Saturday, October 13, 2012






विमल चंद्र पाण्डेय का  उपन्यास :  तीसरी किश्त




(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर रविवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है तीसरी  किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)



मलिकों की चिंता देख कर शेर सिंह भी दुखी रहने लगे और मालकिन के हितार्थ कभी-कभी मालकिन को यह कह कर सांत्वना भी देते कि क्या करूं मालकिन अगर मैं कुत्ता नहीं आदमी होता तो ज़रूर आपकी बेटियों में से किसी एक से शादी कर लेता। मालकिन उनके शब्दों को तो नहीं समझतीं लेकिन भावनाओं को समझ कर निहाल हो जातीं। दरअसल शेर सिंह का नाम शुक्ला जी शेर सिंह न रख कर शेरपति शुक्ला रखना चाहते थे लेकिन शुक्लाइन ने समझाया कि हम अगर ब्राहमण हैं तो पशु भी ब्राहमण पालना ठीक नहीं होगा। पशु अपने से नीची जात का पालना ही ठीक होगा। शुक्ला जी उन्हें पुत्र की तरह मानते थे और घर में लड़कियों से भले तू तड़ाक से बात की जाती थीशेर सिंह के लिये आप संबोधन का प्रयोग किया जाता था।...)



4.

सुबह के समय जब रिंकू एण्ड कंपनी, छोटे वाले ग्राउण्ड में जिसमें छक्का आउट होता था, क्रिकेट खेल रही थी और फौज की तैयारी वाले लड़कों ने एक सौ एक रूपये पर मैच लेने की चुनौती दी थी, अचानक ट्यूबलाइट का भाई रिंकू को बुलाने पहुंच गया।
´´चलिये आपसे मिलने कोई आया है।´´ उसने बॉलर के बगल से निकलते हुये कीपिंग कर रहे रिंकू से कहा।
´´कौन है ?´´ रिंकू ने उसको पिच से बगल हटने का इशारा करते हुये कहा।
´´पता नहीं। कुर्ता पयजामा पहिना है और दाढ़ी रक्खा है लगता है जइसे मीयां है।´´
                रिंकू ने फटाक से कीपिंग छोड़ दी और कमरे की ओर दौड़ पड़ा।
´´अबे आनंद। हारना नहीं अठारह रन चाहिये। फिल्डिंग टाइट रखो...बनना नहीं चाहिये। फुलटॉस मत डालना।´´ भागता-भागता वह आनंद को कार्यकारी कप्तान बनाता गया। थोड़ा रूक कर स्ट्रेटेजी भी समझाता लेकिन जो आगंतुक आया था उसमें ऐसा जादू था कि रिंकू जैसा लापरवाह भी हवा की स्पीड से दौड़ा।
´´रिंकू भइया, रूकिये हम भी आ रहे हैं।´´
´´अबे भइया नहीं जीजा कहो।´´ टुन्नू ने पीछे से हुंकार लगायी।
´´क्या बे, कैप्टन भाग रहा है क्या तुम्हारा मैच लेने की बात सुनकर...? अबे सो मैच खेल लो।´´ फौज की तैयारी वाले लड़के बोल कर हंसने लगे। ये 70-80 किलो के लड़के हर बात पर ´फौज के लायक न होने´ वाले 50-55 किलो वाले लड़कों पर इस सहज भावना से हंसते थे कि उनका कोई क्या उखाड़ लेगा। बात सही भी थी। जब वे किसी दूसरे ग्रुप के लड़कों का अपमान भी कर देते तो लड़के यह सोच कर मन मसोस कर रह जाते कि इनका कोई क्या उखाड़ सकता है।
