Saturday, October 6, 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का उपन्यास-दूसरी किश्त


(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर रविवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है दूसरी किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)


2.
शुक्लाइन गेट पर से भिखारी को, जो उनका गेट पकड़ कर भीख मांग रहा था,  भगाने, गेट को गंगाजल से धोने और सूरज डूबने में तीन घंटे शेष रहते चौथी बार नहा कर जब छत पर चढ़ीं तो उनकी नज़र सामने वाली बालकनी पर पड़ी। उन्होंने पिछले कुछ दिनों से ग़ौर किया था कि रात नौ बजे के आसपास इसी बालकनी के अगल-बगल एक बिल्ली बड़े दर्द भरे स्वर में कराहती है और किसी का रत्ती भर दर्द बरदाश्त न कर सकने वाली सविता दौड़कर उसकी सुश्रुषा करने छत पर चली जाती है। नीचे आने पर पूछो तो कहती है बिल्ली थी, लगता है भाग गयी। शुक्लाइन की दिली इच्छा है कि उन्हें वह बिल्ली मिल जाय तो हमेशा के लिये उसका इलाज कर दें लेकिन उन्हें छत पर आज तक बिल्ली की पूंछ तक नज़र नहीं आयी। अगर वह बिल्ली एक बार भी उनको दिख जाती तो वह शेर सिंह को उस पर न छोड़ कर खुद पिल पड़तीं।
                उन्होंने आसपास की कई बालकनियों पर नज़र डाली पर पता नहीं क्यों उन्हें सामने वाली बालकनी पर बिल्ली के पाये जाने की सम्भावना सबसे ज़्यादा नज़र आती थी। उसमें एक अकेला लड़का किराये पर कमरा लेकर पढ़ाई करता था और अक्सर उसके यहां उसके आवारा दोस्तों का जमावड़ा लगा रहता था। अभी वह टहल-टहल कर अपने दिमाग में धार लगा ही रही थीं जो लगातार धार लगाने के कारण काफी हद तक घिस गया था, कि शुक्ला जी के स्कूटर की आवाज़ सुनायी दी। जिस तरह कोई चरवाहा हज़ारों भैंसों में से अपनी भैंस की आवाज़ सुन कर पहचान लेता है, शुक्लाइन मोहल्ले की सभी गाड़ियों में से शुक्ला जी की गाड़ी की आवाज़ पहचान लेती थीं और इस बात पर समय निकाल कर गर्व भी करती थीं। हालांकि मुहल्ले के कुछ लोगों का मानना था कि उनका गर्व अधिक महत्व का इसलिये नहीं था क्योंकि शुक्ला जी की गाड़ी की आवाज़ इतनी अलग और आकर्षक थी कि कालोनी की सभी आरतें उनकी पत्नी न होने के बावजूद उसे पहचानती थीं।
                शुक्लाजी उदय प्रताप कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता थे और शुक्लाइन से हर पति की तरह बहुत प्रेम करते थे जब तक वह भाजपा के विषय में कुछ न बोलें। वह दुनिया में सिर्फ़ दो चीज़ों में श्रद्धा रखते थे, एक भोलेनाथ शंकर में और दूसरा भाजपा में अलबत्ता वह घृणा कई चीज़ों से करते थे। उनकी सिर्फ़ पांच लड़कियां थीं क्योंकि उसके बाद वह परिवार नियोजन की युक्तियों का