ
यार ऐसा मत करो, मैं कैसे रहूँगा तुम्हारे बिना
जैसे मैं रहूंगी
मैं नहीं रह पाउँगा
नरेन, संभालो खुद को
मुझे तुमसे मिलना है, कल
अब नहीं, अगर हम न ही मिलें तो बेहतर है
नहीं, प्लीज़ मुझे तुमसे मिलना है, देखो परसों मैं बनारस जा रहा हूँ, एक मीटिंग है, और भी कुछ काम हैं, पता नहीं कितने दिन लगेंगे, फिर कभी मिल भी पायें या नहीं। बस एक आखिरी बार, आ जाओ।
ठीक है।
प्लीज़ आ जाओ, बस एक दिन। फिर चाहे तुम पर मेरा अधिकार नहीं होगा। बस मुझे एक दिन दे दो।
ठीक है नरेन, अभी तुम सो जाओ, कल मिलते हैं।
थैंक्स।
गुड नाईट।
गुड नाईट।

            

                   आँखें दो फाँक खुली रही। इन्तज़ार करते हुए दो बज गए, नींद नहीं आई। उसने किताब खोल ली।। कुछ पल ठीक से पढ़ने के बाद अनायास शब्द गुथमुथ होने लगे, और धीरे धीरे वो केवल देख रहा था, उसकी आँखें पढ़ रही थी और मन कहीं और जा अटका था। ध्यान टूटा।। उसने फिर से पढ़ना शुरू किया। फिर से शब्द गुथमुथ होने लगे। नींद अब भी नहीं। घडी देखी चार बज गए थे। किताब बंद कर दी। एक टक दीवार की ओर देखता रहा, सवा चार बजे। दरवाज़े को ताला लगा वह बाहर निकल आया। आँगन खाली था। वह एक कमरे की देहलीज के साथ नीचे उतरती सीढ़ियों पर बैठ गया। धीरे धीरे अँधेरा छंटने लगा। फीकी मैली सी रौशनी फैलने लगी। उसने गेट का ताला खोला और सड़क पर उतर आया। कुछ दूर जाकर ही वापस लौट आया। शहर में लौटते ही उसे फिर से सुधा और उसकी यादों ने घेर लिया था। एक बार उसने ये भी सोचा कि शहर ही छोड़ जाये कम से कम ये दर्द तो मिटेगा, ये जलन तो जायेगी। लेकिन शहर को इतनी आसानी से छोड़ा भी नहीं जायेगा। कितना कुछ तो है यहाँ, उसके दोस्त, नौकरी, मीठी यादें जुडी हैं इस शहर से और फिर वो भी तो इसी शहर में है। वो आज भी कहीं कोई उम्मीद लिए बैठा है कि वो लौटेगी। वो एक न एक दिन ज़रूर लौटेगी। ये उम्मीदें क्यों नहीं टूटती। कुछ भी हो जाये दिल उम्मीद करना नहीं छोड़ता। आखिरी बार जब वो आई थी तो यह उम्मीद और भी मज़बूत हो गई थी। उसकी आँखों में उतर आये दर्द को उसने देखा था। उसके चेहरे की विवशता ने उसे और भी कमज़ोर बना दिया था। वही सब उसकी आँखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगा।


              उसने मूंगफली का पैकेट, जो आते वक्त ऑफिस के बाहर से खरीदा था, उसकी ओर सरका दिया था। ऐन इसी वक्त, उसे वो दिन याद आया था, जब वो उसके लिए करेले की सब्जी लेकर आई थी। और बदले में वह उसके लिए फल लाया था क्योंकि उसका व्रत था और वह अन्न नहीं खा सकती थी। उस एक पल के लिए उसने आँखें बड़ी कर आश्चर्य की मुद्रा में अपने दोनों हाथों से अपने होंठ ढक लिए थे। उस दिन से अब तक कितना कुछ बदल गया। वही सुधा थी। ठीक वैसे ही उसी जगह उसके सामने बैठी थी। पर एक अनचाही ठंडक दोनों के बीच पसरी हुई थी।