                रिंकू कमरे पर पहुंचा तो कमरे के बाहर शफ़ीकउल्ला चचाजान को टहलते देख उसका मूड खराब हो गया। ये चुपचाप किसी एक जगह बैठ भी नहीं सकते।
´´कहां थे बेटा अनवर ?´´
´´अस्सलाम वालेकुम चचा। आइये अंदर।´´ रिंकू ने दरवाज़े का ताला खोलते हुये कहा।
´´वालेकुम......कहां गये थे बरखुरदार....?  पसीने से तर-ब-तर हुये जा रहे हो।´´
रिंकू किचन में गया और एक कटोरी में गुड़ और प्लास्टिक के मग में पानी ले आया और चचा के सामने अपराधी की मुद्रा में बैठ गया।
´´क्रिकेट खेल रहे थे।´´
´´हूं....´´ चचा पानी पीने के बाद लम्बी सांस लेकर बोले।
´´ताजिंदगी क्रिकेट ही खेलते रहोगे ?´´ बोलकर चचा कमरे का मुआयना करने लगे गोया वो जानते थे कि इस बात का कोई जवाब नहीं आयेगा। अचानक कमरे के एक कोने में रखी एक खाली अद्धी पर चचा की नज़र पड़ी और वह उछल पड़े।
´´अमां अनवर मियां....ये क्या शै है ?´´ उन्होंने बोतल के पास जाकर उसे गौर से देखते हुये बिना छुये पूछा। चचा पांचो वक़्त के नमाज़ी थे। रिंकू की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे अटक गयी। अगर चचा को शक हुआ तो बात अब्बू तक पहुंचनी ही पहुंचनी है। सारी पिछली बोतलें तो हटा दी थीं, ये कमबख़्त कैसे रह गयी। उसने अपना सारा कौशल लगा दिया और बलराज साहनी को मात देता हुआ अभिनय करता हुआ गम्भीर मुद्रा में उठा और उठा कर बोतल को सामने की आलमारी पर रख दिया।
´´अरे चचा, आजकल लाइट बहुत गुल रहने लगी है बनारस में तो पढ़ाई पे असर पड़ता है न...। ढिबरी बनाने के लिये लाये हैं। कीले नहीं मिली कि बनाते....कल देखते हैं। और बताइये अब्बू अम्मी कैसे हैं ?´´
                उसकी आराम भरी मुद्रा देखकर चचाजान रिलैक्स हो गये और अपने तने हुये स्नायुओं को आराम दे दिया। इधर-उधर एक नज़र देखा, फिर धीरे से बिस्तर पर फैल गये।
´´बढ़िया हैं दोनों...। रज़िया तुझे याद करती है। एकाध दिन के लिये चले चलो।´´
´´जी...।´´
                चचाजान जिस बिस्तर पर लेटे थे उसके गद्दे के नीचे एक स्टारडस्ट और एक मस्तराम रखा था और रिंकू चचा के तेवर देख कर समझ चुका था कि अब एकाध घण्टे बाद कैण्ट से इनकी ट्रेन होगी और ये मदनपुरा से जल्दी निकल आये हैं और बाकी का समय यहीं सबक देते-देते काटेंगे जो इनका पसंदीदा काम है।