प्रयोग करने लगे थे। उनके व्यक्तित्व में आजकल एक नोट करने लायक और उल्लेखनीय बात यह थी कि कॉलोनी का सबसे कुख्यात बदमाश जिसके ऊपर कई केस लंबित थे, कैण्ट थाने का दारोगा जोगिंदर तिवारी किसी घटना के बाद उनका अनन्य भक्त बन गया था और इस अतिरिक्त योग्यता के कारण वह कॉलोनी में सम्मान के साथ अतिरिक्त भय का भी बायस थे। यह एक रेलवे कॉलोनी थी जिसके बहुत से क्वार्टरों में रेलवे के कर्मचारी भी रहते थे।
                शुक्लाजी किसी तूफ़ान की तरह आते थे। हर तरफ़ अपने आनोखी आवाज़ वाले स्कूटर से हलचल मचाते हुये। पूरे मुहल्ले को चेतावनी देता हुआ यह तूफ़ान जब अपने घर में घुस जाता तो मुहल्ला बाहर आकर तस्दीक करता कि सब ठीक तो है। मगर उस दिन शुक्लाजी के तेवर ´बलिया जिला घर बा केकरा से डर बा´ वाली नहीं थी। यहां तक कि उनका स्कूटर भी स्कूटर जैसी आवाज़ कर रहा था। गेट के पास खेल रहे बच्चों को उन्होंने एक नज़र देखा और बिना आवाज़ किये गेट खोलकर भीतर घुस गये। दरवाज़े पर उनको देखकर शेरसिंह बुरी तरह पूंछ हिलाते हुए उनके कदमों में उसी तरह लोटने लगे जैसे कोई विधायक टिकट के लिये पार्टी अध्यक्ष के सामने लोटता है पर उस दिन शुक्ला जी का मूड इतना खराब था कि उन्होंने वाकई किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष की तरह ही उसकी ओर निगाह तक नहीं डाली और चुपचाप भीतर घुस गये। शेरसिंह को बड़ी निराशा हुयी। उन्होंने सोचा कि बेकार में ही उठकर आया और इतनी मेहनत की। बड़े अकड़े फिरते हैं जैसे हमको मालूम नहीं कि नौकरी कितना जुगाड़ लगवा के पाये हैं। नौकरीपेशा लोगों का दुखी चेहरा याद आते ही उन्हें अपनी पशु योनि पर गर्व हुआ और वह सगर्व गेट के पास जाकर दो बार भूंक कर वापस अपनी जगह पर बैठ गए।
´´का भईल जी...?´´ शुक्लाइन पानी का गिलास थमाती हुई उनके उदास चेहरे को देखते हुये बोलीं।
´´कुछ नहीं...।´´
´´काहें मुंह लटकवले बानीं ?´´
´´कुछ नहीं भई, जाओ जरा चाय बना दो।´´ बोलकर वह कपड़े बदलने लगे। शुक्लाइन और कुछ न पूछ सकीं।
                कुछ देर शुक्लाजी चुपचाप चाय पीते रहे। शुक्लाइन चुपचाप चाय पिलाती रहीं।
´´एगो चिंता के बात बा....।´´ शुक्लाइन ने चुप्पी तोड़ी।
´´मुझे भी बड़ी टेंशन है आज...।´´ शुक्लाजी ने शून्य में देखते हुये कहा।
                शुक्लाइन चौकन्नी हो गयीं कि पहले पति परमेश्वर की चिंता  सुन ली जाय। यही धर्म है।
´´का भइल बा जी...?´´ उन्होंने चौकन्नी और धीमी आवाज़ में पूछा। ज़रूरी बातें ऐसी ही धीमी आवाज़ में पूछने का चलन था।