                  ठीक इसी वक्त वो भी उन्ही लम्हों में कहीं गुम थी, कि अचानक उसे याद आया कि जब वह उसके लिए फल लाया था तो उसे उस पल ये एहसास हुआ था कि ये अपनापन उसने आज तक नहीं पाया। किसी से भी नहीं। और उसने बढ़ कर उसके गालों को ठीक उसी तरह खींचा था जैसे लाड आने पर बच्चे के गाल खींचे जाते हैं, उस पल उसे उस पर लाड आया था... लेकिन इस पल उसे उस पर लाड नहीं आया, जो आया वह ऐसा एहसास था जिसे किसी भी भाषा में बाँधा नहीं जा सकता, व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह एक मिश्रित भाव था। जिसमें प्रेम, सुहानुभूति, अपराधबोध और न जाने क्या क्या शामिल था। उसने अपनी आँखों से बह आने को आतुर गर्म आँसू को जबरन रोका और मूंगफली तोड़ कर दाना मुँह में डाल लिया।


                     उस इकलौते दम तोड़ चुके आँसू ने नरेन को एक नयी उम्मीद दी थी, कि अगर वो थोडा सा और कोशिश करे तो सुधा लौट सकती है। यही सोच कर उसने सुधा को फोन भी लगाया था। पर कोई जवाब न मिलने पर, उसने एस एम् एस किया “aa jao na, is tarah na tum reh sakogi na main, tumhara to nahi jaanta, par main mar jaunga tumhare bina. Yakeen karo main tumhe bahut khush rakhunga, laut aao na"



                    आँखें बेतरह दुःख रही थी। रात ठीक से नींद नहीं आई। फोन देखा। दो एस एम् एस थे। अजय और नरेन। पहले नरेन का एस एम् एस देखा। जवाब देने के लिए रिप्लाई पर क्लिक किया। फिर डिस्कार्ड कर दिया। दूसरा एस एम् एस अजय का था। good morning princess’ सुबह सकारे उठते ही उसने जैसे नियम बना लिया था मुझे एस.एम्.एस. करने का। जिसे देखते ही मेरा मन सुबह सुबह उखड जाता था। प्रिंसेस।। हुह।। वह मुझसे प्रेम करने लगा था शायद। इसलिए मुझे नए नए नामों से नवाजने लगा था। और मैं।। मुझे चिढ होने लगी थी प्रेम तक की अनुभूति से। जब जब उसका प्रेम झलकाता कोई सन्देश आता, जी में आता फोन को जोर से ज़मीन पर पटक दूँ कि वह बिना सिसके ही दम तोड़ दे। उकता कर फोन बंद कर दिया।
                          

भ्रम

      

               जब हम सोचते हैं तो शुरू से अंत तक सोचते हैं, या शुरू से न भी सोचें, कहीं से भी कोई भी सोच का धागा उठा लें तो भी ऐसा कभी नहीं होता कि हम सोचते हुए किसी सुखद अंत पर आकार रुक जायें और खुश हो जायें, ऐसा भी नहीं कि किसी चुभने वाले ठहराव को ही अंत मान लें। हमें अंत तक जाना ही पड़ता है। और अंत कभी सुखद होता है कभी दुखद। सुख और दुःख इस बात पर निर्भर नहीं करते कि कैसे सोचा जाए, सुख और दुःख निर्भर करते हैं कि कहानी कहाँ आकार खत्म हुई है। उसकी कहानी खत्म नहीं हुई। उसे खुशी हुई कि कम से कम अब उसकी सोच को इस कहानी के दुखद अंत पर दम नहीं तोडना होगा। उसे आगे जाना है।


               वह हलके से उठा और आईने के सामने जाकर खड़ा हो गया। वह अपना चेहरा नहीं देख पाया। रौशनी उसके पीठ पीछे खड़ी थी। उसने पलट कर रौशनी को देखा। रौशनी उसकी आँखों में आ गई। पलट कर आइना देखने का मन न हुआ तो वह खिडकी पर आ गया। और सोचने लगा कि आज सूरज उसके लिए खुशखबरी की तरह उगा है। ऐसी खुशखबरी जिस पर एक बारगी विश्वास कर लेना कठिन है। कभी कभी हम दुःख की इतनी आदत डाल लेते हैं कि उसके आलिंगन में हमें अपनत्व का एहसास होने लगता है। ठीक इसी तरह जब वह लौटी तो उसे एक पल एहसास ही नहीं हुआ कि यह सब जो उसके साथ घटित हो रहा है सच है। और इसी लिए वह सीधा उठा और आईने में अपना चेहरा देखना चाहा। लेकिन कमबख्त धूप ने ऐसा होने नहीं दिया। तो उसे फिर से यही लगा कि वह कोई सपना देख रहा है।