´´बेटा अनवर एक बात बताओ।´´
उसने चचा की ओर देखा और फिर घड़ी की तरफ।
´´तुमको इतना अच्छा घर है अपना रहने के लिये उस्मान का तो तुम यहां क्यों भाईजान का किराया बर्बाद कराते हो ?´´
                रिंकू के लिये न तो संदर्भ नया था न सवाल।
´´वह मेरा घर कहां है ?´´
´´अजीब अहमक हो। अरे चचा का घर है तो तुम्हारा ही हुआ ना...। तुम्हारे चचाज़ात भाई बहन हैं वहां। अपने लोग हैं वहां और तुम सब छोड़ के ये एक रूम किचेन में बेवकूफ़ों की तरह वक़्त बर्बाद कर रहे हो।´´
´´उस्मान चचा आपकी तरह नहीं हैं चचा न ही उनके बच्चे। मैं तो मदनपुरा की तरफ़ से कहीं जाता हूं तो कभी मेरी इच्छा उधर जाने की नहीं होती। मैं यहीं ठीक हूं।´´
´´घर कब चलोगे ?´´
रिंकू समझ गया कि अब सवालों का रैपिड राउंड है।
´´बी ए पूरा करने के बाद।´´
´´मदनपुरा से बीएचयू भी नज़दीक है।´´
´´कोई फ़र्क नहीं पड़ता।´´
´´आगे क्या करोगे ?´´
´´बीए के बाद सोचूंगा।´´
´´पढ़ाई कैसी चल रही है ?´´
´´अच्छी चल रही है।´´
´´नमाज़ पढ़ते हो ?´´
´´हां।´´
´´पांचों वक़्त ?´´
´´नहीं। कभी-कभी छूट जाता है।´´
´´कोई बात नहीं। कोशिश करो कि नियम से पांचों वक़्त पढ़ा करो। इबादत भी पढ़ाई इतनी ही ज़रूरी है।´´
´´जी।´´
´´परीक्षा कब होगी ?´´
                रिंकू को लग ही रहा था कि रैपिड फायर कुछ ज़्यादा लम्बा हो रहा है कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने उठकर दरवाज़ा खोला और चचाजान भी बिस्तर पर कुछ टाइट हो गये। आनंद प्रफुल्लित अंदाज़ में अंदर घुसा और घुसते ही चिल्लाया- ´´पेल दिया भोसड़ीवालों को। तीन रन बचा था और.....।´´ अचानक उसकी नज़र चचाजान पर पड़ी और वह बुरी तरह शर्मिंदा हो गया।
´´नमस्ते चचाजान।´´ उसने आवाज़ को इतना मुलायम और विनम्र बनाया मानो माफ़ी मांग रहा हो।
´´खुश रहो बेटा। आओ बैठो। आनंद नाम है न तुम्हारा....?´´ चचाजान ने याद्दाश्त खंगाली।
´´जी....।´´ वह पास पड़ी हाथ टूटी कुर्सी पर बैठ गया।
´´अरे वहां नहीं यहां बैठो।´´ चचा ने चारपाई पर ही जगह बना दी। आनंद न चाहता हुआ भी अपनी खराब भाषा के हर्जानेस्वरूप मन मसोस कर चचा के बगल में बैठ गया। चचा के हाथों से उसे सख्त नफ़रत थी।
                चचा उठ कर दीवार पर पीठ टेक कर बैठ गये और आनंद की पीठ पर हाथ रख दिया।
´´तुम गोरे बहुत हो बेटा। पापा और मम्मी में से कौन गोरा है ? किसके में पड़े हो ?´´ हाथ से पीठ का सहलाना बदस्तूर जारी रहा।
´´मम्मी पापा दोनों ही गोरे हैं।´´ आनंद ने पीठ हिलाते हुये कहा।
                अचानक दरवाज़ा खोलकर राजू अंदर दाखिल हुआ और आनंद वाली ही स्टाइल में रिंकू को सामने पाकर पहले उसी से मुखातिब हो गया।
´´ई बताओ मैच लिया जाय कि नहीं ? एक सौ एक रूपये पे कह रहे हैं सब।´´ वाक्य खत्म करते-करते उसकी नज़र बाकी लोगों पर भी पड़ गयी।
´´नमस्ते चाचाजी।´´ राजू ने अतिरिक्त सम्मान से कहा।
´´नमस्ते बेटा।´´ चचा ने पीठ वाला हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठाने का उपक्रम किया तो आनंद मौका पाकर उनके हाथ के नीचे से सरक आया और खड़ा हो गया।
´´बेटा मैच खेलो, उसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन पैसे पर मैच खेलना तो सरासर जुआ है। मैच में हार जीत के जज़्बात तक ठीक है लेकिन पैसा खेल के.....।´´ चचा के बोलने की स्टाइल से लग रहा था कि वे तब तक बोलेंगे जब तक ट्रेन की सीटी उनको सुनाई नहीं दे जाती। कॉलोनी कैण्ट स्टेशन के पीछे थी और कॉलोनी के अगल-बगल से ढेरों रेल लाइनें गुज़रती थीं। चचा अपनी ट्रेन सीटी से ही पहचान जाते थे।