                बदले में शुक्लाजी ने तफ़सील में जो कुछ सुनाया उसमें से कुछ शब्द शुक्लाइन के दिमाग में अटक गये जैसे टीचर्स एसोसियेशन, डर्टी पॉलिटिक्स, वर्चस्व की लड़ाई, शिक्षा माफि़या, अध्यापकीय ईमानदारी आदि जिसके बारे में उन्होंने सोचा कि बाद में अपने भाई से इसके बारे में पूछेंगी जो लॉ पढ़ रहा है और सब कुछ जानता है।
´´हां बताओ, तुम क्या कह रही थी ?´´ शुक्लाजी ने अपनी बात खत्म करके शुक्लाइन से पूछा। शुक्लाइन के सामने बात खत्म करना उसी तरह से खत्म करना था जैसे कोई सुनने वाला न मिलने की स्थिति में कोई पेड़ के खोखल में मुंह डाल कर अपनी बात कह दे.........कह भर दे।
                शुक्लाइन ने अपनी चिंता शुक्लाजी से बांटी और पिछली चिंता से शुक्लाजी इस चिंता पर उतर आये क्योंकि इस चिंतित माहौल में उन्हें याद आया कि यह उन दोनों की साझा चिंता है। चिंताओं के ढेर में घिरे शुक्लाजी के सामने तीन जवान बेटियां, जिनमें एक ज़रूरत से ज़्यादा जवान होती जा रही है (उम्र ढल रही है, ऐसा वह कई लोगों के बोलने के बाद भी नहीं सोच पाते), आकर चिंताग्रस्त चेहरा लिये खड़ी हो जाती हैं। ज़्यादा चिंता करने पर उनका रक्तचाप फिर बढ़ने का खतरा है, इसलिये उन्होंने डॉक्टर की सलाह दोहरायी ´चिंता चिता के समान है´ और एक झटके में चिंताओं के खोल से बाहर आने का प्रयास किया।
´´ईश्वर सब ठीक करेगा।´´ बोलकर वह थोड़ी देर चुप हो गये लेकिन उन्हें अपना वाक्य काफ़ी मज़ाकिया लगा। इसकी शर्मिंदगी दूर करने के लिये उन्होंने पूछा, ´´तुम्हें कैसे पता कि सविता उस लड़के से मिलने जाती है ? मेरा मतलब.....तुमने कभी देखा है या..........?´´
´´नाहीं जी...देखले रहतीं तब का.....तब त....ठीके क.. देले रहतीं...।´´ शुक्लाइन तर्रार जेलर वाले आत्मविश्वास से बोलीं।
´´लड़की की उम्र ज़्यादा होती जा रही है, कदम बहकने का खतरा है। तुम ज़रा नज़र रखा करो न....´´
´´बियाह ना होई त  ई कुल त होखबे करी। ओ लइकवा खातिर बात करीं ना जौन बैंक में चपरासी ह ´´ शुक्लाइन एक अति चिंतित मां नज़र आने लगीं।
´´तुम पागल हो गई हो क्या ? रमापति शुक्ला की बेटी की शादी बैंक के चपरासी से होगी ? वैसे आदमी को तो हम बीसबिगही में मजदूर न रखें।´´ शुक्ला जी भड़क गये।
´´... लइकी कुंआरे बइठल रही जिनगी भर। उनतीसवां लागता ए साल। बिसबिगही बिसबिगही कहत रहींला, अब ओमे से पांचे बिगहा मिली आपके....केस के फैसला जल्दीये होखे वाला बा, भईया कहत रहुंअन। अभी सवितवा के बाद दुगो अउर बचींहंस....कुछ करीं जीऽऽ....´´ अंतिम पंक्ति बोलते-बोलते शुक्लाइन का गला रूंध गया।
´´चल नाटक मत फइलावऽऽ। हमहूं तोहरा ले कम परेसान नईखीं।´´ शुक्लाजी ने मुंह फेर कर टीवी का चैनल बदलने लगे और एक चैनल पर ध्यानमग्न हो गये। उस पर सास-बहू का कोई सीरियल आ रहा था जिसमें उनकी कतई रूचि नहीं थी।