                  सपने देखने का हक सबको है लेकिन उनके पूरे हो जाने की कामना करना गलत है, क्योंकि जब वे पूरे नहीं होते तो बहुत तकलीफ होती है। जिंदगी को जैसा हम सोचते हैं वह वैसी कभी नहीं होती। सुधा ने जिस जीवन की कल्पना की थी जिंदगी हमेशा उसके बिलकुल उलट ही चलती रही। उसके घर में साहित्यिक माहौल नहीं था, उसके लिखने का यह शौंक गोपनीय था। छुप छुपा कर रखी उसकी डायरी देखते हुए उसने सोचा कि अब इसका क्या किया जाए। उसका सपना था कि ऐसा को शख्स उसके जीवन में आये जो उसके इस शौंक को समझ पाए। और आया भी; परन्तु ज़रूरी तो नहीं कि वही हो जो हम चाहें। अजय को शायरी की समझ ही नहीं थी न ही ऐसी कोई रुचि। एक बैंकर से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है।


                   कुछ लोग एक भ्रम की तरह होते हैं अक्सर जब हम सोचते हैं कि वे कुछ सोच रहे हैं तो वे नहीं सोच रहे होते और जब हमें यह लगता है कि वे हमसे बात कर रहे हैं तो वे कहीं दूर किसी सोच में मग्न होते हैं। कभी कभी भ्रम में जीने का अपना ही एक मज़ा होता है। जब वे हमें नहीं सोच रहे होते तब भी हम यही सोचते हैं कि वे हमें सोच रहे हैं यह एहसास अपने आप में ही कितना सुखद है। जब छोटे भाई की शादी थी, मैंने कुछ साडियाँ पसंद करने के लिए सुधा को बुलाया था। शौपिंग यूँ एक बहाना था। मैं चाहता था कि उसके साथ कुछ अच्छा समय बिताऊ। आश्चर्य यह कि उसकी पसंद बहुत अच्छी थी। लेकिन मेरे घर वालों को उसकी पसंद समझ भी आएगी या नहीं मैं असमंजस में था। दरअसल उसकी पसंद भी उसकी ही तरह अलहदा थी। हल्के शीतल रंग उसे ज्यादा पसंद आये। जबकि मेरे घर में तो सब चटक रंग पहनने के आदी थे। उसे टोकना अच्छा तो नहीं लगा पर मजबूरी में मैंने उस से कहा। थोड़े चटक रंग देखिये। जैसे लाल या चटक पीला, हरा, नीला। इस तरह के रंग माई को ज्यादा पसंद हैं।
अरे हाँ।। माफ कीजिये। आखिर साडियाँ उन्ही के लिए तो हैं। कह कर वह तीखे रंग की साडियाँ देखने लगी।
आप बिहार से हैं। ब्लॉग पर उसने मेरा एक आलेख पढ़ा था।
हाँ, विशुद्ध बिहारी, मैंने गर्व से कहा था। एक समय था जब मैं दिल्ली नया नया आया था तो बड़े शहरों में खास कर दिल्ली-मुंबई जैसी जगहों पर लोग यह जानकार कि मैं बिहारी हूँ, अजीब नज़रों से मुझे देखते थे। लेकिन धीरे धीरे जैसे इस शहर ने मुझे यूँ अपनाया कि अब खुद को बिहारी कहलाना मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं किसी दूसरे राज्य में नहीं अपने ही घर में हूँ। मुझे अच्छा लगा यह जानकार कि वह मुझे जानना चाहती है। मुझमें रुचि लेती है।
अच्छा, नरेन भी बिहार से हैं, छपरा से। यह जान कर मेरे पाँव ज़मीन पर आ गए और मेरा गर्व ज़मीन पर औंधे मुँह आ गिरा। मैं जानता था नरेन छपरा से है। स्कूल में साथ ही तो पढ़े हैं हम दोनों। लेकिन यह बात वह नहीं जानती थी।
                    मैंने आसमानी रंग की कमीज़ अलमारी से निकाली और आईने के सामने उसे परखने लगा। हल्के रंग मुझे भी खास पसंद नहीं हैं; लेकिन उसे पसंद हैं, अरसे बाद आज उस से मिलने का मौका है तो मुझे अच्छा दिखना चाहिए। उम्मीदें बहुत मुश्किल से टूटती हैं। आशाएं क़त्ल करना इतना आसान नहीं होता। 

तो यही सही ..


