विमल का उपन्यास जनराह पर अब तक हर रविवार को धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा है. लेकिन बहुत से पाठकों ने इसे शुक्रवार से प्रकाशित कराने के लिए कहा है ताकि वो शनिवार और रविवार की छुट्टी के दिन पढ़ सकें. इसलिए अगली बार से यह हर सप्ताह शुक्रवार को प्रकाशित किया जाएगा. आज इस कड़ी को प्रकाशित करने की खुशी के साथ इस बात की भी खुशी है कि विमल का आज जन्मदिन है. जनराह की तरफ से विमल को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामना और बधाई.(मॉडरेटर )
(दो हजार छह में बनारस में हुए बम विस्फोटों के बाद शुरू हुए इस उपन्यास ने विमल के अनुसार उनकी हीलाहवाली की वजह से छह साल का समय ले लिया. लेकिन मेरे हिसाब से छह साल के अंदर इस उपन्यास ने मानवता के लंबे सफर, उसके पतन और उत्कर्ष के जिन पहुलओं को हमसाया किया है उसके लिए यह अवधि एक ठहराव भर नजर आती है. विमल की भाषा वैविध्य और कहानीपन से हम परिचित है. इस उपन्यास में विमल ने जिस बेचैन भाषा के माध्यम से कथ्य की पड़ताल की है वह समाज की अंतर्यात्रा से उपजी भाषा है. शुरू-शुरू में एकदम सहज, व्यंग्यात्मक और हास्ययुक्त भाषा और कुछ किशोरों के जीवन के खिलंदड़े चित्रण के साथ चलता सफ़र बाद में धीरे-धीरे उसी तरह डरावना और स्याह होता जाता है जैसे हमारी ज़िन्दगी. उपन्यास का नाम 'नादिरशाह के जूते' है लेकिन लेखक इसे लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है और यह बाद में बदला जा सकता है. हर शुक्रवार यह इस ब्लॉग पर किश्तवार प्रकाशित होता है..प्रस्तुत है चौथी किश्त ...अपनी बेबाक टिप्पणियों से अवगत कराएँ ..-मोडरेटर)
6.
रिंकू, राजू, आनंद और सुनील पार्क के एक कोने में
बैठे हुये अपने दूसरे पसंदीदा विषय ´फ्यूचर
प्लानिंग´ पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा नौकरी और
अपने बिज़नेस से होते-होते एक बड़े ´एम्पायर´ तक आ चुकी थी।
´´इतना तो तय है कि दुनिया में कोई नौकरी
कर के करोड़पति नहीं बना।´´
सुनील ने मतदान किया।
´´हां और बना भी तो ऊ आइयस रहा होगा और
घोटाला करके बना होगा।´´ रिंकू का भी मत वही था।
´´अबे धीरूभाई अंबानी ने सौ का नोट भी
नहीं देखा था पहले कभी। क्या था उसके पास सिर्फ़ एक सपना जो हम लोगों के पास भी है...।´´ राजू ने चर्चा को एक ऊंचाई पर ले जाते
हुये कहा। चर्चा धीरे-धीरे इतनी ऊंचाई पर चली गयी थी कि अब इस समय कोई किसी लड़की
का ज़िक्र करता तो उसे निकृष्ट करार देते हुये खूब गरियाया जाता।