                राजू और आनंद दोनों ने चचा को खामोश नमस्कार किया और रिंकू को आंखों से ये इशारा करते हुये चले गये कि साले तुम्हारी टेंशन है तुम झेलो हम क्यों फंसें।
                सीढ़ी से नीचे उतरते ही दोनों के मुंह से एक ही वाक्य एक साथ निकला- ´´बहुत पकाता है बुढ़वा।´´
                रिंकू ने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और आराम से चचा के सामने बैठ गया।
´´कौन सी ट्रेन है चचा ? आज़मगढ़ ही जाएंगे या कहीं और ?´´ उसने अंदाज़ा लगाते हुये पूछा।
´´अरे और कहां जाएंगे ? अपनी तो जन्नत बनारस और ज़मीन आज़मगढ़ बाकी सब दोज़ख। ट्रेन है......´´ चचा जेब से ट्रेन का टिकट निकालने का उपक्रम करने लगे कि उनका मोबाइल बज उठा। रिंकू को उनका मोबाइल बहुत पसंद था और उसने सोचा था कि जब भी मोबाइल खरीदेगा तो यही वाला खरीदेगा जिसमें वीडियो रिकॉर्डिंग हो सके और अठाइस साल वाली की छत पर टहलते हुये खूब फोटो और वीडियो.....।
´´जी...जी सब खैरियत है अल्लामियां का करम है।´´
´´अरे ऐसी बात नहीं। हम ज़रा बनारस आ गये थे।´´
´´अरे नहीं अब धन्धे में बरकत कहां। रेडीमेड कपड़ों ने ऐसा चौपट किया है सब...।´´
´´हां हां मियां बिल्कुल शामिल होंगे। हमारे मज़हब पर खतरा हो तो बिल्कुल बहाएंगे....एक-एक बूंद तक।´´
´´जी बिल्कुल....जी जी।´´
´´जी मैं परसों आज़मगढ़ लौटूंगा तो मिलूंगा आपसे। जी शुक्रिया। अच्छा अल्लाह हाफि़ज़।´´
´´चूतिया।´´ चचा ने फोन काटते ही कहा तो किचेन में चाय चढ़ा रहा रिंकू कमरे में चला आया। उसे पता था चचाजान जल्दी गाली नहीं देते।
´´साले अपना ठिकाना नहीं चले हैं मज़हब की हिफ़ाज़त करने। बुरचोद्दी के तुमहीं लोग तो पहुंचावत हौ मज़हब को खतरा। हमारा मज़हब तो हमारा धन्धा है। उसको देंखें कि तुम्हारी बकचोदी में शामिल हों। तुम तो साले कल पाओगे वोट और गिनोगे नोट। तुम्हारे चक्कर में हम जाएंगे ज़मीन पर लोट।´´ अपनी तुकबंदी पर चचा अचानक इतने खुश हो गये उन्होंने फोन वाले को यूं ही माफ़ कर दिया।
´´चाय बना रहे हो क्या ?´´
´´जी.....पीएंगे न ?´´
´´चढ़ा दिये हो....?´´
´´जी...।´´
´´पी लेंगे। वैसे कोई ख़ास मर्ज़ी नहीं थी लेकिन चलो.....अदरख डाल देना हो तो।´´
´´जी...।´´ रिंकू ने चचा के चेहरे के भाव और अपने बैग को छूने की मुद्रा से समझ लिया कि बस चचा जल्दी ही फूटने वाले हैं।
कॉलोनी में एकाध घरों को छोड़कर किसी को मालूम नहीं था कि रिंकू मुसलमान है। उसके बीएचयू हॉस्टल छोड़कर आने से पहले यह कमरा किसी केदार श्रीवास्तव के नाम था और रिंकू ने आनंद से जुगाड़ लगवाकर कमरा पाया था। कमरे में उसे तभी शिफ्ट करना पड़ गया था जब केदार के कमरा छोड़ के जाने में हफ्ते दस दिन बचे थे। कॉलोनी में अनायास ही मैसेज चला गया कि रिंकू केदार का भतीजा है और केदार कमरा जाने से पहले रिंकू को दिलवा कर जा रहा है। सब उसे रिंकू श्रीवास्तव ही जानते थे और कुछ तो यहां तक कहते थे कि रिंकू की शक्ल काफ़ी हद तक अपने चाचा केदार से मिलती है। उसके कुछ दोस्तों के घर में यह बात मालूम थी और उनका सोचना यही था कि हिंदू हो या मुसलमान, आजकल के लड़के साले बहुत हरामी हो गये है, मां-बाप का एक्को कहना नहीं सुनते।