               वक़्त जब ख़राब होता हैतो हर काम ख़राब होने लगता हैपूरे महीने में केवल दो कैंडीडेट अपोइन्ट हो पाए हैंचौबीस इंटरव्यू कराने के बावजूदसगाई की वजह से छुटियाँ लेनी पड़ी वो अलगमतलब इस दफा इन्सेन्टिव तो भूल ही जाओसैलरी भी पूरी हाथ में नहीं आने वालीऔर फ्रस्टेशन अलग। सुधा सर पकड़ कर बैठ गई। तभी चारू ने कन्धा थपथपाया, "दोस्तलंच टाइम होने वाला हैक्या मंगाना हैगोकुल को बुलाऊं?' सगाई के बाद जैसे ही सुधा ऑफिस आईसभी बधाई देने लगे। सगाई में किसी को भी इनवाईट नहीं किया था। ऑफिस पहुँचते ही बधाई के साथ साथ सभी को ट्रीट की दरकार थी। लंच के लिए बैठे तो अमित ने अपनी 'A' लिखी हुई कुर्सी खीची।। जिसे देख कर चारू ने फुसफुसाते हुए कहा, 'बस इसे साथ घर ले जाना बचा हैएक दिन ये भी हो ही जायेगा'। पूरे ऑफिस में एक अमित की कुर्सी को कोई भी पहचान सकता था। अपनी कुर्सी पर उसने मार्कर से 'A' बनाया हुआ था। ताकि कोई और अगर उसकी कुर्सी ले ले तो वह तुरंत पहचान ले। उसने अपनी कुर्सी को अवसाद भरी दृष्टि से देखा। 'कल मेरे बाद इस कुर्सी पर जाने कौन बैठेगा। क्या वो याद भी करेगा कि इस कुर्सी पर उस से पहले मैं बैठा करती थी। मैंने भी आज से पहले कभी नहीं सोचा कि मुझसे पहले इस कुर्सी पर अंजनी बैठा करता था या माया। मेरे आने पर मुझे यही खाली मिली तो मैंने अपना डेरा यहीं जमा लिया। दो एक दिन बाद फिर मैं छुट्टी पर चली जाउंगी, फिर शादी फिर जाने यहाँ आ भी पाऊं कि नहीं, कल को मेरी जगह कोई और आएगा और यह उसी की हो जाएगी। इंसान के साथ भी यही होता हैहम एक पल में किसी से जुड़े होते हैं तो उस के होते हैं। और जब हम किसी और से जुड़ जाते हैं तो दुसरे के हो जाते हैंपर क्या भावनाएं भी उसी को समर्पित हो जाती हैं। क्या हम सच में एक शख्स के पहलू से उठ कर दूसरे को समर्पित हो सकते हैंकल मेरे नाम के साथ भी A लग जायेगा। क्या मैं उस नाम के साथ जी पाऊँगी।'
                  

                   कुछ लोग जब उदास होते हैं तो कठोर हो जाते हैं और कुछ उदारवह उदासीनता के मौसम में अक्सर उदार हो जाया करती थी। शायद यही वजह थी कि उसने मनोज को मिलने बुला लिया था या फिर इसके पीछे भी उसकी कोई साजिश थी। एक शख्स जिस से हर पल नफरत की हो, उस से दोबारा मिलना कितना कठिन हो सकता है इसकी कोई परिभाषा नहीं। दो लोग एक दूसरे से चाहे कितना ही प्रेम करें या नफरत, दर्द सिर्फ तब बांटते हैं जब सामने वाला भी उनके जैसा हो। चाहे वे उस से नफरत ही क्यूँ न करें, उन्हें एक आस रहती है कि वह उनका दर्द समझ सकता हैं। सुबह ही माँ ने उस से कहा था कि वह ऑफिस जा कर अपना बचा काम निपटा ले फिर कल कंगन बंध जायेगा तो उसे शादी तक घर से बाहर नहीं जाना है। उसने अलमारी से अपनी डायरी निकाली। और कंप्यूटर खोल कर अपनी कवितायेँ डायरी में लिखने लगी। कवितायेँ लिखी जा चुकी तो गेम खेलने लगी।
                    