´´तुम साले हर समय लौण्डियाबाज़ी में ही
डूबे रहते हो, यहां सीरियस बात हो रही है।´´ ग्रुप का सबसे बड़ा लौण्डियाबाज तड़ से
कह देता।
´´हम नौकरी नहीं करेंगे हम लोग नौकरी
देंगे।´´ आनंद ने कहा। इस बात में किसी की रूचि
नहीं थी कि कैसे देंगे, सब बस देंगे के आनंद में डूब कर ये
महसूस कर रहे थे कि वे नौकरियां दे रहे हैं और लेने के लिये सैकड़ों लोग लाइन लगाये
खड़े हैं।
´´खाली बात करने से नहीं होगा गुरू। काम
किया जाय। कोई और विषय पढ़ने का कोई मतलब नहीं है। दुनिया में दो ही चीज की मांग है
अंग्रेजी और कम्प्यूटर। अब मीनिंग वाला काम एकदम चालू कर दिया जाय।´´ आनंद हर बार कुछ प्रेक्टिकल करने पर
ज़रूर ज़ोर देता था और इसके प्रस्ताव से सबमें एक अनोखा जोश भरता था।
´´ठीक है यार। कल से रोज अंग्रेजी का
पांच शब्द याद किया जाय लिख कर और उसको आपस में बांट लिया जाय तो हर एक के पास कम
से कम बीस वर्ड मीनिंग रोज हो जाएगा कि नहीं ?´´
´´हां हां गुरू। मस्त आयडिया है।´´ सबने स्वागत किया।
चर्चा को थोड़ा और विकसित कर कुछ और
प्रस्तावों पर गौर किया गया। एक प्रस्ताव और पारित हुआ।
´´कल शाम से हम सब लोग पांच से छह रिंकू
के कमरे पर इकट्ठा होंगे और इंग्लिश बोलने की प्रेक्टिस करेंगे।´´ यह नई तरह का प्रस्ताव भी आनंद की तरफ
से ही आया।
´´हां हां बहुत सही। और जो नई मीनिंग हम
लोग सीखेंगे उसे हिंदी बोलने में भी यूज करेंगे ताकि याद हो जाय।´´
´´बहुत सही। कल शाम को मिलते हैं।´´
उस शाम की प्लानिंग का ´होल एण्ड सोल´ यह था कि स्नातक होने में साल भर बचा
है। साल भर तक इतनी तैयारी की जाय कि पहले ´अटेम्प्ट´ में कैट निकाल कर आईआईएम अहमदाबाद या
लखनऊ (लखनऊ का आयडिया भी आनंद का था क्योंकि वह घर से दूर जाने के पक्ष में नहीं
था) से एमबीए कर लिया जाय। फिर दो तीन साल पचास-साठ लाख सालाना के पैकेज पर काम कर
कुछ पैसे बचा लिये जांय। उसके बाद अपनी-अपनी नौकरियां ´क्विट´ करके कोई ´इंटरप्रिन्यूयर´ शुरू किया जाय जो एक दिन बहुत बड़ा
एम्पायर बने। हर शाम का पांच से छह बजे तक का वक़्त तय किया गया कि सब रिंकू के
कमरे पर इकट्ठे होंगे और इस एक घण्टे में कोई हिंदी नहीं बोलेगा। जो भी बात होगी
पूरी तरह इंग्लिश में होगी और जो भी हिंदी बोलेगा वह सबको फाटक पर चाय-चूय
(चाय-चूय का मतलब था चाय के साथ सिगरेट जो चार समाज में बोलने की सहूलियत के लिये
बनाया गया था ताकि रिंकू आनंद के घर जाकर उसकी मम्मी के सामने भी बोल सकता था-आओ
आनंद फाटक से चाय-चूय कर के आते हैं) करायेगा। सबने इस प्रस्ताव का स्वागत किया।