3.

कॉलोनी में लड़कों के कई ग्रुप थे। कुछ तैयारी वाले थे। तैयारी वालों में भी कई ग्रुप थे। जो एसएससी और आईएएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते थे वह और लड़कों से दूरी बना कर चलते। वे एक बार भी आईएएस का फ़ॉर्म भर देते तो कमोबेश ख़ुद को आईएएस मान के चलते थे भले ही कभी एसएससी हाई स्कूल लेवेल का प्री न निकाल पाये हों। यहां तक कि ऐसे लड़कों की ममतामयी मांएं भी अपने बच्चे का ध्यान भावी आईएएस की तरह रखतीं और फौज की तैयारी कर रहे बच्चों की माओं को हेय दृष्टि से देखतीं। फौज की तैयारी करने वाले लड़के आइएएस की तैयारी करने वालों को हेय दृष्टि से देखते क्योंकि वे अक्सर लम्बाई में पांच फीट दस इंच से ऊपर होते और उनमें से किसी को चश्मा नहीं लगा होता था। ये रोज़ सुबह चार बजे उठते, साढ़े चार बजे तक फ्रेश होकर कॉलोनी के ग्राउंड के कम से कम आठ चक्कर लगाते। कुछ अतिउत्साही लोग दस ग्यारह भी लगा लेते और देश की रक्षा करने का स्वप्न देखते। देश की रक्षा वाला शिगूफा इनके अभिभावक अपने परिचितों में छोड़ते वरना लड़के तो कसरत करते वक़्त तनख्वाह और दादागिरी की सुविधा के लिये खु़श होकर तैयारी करते। देश की सेवा की बात आने पर सुबह-सुबह (जब कॉलोनी का कोई भक्त तेज़ आवाज़ में `जग में सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम´ बजा रहा होता) दौड़ते हुये आपस में कहते- देस माने झांट....। ये लड़कियों से दूर रहने की यथासंभव कोशिश करते क्योंकि लड़कियां कमज़ोर बना देती हैं और तीस रातों में से एक रात भी स्वप्नदोष हो जाने पर चार चक्कर कम लगाते और दिन भर दूध दही ज़्यादा खाकर गयी हुयी ताकत को दुबारा पाने की चिंता में पूरा दिन निकाल देते। इनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी चिंता और बातचीत के लिये सबसे मुफ़ीद टॉपिक हुआ करता था ´´शरीर को ´और´ मज़बूत कैसे बनाएं´´
इन दोनों से अलग एक ग्रुप था जो सीधी सादी पढ़ाई में यकीन रखता था यानि हाई स्कूल के बाद इंटर फिर स्नातक फिर परास्नातक और फिर पढ़ाई से फुर्सत पाकर नौकरी खोजना। ये लोग अपनी रूचि या नौकरी के हिसाब से पाठ्यक्रम का चुनाव करने की जल्दबाजी नहीं दिखाते थे। पहले आराम से पढ़ाई कर ली जाय फिर जो पढ़ाई की है उस हिसाब से नौकरी खोजी जायेगी, वे कहते। कई तो ऐसे एलएलबी करने के बाद एलएलएम करने वाले मिल जाते जो कहते, भक्क हमारा वकील बनने का एकदम मन नहीं है।
                रिंकू और उसका ग्रुप इसी श्रेणी से संबंधित था और वे सब तैयारी करने वालों को बेवकूफ़ों वाली नज़र से देखते थे क्योंकि बकौल उनके वे सब जीवन की सुंदरताओं से अनभिज्ञ अपने कीमती समय को बकचोदी में बर्बाद कर रहे हैं। अबे ई क्या कि हाई स्कूल इंटर पास करके लगे दउड़ने कि मिलिट्री में लग जायं....अबे पढ़ लो पहिले कायदे से। रिंकू कहता। जिसको देखो सब आइयसे बनेगा। भोसड़ी के जिंदगी खतम हो जायगी...एसएससी भी झांट नहीं निकलेगा देख लेना। राजू कहता।
                अपने हिसाब से सुबह शाम क्रिकेट खेलते हुये ये लोग एकदम सही रास्ते पर थे और आदर्श ज़िंदगी जीते थे। कॉलोनी इनके लिये स्वर्ग थी क्योंकि सबकी तथाकथित प्रेमिकाएं जिन्हें वे प्यार, प्रेमिका, जानू, माल, जुगाड़, सामान और आइटम कहते, यहीं रहती थीं।