                     कभी कभी हार नसीब में लिखी होती है। कुछ एक चाल अन-डू कर फिर से खेलने लगी। कंप्यूटर गेम खेलना आसान है। किसी भी एक्शन को अन-डू कर सकते हैं। जिंदगी खेलना बहुत मुश्किल है। यहाँ हम अपने किसी भी एक्शन को अन-डू नहीं कर सकते। मुश्किल गेम आने पर रीलोड कर हम यह सोचते हैं कि हम जीत सकते हैं। लेकिन क्या जिंदगी में इंसान बदल कर हम जिंदगी को जीत सकते हैं? नहीं।। जीतने की ख्वाहिश में लोगों की अदला बदली ही हमारी हार का संकेत होती है। वह हार चुकी थी। गई रात नरेन्द्र के लगातार फोन आते रहे। किसी भी कॉल को रिसीव करने की हिम्मत जुटा नहीं पाई और आखिर में उसके एस.एम्.एस. को पढ़ कर वह हार मान बैठी। tumhare bina jeena jeena nhi lagta, har pal har baat mein tumhe yaad karta hun. laut aao na. hum yahan se chale jayenge, mere gaanv challenge. Wahan mera parivar hai, mere ghar wale tumhe bahut pyar karenge. Kal hi aa jao, main tumhari rah dekhunga. Aaogi na? वह अपने हाथ में पहनी सगाई की अंगूठी को अपनी हार के सुबूत की तरह कुछ देर देखने लगी। आखिर उसने निर्णय ले लिया। और मनोज को एस.एम्.एस. किया, baje central park miliye usi jagah


                      फोन वाईब्रेट हुआ तो मेरा ध्यान टूटा। सुधा का एस.एम्.एस.। था। तीन बजे। मैंने अचानक घडी की तरफ देखा। डेढ़ बज चुका था। सेन्ट्रल पार्क पहुँचने में घंटा भर लगेगा। मैं फटाफट से तैयार होकर घर से निकला। अजीब सी घबराहट हो रही थी। हाथ पाँव काँप रहे थे। हम जिसकी उम्मीद छोड़ देते हैं वो अचानक से मिल जाए तो शायद ऐसा ही लगता होगा। सेन्ट्रल पार्क पहुँच कर मैं ठीक उसी जगह पहुंचा जहाँ से हम बिछड़े थे। दोपहर का वक्त था और पार्क में बहुत कम लोग थे, इक्का दुक्का लोग कहीं कहीं किसी पेड की छाया में बैठे थे। मैं वहीँ उसी बेंच पर बैठ गया जहाँ से हमारे रास्ते बंट गए थे और जहाँ उसके जाने के बाद कई बार मैं इस उम्मीद में आकार घंटो बैठा करता था कि कभी भूले भटके कहीं से वो आ ही जाए। ठीक एक साल कल ही के दिन मेरे जन्मदिन पर आखिर बार मिले थे हम। इसी जगह पर, वह छिले हुए मूंगफली के दानों के साथ लिम्का की चुस्कियां ले रही थी। उसके चेहरे पर हवा की मेहरबानी से लटें खेल रही थी। हल्की धूप खिली थी शाम के कोई पांच बजे थे। वह दायें हाथ की छोटी ऊँगली से अपने बाल संभाल कर कान के पीछे अटकाती तो कभी बांह उठा कर। उस एक पल  मुझे उस पर इतना प्यार आया कि मैंने बढ़ कर उसके गालों को चूम लिया। वह ठिठक कर पीछे हट गई। मुझे होंश नहीं था कि मैं उसकी हरकत को समझ पाता। मैंने फिर से उसे चूमने की कोशिश की पर इस बार वह पहले से तैयार थी। उसने मुझे धक्का दिया मैं बेंच पर आधा पसर गया। वह उठी। मैं भी उठ खड़ा हुआ। वह जाने लगी तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे जाने से रोका। अब तक मैं समझ चुका था कि मैं भूल कर चुका हूँ और मुझे तुरंत इसकी माफ़ी मांग लेनी चाहिए, लेकिन इस से पहले मैं कुछ कहता, उसने पलट कर मेरे गाल पर तमाचा रसीद कर दिया। और हाथ झटक कर चली गई। दो पल मैं स्तब्ध वहीँ खड़ा रहा। बाहर आया तो वह कहीं नहीं थी। 