स्वागत सुनील ने भी किया पर अंदर ही अंदर वह बुरी तरह नर्वस हो गया। उसे हमेशा
लगता था कि जब भी एम्पायर बना, सब
साले मिलकर उसको एम्पायर के बाहर पहरा देने में लगा देंगे क्योंकि उसकी अंग्रेजी
ऐसी थी कि वह ´दूर जाना´ क्रिया की जगह इंग्लिश में ´पास अवे´ जैसे कई प्रयोग करके ग्रुप में कई बार चर्चा का केंद्र बन चुका था।
रिंकू के कमरे पर जो भी जाता था वह
चाय-चूय का इंतज़ाम करके जाता था। चूय दुकान से खरीद लेता था और चाय के लिये एक
नींबू भी। पत्ती और चीनी रिंकू के कमरे पर हमेशा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहती
थी भले ही और कुछ न हो। उस दिन सबसे पहले राजू पहुंचा। उसकी जेब में दो गोल्ड
फ्लेक और हाथ में एक नींबू था। दरवाजा़ खटखटाने और खोलने में दो मिनट और बीत गये। ´´अबे जल्दी खोल।´´ उसने फिर से खटखटाया ओर आवाज़ लगायी। ´´हां हां आ रहे हैं।´´ रिंकू ने जल्दी से दरवाज़ा खोला। ´´इतना जल्दी में क्यों हो ?´´
कमरा खुलते ही राजू ने रिंकू को नींबू
थमाते हुये कहा, ´´गुरू पत्ती बहुत कम डालना और हल्का
बहुत हल्का नमक डाल देना,
चीनी थोड़ी ज़्यादा। झकास चाय बनाओ।´´ रिंकू ने दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र
डाली। पांच बजने में एक मिनट बाकी था। राजू आराम से बिस्तर पर पसर गया।
´´अबे इस तरह की चाय बनाने के लिये
अंग्रेजी में कैसे कहेंगे,
समझ में नहीं आ रहा था इसीलिये
भागे-भागे पांच से पहिले आये हैं। जाओ चढ़ा दो और लोग आते ही होंगे।´´
रिंकू राजू की परेशानी की गंभीरता समझ
गया। वह किचन में गया और चार-पांच कप चाय के हिसाब से पानी चढ़ा दिया। पांच मिनट
बाद आनंद भी आ गया।
´´हैल्लो मिस्टर रिंकू। व्हाट्स गोइंग ऑन
?´´ उसने
अपनी बात यूएस एक्सेंट में खत्म की।
´´व्हाय आर यू स्पीकिंग इन सच एक्सेंट ? वी
शुड यूज़ देयर लैंग्वेज नॉट एक्सेंट।´´ रिंकू
ने कहा तो आनंद ने उसकी तरफ तारीफ़ भरी नज़रों से कहा।
´´या, यू
आर राइट।´´ बोलता हुआ आकर वह राजू के पास बैठ गया।
´´वुड यू लाइक टु हैव सम टी ?´´ रिंकू
ने किचन के दरवाज़े पर खड़े-खड़े पूछा।
´´आइ लव यू माय डार्लिंग। दैट्स व्हाट आय
वांटेड टु से। कीप द टी लीफ वेरी लेस एण्ड शुगर मोर दैन नॉर्मल। आल्सो एड लिटिल
बिट साल्ट टु चेंज द टेस्ट।´´ आनंद
ने अपनी पसंद बतायी और राजू से मुखातिब हुआ जो एकटक आंनद का मुंह देखे जा रहा था।
´´यू आर स्पीकिंग सो फ्ल्यूएंटली।´´ राजू ने उदास आवाज़ में आनंद को कहा तो
वह और खुश हो गया और उसके कंधे पर धौल जमा दी।