                कॉलोनी में लड़कियों के अलग-अलग संबोधन थे जो बातचीत की आसानी के लिये बनाये गये थे। लांचर का मतलब था कॉलोनी की सबसे लम्बी और तगड़ी पंजाबन काठी वाली लड़की जिसके साथ सब कुछ करने की इच्छा होती थी लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि जाकर उससे बात करता। वैसे बात करने में सभी यकीन भी नहीं रखते थे। एक लड़की से एक समय में एक ही प्रेम करेगा, ऐसी कोई शर्त नहीं थी। लांचर से राजू भी प्यार करता था जो लांचर के सामने मेमने जैसा लगता था। आनंद तो लांचर का दीवाना था। ये लोग लड़कियों के घरों के सामने से गुज़रते और तार पर टंगे उनके अंतर्वस्त्रों को देखकर उन्हें चुराने तक की प्लानिंग करते। ट्यूबलाइट इंटर की छात्रा थी जो रिंकू के ठीक सामने वाले दरवाज़े में रहती थी और हद से ज़्यादा गोरी थी। अठाइस साल वाली पसंद आने से पहले रिंकू को वह बहुत पसंद थी और एक बार वह उसके घर अखबार लेने गया था तो उसके बाथरूम से उसकी ब्रा उठा लाया था जो मित्र मंडली में बहुत हिम्मत का काम माना गया था। सीमा डार्लिंग उस लड़की का नाम था जिसका नाम सीमा इन लोगों को इत्तेफ़ाक से पता चल गया था। वह भोली सी दिखनेवाली लड़की एकदम क्यूट माई डार्लिंग टाइप की लगती थी इसलिये उसका नाम सीमा डार्लिंग रखा गया था और शॉर्ट में एसडी बुलाया जाता था। राजू से उसने एक बार रास्ते में बात की थी और राजू को उससे प्यार हो गया था। उसने राजू से पूछा था कि क्या दो बज गये हैं क्योंकि उसे सवा दो बजे तक अपने कोचिंग पहुंचना था। राजू, जो कि कैण्ट की तरफ जा रहा था, ने दो बजने के बावजूद उसके प्यार में पड़ कहा कि अभी पौने दो बजे हैं और वह उसकी बात पर भरोसा कर मुस्करा कर चली गयी थी। बाद में राजू ने इस बात पर उसको कॉलोनी की सबसे भोली लड़की घोषित करते हुये कहा कि अब सभी लोग उसकी ओर ´उस´ नज़र से देखना बंद कर दें क्योंकि उसे उससे सच्चा प्यार हो गया है। वह रोज उसको प्रपोज़ करने की योजनाएं बनाता और दोस्तों से कहता- यार अभी बहुत छोटी है, बच्ची है वह। प्रपोज करूंगा तो डर तो नहीं जाएगी ?
                दोस्त समझाते कि इंटर फ़ाइनल में है इतनी बच्ची भी नहीं है। आखिरकार राजू ने उसे एक दिन रास्ते में रोक कर प्रपोज किया था और वह रोती हुयी तेज पैडल मार सायकिल भगाती हुयी चली गयी थी। राजू को उस दिन बहुत दुख हुआ था कि उसे तीन-चार साल बाद प्रपोज करना चाहिये था। हालांकि सीमा डार्लिंग के बारे में उसकी राय तब बदल गयी थी जब वह कॉलोनी के ही फौज की तैयारी करने वाले लड़के के साथ घर छोड़ कर भाग गयी थी। राजू ने उस दिन रिंकू के कमरे पर दारू पीते हुये ऐलान किया था कि सारी लड़कियां कमीनी होती हैं और इनका कभी भरोसा नहीं करना चाहिये। उसने दोस्तों को वचन दिया था कि वह आज के बाद किसी लड़की की ओर नज़र उठा कर नहीं देखेगा और कल सुबह से ही कैट की तैयारी में लग जायेगा। हालांकि सुबह तक उसे लगने लगा था कि अभी कैट की तैयारी को काफी समय है और परीक्षा नज़दीक होने पर जो तैयारी होती है वही काम आती है। छम्मकछल्लो वह लड़की थी जो चलती थी तो पता नहीं क्यों लगता था कि छम-छम की आवाज़ आ रही है। उसकी चाल में एक आनोखी चमक थी और चेहरे पर बड़ा नूर था। रसगुल्ला के पूरे व्यक्तित्व में गौर करने वाली बात उसके गाल थे जो दोनों तरफ दो रसगुल्ले होने का आभास कराते थे। ये लोग लड़कियों का नामकरण करने में अभूतपर्व रचनात्मकता का परिचय देते थे और बाद में इन्हें खुद ही लगता था कि अबे जितना मेहनत लड़कियों का नामकरण (पढ़ें लौण्डियाबाज़ी) करने में लगाते हैं उसका आधा भी अपनी-अपनी पढ़ाई में लगा देंगे तो जिंदगी तर जाएगी।