                    मैंने घडी की तरफ नज़र डाली, तीन बज कर पांच मिनट हुए थे उसका कहीं अता पता नहीं था। लेट आने की उसकी पुरानी बीमारी थी। हल्की गर्म हवा चल रही थी। असमानी रंग का चिकन का कुर्ता पहने वह आई। हर छुअन से परे, अपने आप में अलहदा, वही बड़ी आँखें, वही भूरे बाल वही रूप, वही सुंदरता, वही मासूमियत, मगर पहले से ज्यादा कमज़ोर, आँखों के नीचे उभर आया कालापन। भीतर कहीं कुछ दबाए छुपाये।
कैसे हो मनोज
अच्छा हूँ, तुम कैसी हो?
अच्छी हूँ, ज्यादा देर इंतज़ार तो नहीं करना पड़ा?
नहीं मैं भी अभी आया हूँ। मैंने झूठ बोला और मेरे झूठ पर वह मुस्कुराई। वह मेरे बगल में बेंच पर बैठ गई। उसने अपने बैग से एक हल्के हरे रंग के कागज़ में लिपटा पैकेट निकाल कर मेरी और बढ़ा दिया। मुझे खुशी हुई कि उसे मेरा जन्मदिन याद रहा। कभी कभी बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कहा जाता है। मैंने पैकेट बिना कोई सवाल किये अपने बैग में रख लिया। शुक्रिया, मैंने कहा। और सॉरी.. उसने कुछ नहीं कहा और बस मेरी और देख कर मुस्कुरा दी। काफी देर तक मैं उस से इधर उधर की बातें करता रहा। वह हाँ या न में जवाब देती रही।
उसके हाथों में लगी मेहँदी का रंग सुर्ख हो चला था, जिसे देख कर मैंने पूछा, शादी तय हो गई? उसने हामी में सर हिला दिया। वह शायद कसम खा कर आई थी कि कुछ नहीं कहेगी। मैंने पूछा, खाना खाया? उसने फिर हामी में सर हिला दिया। हमारे बीच बातें लगभग न के बराबर हो रही थी, कोई देख कर यह कभी नहीं कह पाता कि हम पूरे एक साल के बाद मिल रहे हैं और इन तीन सौ पैंसठ दिनों में हमने या फिर सिर्फ मैंने, जो भी कुछ अपने भीतर छुपा कर रखा था, उस से कहने या पूछने के लिए यकीन मानिये मुझे उसका एक अक्षर भी याद नहीं था। मैंने पूछा, क्या मैं तुम्हारी मेहँदी देख सकता हूँ?। उसने अपनी हथेलियाँ खोल कर मेरी और बढ़ा दी। उसकी हथेलियाँ थामते वक्त मेरे हाथों ने अपनी सारी ताकत गँवा दी। मैं उसे छूने तक की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। उसकी दायीं हथेली में बहुत बारीकी से लेकिन नज़र आने लायक A लिखा था, जिसे देख कर मुझे लगा कि मेहँदी लगाने वाली ने ठीक से N नहीं लिखा या शायद उसने चालाकी की हो ताकि नरेन्द्र यह समझ न पाए। मैं जितनी खुशी से उस से मिलने आया था उतना ही ज्यादा अवसाद मुझमें भरता जा रहा था। जी में आता था कि जोर से चिल्लाऊं और सिसक सिसक के रो पडू। लेकिन ठीक इसके पहले उसने हाथों को फिर से जोड़ कर मेरे कंधे पर सर रख लिया। मैं बयान नहीं कर सकता उस एक पल के लिए मेरी सारी खुशी लौट आई थी और वह अवसाद जिसका मैंने अभी अभी ज़िक्र किया सारा का सारा कहीं भाप बन कर उड़ गया। मैं उसे शुक्रिया कहना चाहता था। शायद, मैंने कहा भी। पर मेरी आवाज़ इतनी महीन और टूट टूट कर निकली कि वह सुन भी नहीं पाई। वो यूँ ही बैठी रही और मैंने भी आँखें मूँद ली।
                  