´´वी ऑल स्पीक फ्ल्यूएण्टली बट व्हाट वी
नीड इज़ प्रेक्टिस।´´
´´या यू आर राइट।´´ राजू ने कहा और तीनों मिलकर सुनील का
इंतज़ार करने लगे।
सुनील आया तो सवा पांच हो चुके थे।
आनंद और रिंकू इस बीच कई मुद्दों पर दो-दो तीन-तीन लाइन बात कर चुके थे और राजू
समझ चुका था कि धीरे-धीरे इन दोनों ने अपनी अंग्रेज़ी बोलने की क्षमता में खासा
इज़ाफ़ा कर लिया है जबकि वह योजनाएं ही बनाता रह गया है। उसने सोचा कि आज से वह भी
घर से अभ्यास कर के आया करेगा ताकि इन दोनों की बातचीत में सक्रिय रूप से हिस्सा
ले सके। सुनील बड़े थके कदमों से आया और बिना कोई उत्साह दिखाए कुर्सी पर बैठ गया।
रिंकू गया और चाय छान कर ले आया।
´´व्हाई आर यू लेट ?´´ राजू
ने पूछा। अब उसका मन कर रहा था कि कम से कम सुनील से अच्छा बोल क रवह कुछ संतुष्टि
हासिल करे।
´´द ट्रेन....अं अं.. हू कैरी कोल इन
इट....अं...वाज...अं...अं कम टू माई...अं.अं रूट।´´ सुनील ने अपनी बात यथासंभव सरल अंग्रेज़ी में समझाने की कोशिश की।
´´विच ट्रेन....? अ गुड्स ट्रेन....?´´ राजू
ने पूछा जो कि मालगाड़ी की अंग्रेज़ी जानता था।
´´यस...राइट।´´ ऐसे वार्तालापों में ´यस राइट´ सुनील का पसंदीदा वाक्य हुआ करता था और वह हर मुद्दे पर सामने वाले
से सहमत होने को जान दिये रहता था।
´´हाउ इज़ द टी ?´´ रिंकू
ने सुनील से पूछा। आखिरकार उसने अच्छे मेज़बान का फ़र्ज निभाया था जो कि उसकी रोज
की आदत थी पर सभी उसे चाय की प्रतिक्रिया ज़रूर दिया करते थे क्योंकि यह उसे पसंद
था। बाकी दोनों ने प्रतिक्रियाएं दे दी थीं लेकिन सुनील, जो रोज सबसे पहले प्रतिक्रिया देता था, खामोशी से चाय पीये जा रहा था। रिंकू
के पूछने पर उसने सिर्फ़ इतना
कहा।
´´टी इज़ गुड।´´
´´ओनली गुड ?´´
´´गुड गुड वेरी गुड।´´ सुनील ने चिढ़कर कहा। आनंद ने एक्सीलेंट
कहा था पर नर्वस सुनील सुन नहीं पाया था नहीं तो यह वर्ड उसे याद था।
थोड़ी बहुत और बातें हुयीं पर टुकड़ों
में बातें करने में एक जैसे ही वाक्य बार-बार दोहराये जा रहे थे। आनंद, जो कि एक महीने ´आरोड़ा क्लासेज़´ सिगरा में एक महीने का कोर्स कर चुका
था और अंग्रेज़ी सिखाने वाली मैडम के प्यार में पड़ कर उसे कोचिंग छोड़नी पड़ी थी, ने सिस्टेमेटिक तरीके से अंग्रेज़ी
सीखने के लिये कोचिंग का ही पैटर्न अपनाने का सुझाव दिया। यह तय रहा कि कल से किसी
एक मुद्दे पर दो-दो का ग्रुप बांट कर ग्रुप डिस्कशन किया जायेगा। सुनील ने आज के
लिये राहत की साँस ली। कल फिर नियत समय पर मिलना तय हुआ।
7.