5.
शुक्लाइन को अपना वज़न सविता की शादी की चिंता में दिनों-दिन घटता महसूस हो रहा था। सविता की दो बड़ी बहनों सुनीता और अनीता की शादियां हो चुकी थीं और वे दोनों अपने-अपने पतियों के साथ क्रमश: रायपुर और कानपुर में सुखी जीवन बिता रही थीं। दोनों दामाद शुक्ला जी के खोजे हुये थे और शुक्लाइन के बड़े भाई के बताये गये कई रिश्तों को खारिज़ करके शुक्ला जी ने ये रिश्ते खोजे थे जो बकौल उनके उनके लेवेल के थे। बड़ा दामाद रायपुर में एक बड़ी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर था और दूसरा कानपुर में बिजली विभाग में इंजीनियर था।
                सविता के बाद अनु और मनु थीं। अनु ग्रेजुएशन कर रही थी और मनु अभी इंटर फाइनल में थी। शुक्लाइन को हमेशा यह चिंता लगी रहती थी कि सविता के बाद अभी दो और बचेंगी इसलिये वह जल्दी से जल्दी सविता को ठिकाने लगाना चाहती थीं।
                सविता ने बीएचयू से पांच साल पहले बीए किया था। उसका बहुत मन था एमए करने का लेकिन शुक्लाजी ने एडमिशन लिस्ट में उसका नाम आ जाने के बावजूद उसका एडमिशन नहीं कराया था और एक तरह से उसे घर में कैद कर दिया गया था। कारण यह था कि एक दिन जब शुक्लाजी परीक्षा देने के बाद सविता को बीएचयू लेने गये तो उन्होंने देखा कि एक लड़का सविता से हंस-हंस कर बातें कर रहा है। उसे उन्होंने पहले भी सविता से बातें करते देखा पर नज़रअंदाज़ कर दिया था लेकिन उस दिन उन्होंने देखा कि उस लड़के ने हंसते-हंसते सविता की हथेलियां अपनी हथेलियों में ले लीं और सविता ने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया। उन्हें मामला गड़बड़ लगा। इसके बाद के दो पेपर उन्होंने वहीं रह कर दिलवाये और परीक्षा खत्म होने के बाद उसकी पढ़ाई बंद होने का फरमान सुना दिया गया। उसने लाख कहा कि वह उसका जूनियर है और सारे सीनियर्स से इतना खुला हुआ है कि किसी का हाथ पकड़ लेना उसके लिये बहुत छोटी बात है और कोई उसकी इस आदत का बुरा नहीं मानता।
लेकिन शुक्ला जी बुरा मान चुके थे। उन्होंने बिटिया पर तगड़ी पाबंदी लगा दी। इस पाबंदी का नकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि सविता धीरे-धीरे बिना किसी गुनाह के एक अपराधबोध से भरने और कुढ़ने लगी। इसका सकारात्मक प्रभाव यह रहा कि उनकी दोनों बेटियों में एक अतिरिक्त चौकन्नापन पैदा हो गया और वे समझने लगीं कि कब कौन सी चीज़ छुपानी है और कौन सी दिखानी है (इसे वृहत संदर्भों में लिया जाय)।
                मलिकों की चिंता देख कर शेर सिंह भी दुखी रहने लगे और मालकिन के हितार्थ कभी-कभी मालकिन को यह कह कर सांत्वना भी देते कि क्या करूं मालकिन अगर मैं कुत्ता नहीं आदमी होता तो ज़रूर आपकी बेटियों में से किसी एक से शादी कर लेता। मालकिन उनके शब्दों को तो नहीं समझतीं लेकिन भावनाओं को समझ कर निहाल हो जातीं। दरअसल शेर सिंह का नाम शुक्ला जी शेर सिंह न रख कर शेरपति शुक्ला रखना चाहते थे लेकिन शुक्लाइन ने समझाया कि हम अगर ब्राहमण हैं तो पशु भी ब्राहमण पालना ठीक नहीं होगा। पशु अपने से नीची जात का पालना ही ठीक होगा। शुक्ला जी उन्हें पुत्र की तरह मानते थे और घर में लड़कियों से भले तू तड़ाक से बात की जाती थी, शेर सिंह के लिये आप संबोधन का प्रयोग किया जाता था। शेर सिंह एक घटनाक्रम में इस घर और परिवार के निकट आ गये थे जब अचानक एक दिन उन्होंने दुनिया की सबसे मोहक बात सुनी। शुक्लाइन ने अपने मामा की लड़की का ज़िक्र करते हुये कहा कि उसने एक लड़के से प्रेम विवाह कर लिया है जो उन लोगों से छोटा ब्राहमण है यानि कान्यकुब्ज है। लड़का बैंक में सरकारी नौकरी करता है। घटनाक्रम को सुनाने के बाद शुक्लाइन ने पति परमेश्वर से पूछा की कि अगर सविता के लिये कोई दूसरा ब्राहमण मिले तो चलेगा कि नहीं। शुक्लाजी ने आधी पी हुयी चाय घुमा कर फेंक दी थी जिसके छींटे शेरसिंह पर भी पड़े और वह कुपित होकर उठ खड़े हो गये। इसके बाद शुक्लाजी ने जो वक्तव्य दिया उससे शेरसिंह गरम छींटें भूलकर जीवन भर के लिये मालिक के अहसानमंद हो गये। शुक्लाजी अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुये और बाहर जाते हुये चिल्लाते हुये बोले थे, ´´छोटे ब्राहमण में शादी करने से बेहतर समझूंगा कि लड़की की शादी कुत्ते से कर दूं।´´
                शुक्लाजी सरयूपारिण ब्राह्मण थे और हर ब्राहमण की तरह मान कर चलते थे कि सरयूपारिण ब्राह्मण ही ब्राहमणों में श्रेष्ठ होता है और हर ब्राहमण की तरह इसके पक्ष में उनके पास कई उद्धरण, लोककथाओं और श्लोकों का भण्डार था।