नींद से पहले और नींद के बाद
      


           और फिर धीरे धीरे आँखें भरी होने लगी। ऑल आउट लिक्विड जो मैं घर से उठा लाइ थी और जिसे मैंने मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर पी लिया था, अपना असर दिखने लगा। नज़र धुंधलाने लगी, साँस में गांठे पड़ने लगी और शरीर बेतरह खुलने लगा। मैंने अपना सर मनोज के कंधे पर रख लिया। और आँखें मूँद ली।। इसके आगे मैं कुछ नहीं कह सकती।। मुझे कुछ याद नहीं।
      

             मुझे याद है।धीरे धीरे उसका सर जो मेरे कंधे पर रखा था भारी होने लगा। मैंने कनखियों से उसे देखा, उसकी आँखें मुंदी थी। मैंने आवाज़ दी, सुधा। उसने कुछ नहीं कहा। कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने अपने दूसरे हाथ से उसके चेहरे को छुआ। उसका चेहरा नरम सा महसूस हुआ। उसके IAहोंठों के पास मेरी उंगलियों पर नमी महसूस हुई तो मैंने पलट कर उसे  देखना चाहा। वह बेहोश हो चुकी थी। मैं घबरा गया। फ़ौरन उसे बेंच पर लेटा कर मैं ऑटो ढूँढने लगा। हडबडाहट में मुझे कुछ न सूझा उसे अस्पताल ले जाते समय मैंने नरेन्द्र को फोन कर दिया।
     