सविता को रिंकू बहुत अच्छा लगने लगा था
तो इसका सबसे बड़ा कारण था कि वही उसके घर के आस पास एकमात्र जवान लड़का दिखायी देता
था और दूसरे यह कि उसने कोशिश भी की थी। वरना कुछ दूरी पर चौथे छत पर एक लड़का और
भी था और वह रिंकू से लम्बा तगड़ा और ज़्यादा स्मार्ट था। वह जब भी छत पर चढ़ती, वह डिप्स मार रहा होता या पुश-अप्स कर
रहा होता और उसे देखते ही नीचे उतर जाता। इसी कारण सविता रिंकू की ओर आकृष्ट हुयी
थी। हालांकि उसका ऐसा सोचना नहीं था। उसका सोचना था कि जो लड़का अकेले रह कर खाना
बना, कपड़ा धो कर पढ़ाई कर रहा है वह कितना
ज़िम्मेदार होगा। उसके मन में रिंकू की वह छवि बसी हुयी थी जब पहली बार दोनों ने एक
दूसरे को देखा था। वह तुरंत नहा कर छत पर बाल सुखाने चढ़ी थी। रिंकू अचानक किचेन से
निकल कर कमरे में गया और कमरे में से एक पतली किताब ला कर बालकंनी में ही खड़ा होकर
पढ़ने लगा। उसके एक हाथ में किताब था और दूसरे हाथ में कलछुल जिससे बीच-बीच में
जाकर वह छोटे वाले गैस पर रखी खिचड़ी चला आता था। सविता को उसकी यह संघर्षमय छवि
ईश्वरचंद्र विद्यासागर की याद दिला गयी थी और वह सीने में मीठी कसक लिये नीचे उतर
गयी थी। नीचे उतर कर वह उस दिन बिना बात दिन भर मुस्कराती रही थी और मां के बिना
कहे सारे काम करने के बाद मां के सिर पर तेल भी दबा दिया था और ´होना है तुझपे फ़ना´ गाना गाती रही थी। उसके नीचे जाने के
बाद रिंकू ने भी ´मैं और मेरी मस्त भाभी´ नाम का पाठ खत्म कर के मस्तराम नामक
हिंदी के सबसे अधिक बिकने वाले साहित्यकार की किताब बिस्तर के नीचे छिपा दी थी और
खिचड़ी बनाने में ध्यान देने लगा था।
सविता को फि़ल्में देखने और पढ़ने का
बहुत शौक था मगर जब उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गयी तो दूसरा शौक धीरे-धीरे कम होता गया और
पहले शौक ने उसकी भी जगह ले ली। शाहरूख खान बहुत सी स्वप्नदर्शी लड़कियों की तरह
उसका भी पसंदीदा अभिनेता था और उसे जिंदगी में हर परेशानी के बावजूद लगता था कि एक
दिन उसका राहुल आयेगा और उसका हाथ पकड़ कर कहेगा....´´आई लव यू सससस सविता´´ और
वह उससे झूम कर लिपट जाएगी। रिंकू के बालों की स्टाइल उसे बिल्कुल शाहरूख खान जैसी
लगती थी और अब फि़ल्में देखते वक़्त शाहरूख़ की जगह उसकी कल्पना में रिंकू आया करता
था। यह दीगर बात थी कि अभी तक न उसे रिंकू का नाम पता था न रिंकू को उसका। उसे
लगता था कि इस लड़के का नाम या तो राहुल होगा या राज। अर्जुन भी होगा तो चलेगा, वह सोचती थी। वह हर समय सोचती रहती थी
कि उससे उसका मिलना कैसे संभव हो सकता है मगर मां कभी घर छोड़कर निकलती ही नहीं थी
कि वह उससे मिल पाए। फिर उसने सोचा कि वह लड़का भी तो मिलने की तरक़ीबें खोज ही रहा
होगा।
अनु सभी बहनों में सबसे खूबसूरत थी और
ग्रेज्युएशन कर रही थी। उसके साथ पढ़ने वाले कई लड़कों ने बारी-बारी उसे यक़ीन दिलाने
की कोशिश की थी कि वे उसे प्रेम करते हैं पर अनु ने हर बार पहले उनकी जाति पता की
और बाद में कोई और ब्राह्मण निकल जाने पर प्रस्ताव ठुकरा दिया था। मनु इंटर फाइनल
में थी और उसके कई लड़के दोस्त थे जो बारी-बारी इस भ्रम में रहते कि वे उसके ब्वाय
फ्रेण्ड हैं। वह किसी का भ्रम तोड़ने का कोई प्रयत्न नहीं करती थी क्योंकि उसका
मानना था कि कमबख्त यह पूरी दुनिया ही भ्रम है।
8.