4 comments:

  1. ´चलिये आपसे मिलने कोई आया है।´´ उसने बॉलर के बगल से निकलते हुये कीपिंग कर रहे रिंकू से कहा।
    ´´कौन है ?´´ रिंकू ने उसको पिच से बगल हटने का इशारा करते हुये कहा।
    ´´पता नहीं। कुर्ता पयजामा पहिना है और दाढ़ी रक्खा है लगता है जइसे मीयां है।´´
    रिंकू ने फटाक से कीपिंग छोड़ दी और कमरे की ओर दौड़ पड़ा।
    ´´अबे आनंद। हारना नहीं अठारह रन चाहिये। फिल्डिंग टाइट रखो...बनना नहीं चाहिये। फुलटॉस मत डालना।´´ भागता-भागता वह आनंद को कार्यकारी कप्तान बनाता गया। थोड़ा रूक कर स्ट्रेटेजी भी समझाता लेकिन जो आगंतुक आया था उसमें ऐसा जादू था कि रिंकू जैसा लापरवाह भी हवा की स्पीड से दौड़ा।

    aisa laga jaise mai khud khel raha hu cricket

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  2. जबरदस्त भाई ,सुन्दर प्रस्तुति .विमल भाई की भाषाई अठखेली तो लाजवाब है .चरित्रों के साथ पूरा न्याय करते संवाद जिस प्रवाह में आ रहें आ रहे है वह कमाल एक सिध्ह हस्त लेखक ही कर सकता है .

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