                मैंने डेस्कटॉप पर खुली उसकी तस्वीर को एक नज़र देखा और शिफ्ट + डिलीट का बटन दबाया, बाकी सभी तस्वीरों को भी डिलीट कर मैंने कम्प्यूटर बंद किया और पास पड़ी मैजिक मोमेंट्स की बोतल उठा ली। बोतल आधी भरी थी, खत्म होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। उसके बाद मैंने अपने पडोसी के घर का दरवाज़ा खटखटाया। शशि ने दरवाज़ा खोला। कभी कभी मैं और शशि साथ में पीते थे। मुझे देखते ही उसने कहा, आज सुबह सुबह लगा ली?
हाँ यार, थोड़ी सी थी, तेरे पास है?
ऑफिस नहीं जायेगा भाई?
मैंने ना में सर हिलाया, वह अंदर गया और डी एस पी की आधी भरी बोतल ला कर मेरे हाथ में थमा दी। मैं उसे शुक्रिया कर लौट आया। याद नहीं कब तक और कितनी देर पी। आँख खुली जब फोन बेतहाशा चिल्ला कर दम तोड़ने ही वाला था। मिचमिची आँखों से स्क्रीन देखी तो नंबर समझ नहीं आया। कॉल रिसीव किया तो एक जानी पहचानी आवाज़ थी।
नरेन्द्र भाई, जल्दी से गंगा राम हॉस्पिटल पहुँचो, मैं सुधा को लेके जा रहा हूँ कुछ पीछे से आता शोर और कुछ नशे में मुझे सिवाए सुधा के कुछ समझ नहीं आया।
हेल्लो, भाई सुन रहे हो? उसने फिर कहा। भाई गंगा राम जल्दी पहुँचो। कह कर उसने फोन काट दिया। मैं फिर से सो गया। दस पन्द्रह मिनट बाद आँख खुली तो बिजली की तरह उसके लफ़्ज़ों ने मेरे ज़हन पर चोट की। मैंने पलट कर उस नंबर पर फोन लगाया। फोन उठाते ही उसने कहा, मैं पहुँच गया हूँ, आप जल्दी आ जाओ, सुधा को कुछ भी हो सकता है उसने फिर से फोन काट दिया। 
ई.सी.यू. में कदम रखते हुए मैं बहुत अजीब महसूस कर रहा था। ठीक ऐसे जैसे एक छोटा बच्चा पिता के सामने उस वक्त महसूस करता है जब उसने कुछ ऐसा किया हो जिसकी सख्त मनाही हो और मज़े मज़े में कोई भयंकर गडबड हो गई हो और अब पिताजी का सामना करने की हिम्मत न हो। ठीक, वही डर, वही गुदगुदी और बढ़ी हुई धडकनें। इतनी बढ़ी हुई कि लगे दिल फडक कर बाहर आ जायेगा। आई.सी.यू. की आयन फ्रेश हवा में मैंने बाहर आते दिल को वापस अपनी जगह पर बैठाया और चारों तरफ एक सरसरी निगाह दौडाई। बाईं तरफ के चौथे बेड पर वह लेटी थी। बमुश्किल दस बारह कदम की दूरी तय करने पर ही मेरे पाँव काँपने लगे। उसने आँखों के इशारे से पास रखे स्टूल पर बैठने का इशारा किया। मैंने बैठते ही पूछा, कैसी हो?
उसने कहा, हैरान हूँ, दुनिया अब भी कायम है।
मेरे भीतर से रुलाई उठ आई यह सोच कर कि किन परिस्थितियों में वह इस निर्णय तक पहुँच पाई होगी, कैसे उसने यह सोचा होगा, जहाँ तक मैं उसे जान पाया था वह हर परिस्थिति में हर तकलीफ से लड़ कर उसी में छोटी छोटी खुशियाँ ढूँढ लेती थी। हर मुश्किल को हँस के डरा देती थी। उसने कैसे हार मान ली। और क्यों? इन प्रश्नों के उत्तर मैं उस से चाहता था लेकिन मैं यह भी जानता था कि मुझे हक नहीं है यह पूछने का। होता तो शायद उसने कुछ तो बताया होता। लेकिन अगर मेरा कोई हक नहीं था तो उसने मुझे क्यों चुना अपने आखिरी लम्हों के लिए। ऐसा क्या उधार था उसका मुझ पर? मन हैरान था और आँखें बहने से खुद को बचाती हुई। तुमने ऐसा क्यों किया? उसने पूछा।
मैं कुछ नहीं कह सका। उठ कर बाहर चला आया। आते वक्त उसके आखिरी शब्द मेरे कानों में पड़े, सिस्टर मेरे घर पर फोन कर दीजिए। बाहर आते वक्त मैंने नरेन्द्र को देखा और ऊँगली से आई.सी.यू. की और इशारा कर कहा। बाईं तरफ बेड नंबर चार !


                   ऑटो ले कर मैं घर चला आया। ताला खोल कर भीतर आया और बेड पर पसर गया। क्या सोच कर गया था और क्या हो गया। अचानक से मुझे याद आया कि उसने मुझे एक गिफ्ट दिया था। मैं उछलकर उठा और बैग में से पैकेट निकाला। हल्के हरे रंग के आवरण को उतारा। उसमें सुधा की डायरी थी। गाढे भूरे रंग की वह डायरी देख कर मैं हैरान था। लेकिन कुछ कुछ समझ में आने लगा था। शायद वह चाहती थी कि उसकी कवितायेँ हमेशा जिंदा रहे। कुछ इच्छाएं कभी नहीं मरती। मैंने डायरी खोली। पहले पन्ने पर लिखा था। एक दिन खत्म हो जाएंगी सारी ख्वाहिशें, और ये चाहना मिट जायेगी!!





                 उसे ज़रा भी एहसास नहीं था कि वह सुधा को किस परिस्थिति में छोड़ आया है। जानता तो शायद ऐसा न करता, उसने हर मुश्किल से भाग निकलने की जो नाकाम कोशिश की थी मनोज ने उसे फिर उसी मुसीबत में लटकता छोड़ दिया पेंडुलम की तरह, जहाँ वह यूँ ही झूलती रहेगी.. शायद... उम्र भर या शायद फिर से वो भाग निकलने का कोई और रास्ता तलाश ले और शायद इस बार कामयाब भी हो जाए। आपके पास भी कोई रास्ता हो तो सुधा को ज़रूर सुझाएँ......। 

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