भेलूपुर पर पारसनाथ नाम का एक लड़का रहता था जो
बी एच यू से स्नातक की पढ़ाई कर रहा था और रिंकू का अच्छा दोस्त बन गया था। रिंकू
ने बाद में उसका परिचय आनंद और राजू से भी करवाया था। उसमें उल्लेखनीय बात यह थी
कि गंभीर साहित्य और सिनेमा के दीवाने इस लड़के ने एक कहानी लिख दी थी जो हिंदी
साहित्य जगत में अप्रत्याशित रूप से चर्चित हुयी थी। वह लेखक अपनी पहली ही कहानी
से बुरी तरह प्रसिद्ध हो गया था और बी एच यू में उसके मनोविज्ञान संकाय में उससे
मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी। ज़्यादातर हिंदी विभाग के छात्र छात्राएं यह
देखने आते थे कि हमारे विभाग का न होकर किसने हमारा हक छीन लिया। साल भर के भीतर
इस लेखक ने अपनी दूसरी कहानी लिखी थी और वह पहली से भी ज़्यादा चर्चित हुयी थी।
दोनों कहानियां एक ही पत्रिका में छपी थी और संपादक ने दोनों कहानियों को सदी की
महान कहानियों में से एक होने की घोषणा कर पाठकों के लिये पढ़ने और पसंद करने का
माहौल बना दिया था और बाकी का काम दोनों सशक्त रचनाओं ने खुद कर लिया था। यह लेखक
अब अपनी तीसरी कहानी पर काम कर रहा था और हर समय इसमें ही डूबा रहता था। उसे लगता
था कि वह एक बहुत महत्वपूर्ण आदमी है और दुनिया को अपनी कहानियों से जल्दी ही बदल
देगा। दोनों कहानियों में उसने खूबसूरत भाषा में कुछ बहुत महान-महान बातें कही थीं
और इसके बाद वह बोलचाल में भी अक्सर महान बातें करने लगा था। दोस्तों के साथ बात
करते वक़्त उसके मन में यह चलता रहता कि दोस्तों को मेरा अहसानमंद होना चाहिये कि
वे इतने महान लेखक के विचार जान पा रहे हैं। जब उसके आस-पास कुछ दोस्त होते तो वह
इतनी महान बातें बोलता कि महान बातों पर कभी ग़ौर न करने वाले रिंकू राजू और आनंद
तीनों की आंखें फटी रह जातीं। रिंकू ने उसे अपना आदर्श मान लिया था और वह भी कुछ लिखने की कोशिशें करने लगा था। यह
प्रक्रिया डेढ़ साल में बहुत धीरे-धीरे हुयी थी लेकिन अब रिंकू यहां तक पहुंच गया
था कि उसने खुद को नायक और अठाइस साल वाली को नायिका लेकर एक कहानी की रचना कर दी
थी और अब उसका पहला लक्ष्य था कि वह पारस को कहानी दिखाये और उसकी राय प्राप्त
करे। पारस का ज़्यादातर समय दोस्तों को यह बताने में बीतता कि उसकी कहानी पढ़ कर एक
लड़की ने रात को दो बजे रोते हुये उसे फोन किया था। किसी सुदूर प्रदेश की महिला ने
भोर में तीन बजे उसकी कहानी पढ़ उसे फोन किया था, यह बताते हुये उसके चेहरे पर अति
गंभीरता का भाव उतर आता कि उसने किया तो किया मैंने नींद खराब होने का ज़रा भी
बुरा नहीं माना। रिंकू के मन में अक्सर ये सवाल कौंधता कि लड़कियां रात में ही
कहानी क्यों पढ़ती हैं और अगर पढ़ती हैं तो बेवकूफ़ रात में ही फोन क्यों कर देती
हैं। दोस्तों के हर सवाल का जवाब देते वक़्त पारस के मन में उसके सटीक उत्तर की
जगह दूसरों के उत्तर आते ताकि वह सबसे अलग और आद्वितीय उत्तर दे सके और वह
ज़्यादातर जगहों पर कामयाब भी होता था। यहां तक कि किसी आम फि़ल्म जैसे ओंकारा पर