                इन लोगों को दुनिया में हो रही हलचलों से कोई मतलब नहीं होता था। रिंकू ट्यूबलाइट के घर से अखबार मांग कर काम चला लेता था जिसका ज़ाहिरा तौर पर सिर्फ़ ट्यूबलाइट को देखना ही मक़सद था। दूसरा मक़सद हुआ करता था देखना कि छविमहल, आनंद, गंगा और शिल्पी में कौन सी फि़ल्में लगी हैं। टीवी का इनमें से कोई मुरीद नहीं था क्योंकि उसे पूरा परिवार एक साथ देखता था। वैसे भी टीवी पर इन्हें सिर्फ़ फि़ल्मी गाने वाले कार्यक्रम ही पसंद आते थे। एकाध के घरवाले जब आईएएस बनने के लिये उसे प्रेरित करने (प्रेरित करने का एक ही तरीका प्रचलित था कि अपने दोस्त के दोस्त के बेटे के आईएएस बनने की संघर्ष भरी गाथा सुनायी जाय जो कि पुराना हो चुका था और कोई इसपर कान नहीं देता था) चलते तो अगला इसीलिये घर से बाहर भाग आता कि बाप रे इसके लिये तो जीएस तैयार करना पड़ेगा और उसके लिये समाचार सुनना और अखबार पढ़ना पढ़ेगा।
                रिंकू का प्यार सेंसेक्स की तरह चढ़ रहा था और अब ग्रुप में इसे सर्वसम्मति से राष्ट्रीय मुद्दा मान लिया गया था। सभी अपने-अपने लिहाज़ से एक से बढ़कर एक राय दे रहे थे लेकिन रिंकू सभी को खारिज करता जा रहा था। सुनील ने एक दिन बाद इस घटना को जाना था और आश्चर्य से भर कर इस प्रकरण की तुलना ´क्योंकि सास भी कभी बहू थी´ नाम के अपने पसंदीदा धारावाहिक से करता हुआ बोला था कि ऐसा पहली बार हुआ है कि उसने एक एपिसोड मिस किया और कहानी कहां से कहां पहुंच गयी।
                लड़कियों के विषय से अलग ग्रुप का दूसरा पसंदीदा विषय था फ्यूचर प्लानिंग। इस फ्यूचर प्लानिंग का दुनिया की हर चीज़ से मतलब हो सकता था लेकिन पढ़ाई से कोई मतलब नहीं हुआ करता था। ये फ्यूचर प्लानिंग कॉलोनी का स्थायी भाव थी और हर पार्क के हर कोने में प्लानिंग की आनोखी किस्में पायी जा सकती थीं।

6 comments:

  1. bahoot badhiyaa ....maine to enjoy kia......beech me jo theth bhojpoori ka prayog huwa hai...wo kabiletarif hai...bhojpuri kya near about balia ki language hai....iske bina us scene ka maja kam aata....

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  2. mujhe bas ek paire ko samjhane me problem hui....
    ..उनके व्यक्तित्व में आजकल एक नोट करने लायक और उल्लेखनीय बात यह थी कि कॉलोनी का सबसे कुख्यात बदमाश जिसके ऊपर कई केस लंबित थे, कैण्ट थाने का दारोगा जोगिंदर तिवारी किसी घटना के बाद उनका अनन्य भक्त बन गया था और इस अतिरिक्त योग्यता के कारण वह कॉलोनी में सम्मान के साथ अतिरिक्त भय का भी बायस थे। यह एक रेलवे कॉलोनी थी जिसके बहुत से क्वार्टरों में रेलवे के कर्मचारी भी रहते थे।
    ho sake to ise clear kar dein...

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  3. keep rocking maza aa raha hai....

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  4. Realy it was fantastic, keep it up -)

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  5. what a sensibility, really interesting

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