उसकी राय पूछने पर उसने ऐसी राय दी थी जो
न रिंकू को समझ आया था न आनंद को, राजू
ऐसी फालतू की कोशिशें करता ही नहीं था। पारस के मन में हमेशा रहता था कि वह
टॉलस्टॉय का भारतीय संस्करण है और वैसी ही महान रचनाएं देगा जिसकी शुरूआत वह कर
चुका है। बहरहाल पारस चाहे जो सोचता हो, उसकी संगत में आने से राजू रिंकू और आनंद की तिकड़ी का काफी विकास हुआ
और उनके सोचने के तरीके में काफी बदलाव आया। ये सारे बदलाव उस दौरान ही आ रहे थे
जब रिंकू अठाइस साल वाली के प्यार में पड़ा था। संकटमोचन दर्शन करने जाते वक़्त
(यहां उल्लेखनीय बात यह है कि तीनों संकटमोचन या नये विश्वनाथ मंदिर में जिनका दर्शन
करने जाते थे वे हनुमान जी और बाबा विश्वनाथ कतई नहीं थे) एक दिन तिकड़ी पारस के
पास रूकी और रिंकू ने अपनी समस्या का समाधान जानना चाहा। पारस उसकी ओर देखकर
मुस्कराया जैसे ये नादान लोग कितने तुच्छ कामों में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं।
´´जानते हो रिंकू, दुनिया में प्यार नाम की कोई चीज़ नहीं
होती।´´ उसने मुस्कराते हुये एक बिल्कुल ही अलग
बात कही जो उसकी कहानियों में कही गयी बातों से बिल्कुल अलग और विरोधाभासी थी।
रिंकू विचलित नज़र आने लगा। उसे इस विषय पर इस तरह का व्याख्यान नहीं चाहिये था।
इस एक लाइन के बाद उसने मार्क्स, फूको
और फ्रायड नाम के तीन विद्वानों का नाम लेकर कुछ ऐसी भीषण बातें कहीं कि रिंकू का
कहीं जाने का मूड ही चला गया। पारस के चेहरे पर वह मुस्कान थी अपने अलावा पूरी
दुनिया को बेवकूफ़ मान लेने पर आसानी से आ जाती है। वे तीनों वहां से चुपचाप चल
दिये तो पारस को अपनी सलाह पर गर्व हुआ। वह चूंकि अपने आपको अतिरिक्त बुद्धिजीवी
मानता था, उसे दूसरों की आलोचनाएं बहुत प्रिय हैं, ऐसा दिखाने में वह बहुत गौरान्वित महसूस
करता था। जो सही कारणों से भी उसकी तारीफ़ करता था, उसके प्रति वह अंदर से बल्लियों उछलने
के बावजूद उदासीन रहता था और जो उसकी किसी बात सा किसी रचना कि फालतू में भी बुराई
कर देता था, अंदर से जल कर राख हो जाने के बावजूद
वह एक ख़ास तरह की मुस्कराहट मुस्कराता था जिसका सिर्फ़ एक मतलब हुआ करता था ´यानि बात तुम्हारी समझ में नहीं आयी।´
बात न तो रिंकू की समझ में आयी थी न ही आनंद की और राजू का तो शुरू से
मानना था कि लिखने वाले सबसे बड़े नाकारे होते हैं और इनसे जितना चाहे मुंहचोदी
करवा लो काम मत करवाओ। रिंकू ने निर्णय लिया था कि अब वह बिना पारस को दिखाए ही
अपनी कहानी किसी पत्रिका में छपने के लिये भेजेगा।
bahut mast
ReplyDeletepahle hans lu.....ha ha ha ha ha ha ha ha
ReplyDeletemaja aa gaya sir....enlish speeking wala chapter to khatarnaak tha...main gadgad ho gaya
sir apka Characterization lajwaab hai....kabhi kabhi charecter ke bare main batate huye jo example app dete hai....uska koi jwab nahi hota..as like-पारस के चेहरे पर वह मुस्कान थी अपने अलावा पूरी दुनिया को बेवकूफ़ मान लेने पर आसानी से आ जाती है